Saturday, March 30, 2013

उदासी का गीत....

नहीं लि‍खना चाहती अब मैं
उदासी भरा कोई गीत
ना ही देखना चाहती हूं
उदास आंखों से,  गि‍र रहे
पेड़ों के हरे पत्‍तों को

मैं ये भी नहीं चाहती कि
चौखट पर दि‍या जलाकर
मन के अंधेरे को हरने की
करूं, नाकाम सी कोशि‍श

मगर, चैत के इन लंबे दि‍न
और अजनबी सी रातों का
क्‍या करूं ,
कि इन दि‍नों

चूमकर पलकों को नींद भी
तुम सा ही दूर चली जाती है


तुम्‍हें भी पता है ये बात
कि‍ आधी रात के बाद का वक्‍त
न चांद से मोहब्‍बत होती है,
 न भाते हैं सि‍तारे 

बेचैन मन फि‍रा करता है
यादों की गलि‍यों में उदास सा..... 


तस्‍वीर--साभार गूगल 

Monday, March 25, 2013

कहीं खो सी गई है वो होली.......


(( सभी मि‍त्रों को होली की बधाई व शुभकामनाएं....मेरी तरफ से सारे लोग गुलाल लगा लें....;क्‍योंकि मुझे गुलाबी रंग पसंद है...... :))




होली......टेसू से बने प्राकृति‍क रंगों की होली..........लाल-हरे-पीले रंगों की होली..........कीचड़ की होली..........गली-गली घूमती युवाओं की टोली.......कभी होंठों पर गाली तो कभी खेलते कपड़े फाड़ के होली...........ये थी कभी  झारखंड-बि‍हार की होली.......जो इन दि‍नों कहीं खो सी गई है।

फागुन के चढ़ते ही होली का उमंग अपने परवान पर होता है। चारों तरफ गलि‍यों में जोगीरा स र र र र र की धुन....काला-पीला हरा-गुलाबी...कच्‍चा पक्‍का  रंग और रंग बरसे की धुन में लोग पागल से हो जाते थे। 


सबसे पहले होलिका दहन की तैयारी होती थी। वो भी पूरे जोश के साथ। झारखंड-बि‍हार के गांवों
में चलन था कि‍ प्रत्‍येक घर से लकड़ी मांग कर इकट़ठा कि‍या जाता था औशाम को लग्‍न अनुसार होलि‍का दहन कि‍या जाता था। गांव के सभी युवक ढोल-मजीरे के साथ गली-गली गीत गाते घूमते थे....सत लकड़ी दे सत कोयला दे। और प्रत्‍येक घर से गृहि‍णी बाहर आकर उन युवकों को सात लकड़ी देती थी। तब

गैस चूल्‍हा नहीं आया था। हर घर में लकड़ी के चुल्‍हे में खाना बनता था।

लोग खुशी-खुशी होली की तैयारी करते थे। युवक कई बार शरारत भी करते थे। एक

बार शाम को सो रहे बूढ़े व्‍यक्‍ति को खाट सहि‍त रात में उठाकर तालाब में
छोड़ आए थे। रात भर वो पानी में ठि‍ठुरते रहे। जो हंगामा मचा कि‍ पूछि‍ए
मत। खैर....

होली के सप्‍ताह  भर  पहले से शाम को मंदि‍र में लोग एकत्र होकर फगुआ गाते थे। वो लंबी
तान छिड़ती कि‍ महि‍लाएं खि‍ड़की से कान लगा मजा लेने से खुद को न रोपाती। बड़ा मजेदार दि‍न-रात होता था तब। दूसरे दि‍न सुबह से होली का जो रंग चढ़ता कि‍ बस....। बच्‍चे-बड़े सब सराबोर। भंग और ठंडई का दौर पर दौर चलता। क्‍या छोटा क्‍या बड़ा। 
देवर-भाभी, जीजा-साली तो इस दि‍न का  इंतजार कब से करते थे और महीनों तक फगुआहट 
की मुस्‍कराहट होंठो में दबाए रहते। खूब-खूब रंग खेला जाता। यहां तक कि मि‍ट़टी-कीचड़- मोबि‍ल तक का इस्‍तेमाल करते लोग। घर में छुपने वालों को घर से खींचकर नि‍काला जाता और फि‍र....... उफ........जो दुर्गति‍ होती,  कि‍ महीनों याद  रहता था। लोग उन्‍मत हो जाते। थक-थक जाते।  फि‍र ये रंगों का खेला दोपहर ढलते तक समाप्‍त हो जाता। सब लोग वापस घर में नहाते-खाते और शाम की तैयारी में लग जाते। शाम यानी गुलाल का समय....छोटों को आर्शिवाद देने और हमउम्र से गले मि‍लने का वक्‍त। लोग एक-दूसरे के घर जाते। बड़ों के पांव पर गुलाल लगाते। शालीनता से मनती होली। इस दि‍न शायद ही कोई अपने घर में खाना खाता होगा। मगर तरह-तरह के व्‍यंजन सबके घरों में बनते। छोटानागपुर का स्‍पेशल......धुसका, पुआ, बर्रा और मांसाहारी लोग जरूर मटन-चि‍कन बनाते। इसके बि‍ना तो यहां होली ही न मने। साथ-साथ मि‍ठाइयां और दही-बड़े भी। तब कानफाड़ू लाउडस्‍पीकर में बजता रहता था .......बड़ो घर के बेटी लोग..... और आज न छोड़ेंगे.....खेलेंगे हम होली,  सुनकर लोग नाराज नहीं होते- मंद-मंद मुस्‍कराकर आनंद लेते थे।


मगर अब न वो रंग रहा न उत्‍साह। न अब वो भाईचारा है न उमंग। लोग होली को
पानी की बर्बादी मानते हैं। बात सच है मगर एक दि‍न इसी बहाने लोगों के मन
के मैल तो धुल जाते थे। मगर अब तो लोग तिलक होली खेलते हैं। कोई एक-दूसरे
के घर नहीं जाता। होली मि‍लन समारोह कर पर्व की खानापूर्ति की जाती है। लोग सप्‍ताह भर
पहले से होली म‍लिन करते हैं और चुटकी भर गुलाल गालों में लगा कर खेल ली होली।
जब जेहन में होली की याद सप्‍ताह दस दिन तक न रहे तो कैसी होली............

तस्‍वीर--साभार गूगल 

Sunday, March 24, 2013

नादानी से......

बहला देते हैं आप
हमें तो बड़ी आसानी से

सच्‍ची-झूठी मि‍लाकर
रोज इक नई कहानी से

आपसे हैं प्‍यार इस खाति‍र
जानकर भी हैं हम अंजान

मारे जाएंगे देखना इक दि‍न
हम अपनी इसी नादानी से

तस्‍वीर--साभार गूगल 

Friday, March 22, 2013

तेरा शुक्रि‍या......


चूमकर पेशानी
सारा ग़म पीने वाले
छीनकर सारी उदासी
लबों को हंसी देने वाले

तेरा शुक्रि‍या......

कि रहम है मौला का
तमाम दुश्‍वारि‍यों के बावजू़द
एक अदद कांधा तो बख्‍शा
जहां सर रखकर
ग़ुबार दि‍ल का निकाल सकें
मायुसि‍यों की गर्द झाड़
सुकूं पा सके
सीने में उसके सर रखकर
रूठी नींद को मना सकें

कि बेरहम दुनि‍या में
एक नाम तो ऐसा है
जो जैसा भी है
हर हाल में मेरा है

तेरा शुक्रि‍या......


तस्‍वीर--साभार गूगल

Wednesday, March 20, 2013

(((...वि‍श्‍व गौरैया दि‍वस पर कुछ यादें...)))

आज वि‍श्‍व गौरैया दि‍वस है। पि‍छले वर्ष ही ये पोस्‍ट मैंने लि‍खा था, जि‍सका बाद में आलेख के रूप में  वि‍स्‍तार कि‍या। चीजें वही हैं.....समस्‍याएं भी वहीं। इसलि‍ए एक बार फि‍र आपलोगों के ध्‍यानार्थ इसे पोस्‍ट कर रही हूं। 




लगभग छह वर्ष की लड़की गर्मी की छुट़टि‍यों में नानी घर गई। एकदम
सुबह चीं..चीं...चीं की आवाज से उसकी आंख खुल गई। उसने देखा...कमरे के
छज्‍जे पर एक घोसला है और एक गौरेया फुदकती सी....कभी खि‍ड़की से अपने
घोसलें तब जाती.....फि‍र वहां से खि‍ड़की के रास्‍ते बाहर फुर्र..र..र हो
जाती। जब वापस आती तो उसकी चोंच में छोटे-छोटे ति‍नके होते। लड़की वह
बड़ी गौर से अपनी बि‍स्‍तर पर लेटकर सारी प्रक्रि‍या कौतूहल के साथ देखती
रही। थोड़ी देर बाद उसने महसूस कि‍या कि‍ घर का आंगन चि‍ड़ि‍यों के
चहचहाने से गुलजार हो गया है। उसे बड़ा अच्‍छा लगा। इतनी सुबह उठने की
आदत नहीं थी उसे मगर....चहचहाहट की इस आवाज ने उसकी  जि‍ज्ञासा बढ़ा दी
और वह चुपके से दबे पांव बाहर जाने लगी। उसे आता देख नानी ने चुप से
इशारा कि‍या....शी..शी....ध्‍यान से। देखना कहीं तुम्‍हें देखकर सब उड़ न
जाएं। उसने सर हि‍लाकर नानी को नि‍श्‍चिंत कि‍या और धीमे से आंगन में उतर
आई। देखा.......ढेर सारी गौरैया आंगन में बि‍खरे दानों को चुग रही है और
पानी से भरे बाल्‍टी और टब में नहाकर नि‍कलते हुए शोर मचा रही है। उसे
बड़ा अच्‍छा लगा ये सब। पहली बार जो देखा था। थोड़ी देर बाद सारी गौरया
उड़ गई और आंगन सूना हो गया। इसके बाद लड़की कमरे में गई। देखा...अपने
घोसलें को बनाने के लि‍ए ति‍नके ढो कर लाने के क्रम में ढेर सारे ति‍नके
कमरे में गि‍रे हुए हैं और नानी झाड़ू से उन्‍हें समेट रही है। यह देखकर
लड़की ने अपनी नानी से कहा- नानी, इन घोसलों को हटा क्‍यों नहीं देती।
देखो तो....सारा घर गंदा कर दि‍या इसने। तब नानी से हंसते हुए
कहा....नहीं रे...घर में चि‍ड़ि‍यों का घोसला बनाना अच्‍छी बात होती है।
कहते हैं इससे घर में लक्ष्‍मी आती है। इसलि‍ए मैं कभी कि‍सी चि‍ड़ि‍ये
को घोसला बनाने से नहीं रोकती। क्‍या हुआ जो घर गंदा होता है। वैसे भी
साफ-सफाई करनी होती है...एक के बजाय दो बार कर लूंगी। फि‍र कहा....तुमने
देखा न...कितना अच्‍छा लगता है जब इनकी चहचहाहट से नींद खुलती है तो। और
जब ये मेरे आंगन में उतरती है तो लगता है सूने घर में ढेर से मेहमान चले
आए हैं। और मेहमान तो भगवान होते हैं न पगली। इसलि‍ए तुम भी इन्‍हें दाना
खि‍लाया करो....गर्मियों में पानी दि‍या करो। देखो....ये तुम्‍हारी
दोस्‍त बन जाएंगी।मुझे नानी की वो सीख आज तक याद है और रोज चि‍ड़ि‍यों को
दाना डालती हूं....पानी भी। मगर अब ये खत्‍म हो रही हैं क्‍योंकि जैसी
सीख नानी से उस लड़की को यानी मुझे दी.....वैसी शायद सबको नहीं मि‍ली
होगी।

गौरेया की सबसे पहले पहचान 1851 में अमेरि‍का के ब्रुकलि‍न इंस्‍टीटयूट
ने करायी थी। गौरैया खेत की फसल में लगने वाले कीड़े से फसलों की सुरक्षा
करती है। गौरैया उल्‍लास का प्रतीक भी माना जाता है। गांवों मे लाग घर की
दीवारों पर गैरैया के चि‍त्र बनाया करते हैं। मगर बहुत ही दुखद है कि‍ अब
गौरैया औश्र ऐसे ही अनेक छोटे-छोटे चि‍ड़ि‍यों का अस्‍ति‍त्‍व समाप्‍त
होता जा रहा है। इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण कीटनाशक का छि‍ड़काव
है....जि‍सके कारण गौरैयां मर रहीं है। साथ ही मोबाइल फोन से नि‍कलने
वाली तंरगों के कारण इनके अंडे नष्‍ट हो जा रहे हैं। और जब अंडे ही नहीं
रहेंगे तो इनका वि‍स्‍तार कैसे होगा। और मोबाइल तो लगभग आज हर इंसान के
हाथ में है। चाहे शहर हो या देहात। इसके अलावा भोजन की भी समस्‍या हो रही
हैं इन्‍हें पेटृोल जलाने पर नि‍कलने वाला मि‍थाइल नाइटृेट छोटे कीटों को
समाप्‍त कर देता है जो कि‍ नन्‍हें गौराया के बच्‍चों का आहार हुआ करता
है। अब बाग-बगीच खत्‍म तो वहां मि‍लने वाले छोटे-छोटे कीड़े भी खत्‍म हो
जा रहे हैं। इनके नि‍वास की भी समस्‍या है अब तो। लोग के घरों में बगीचे
नहीं होते अब न ही पहले जैसे छज्‍जे, जहां ये रह सके।

इसलि‍ए जरूरी है कि‍ हम 'रेड सूची' मे शामि‍ल इन नन्‍हें....खूबसूरत आवाज
वाले गौरैयों को बचा लें। आंध्र वि‍श्‍ववि‍घालय के अध्‍ययन्‍ के मुताबि‍क
गौरैयों की आबादी में 60 फीसदी की कमी आई है। इसलि‍ए समय है संभलने का।
हर व्‍यक्‍ति‍ अगर व्‍यक्‍ति‍गत प्रयास करे...रोज इन्‍हें दाना
डाले.....गर्मियों में पानी की व्‍यवस्‍था करे.....तो कुछ हद तक
स्‍थि‍ति‍ संभल सकती है। वरना......वि‍कास ने तो इनके वि‍नाश के द्धार
खोल ही डाले हैं। आइए......आज हम इन्‍हें बचाने का संकल्‍प लें।



21 मार्च 2013  को हिंदुस्‍तान के संपादकीय पन्‍ने पर साइबर कॉलम में प्रकाशि‍त आलेख




Tuesday, March 19, 2013

प्रेम की सौगात


बड़ा मज़बूत है 
तेरी यादों का दरख्‍़त
वक्‍त की आंधि‍यों ने भी
अब झुका लि‍या है सर 

छोड़ो शि‍कवे सारे 
और
चूम भी लो अब
फूलों की पंखुडि‍यां
कि जाते बसंत ने 
प्रेम की सौगात भेजी है....

तस्‍वीर--मेरे गमले में  खि‍ला मौसम का पहला बेली का फूल

Sunday, March 17, 2013

नहीं सूखता कभी बीज प्रेम का.....

बोझल हुई जाती आंखों में 
आते हैं नींद के झोंके
कच्‍ची सी निंदि‍या के बीच
घेर लेता है एक सपना

सपने में होता है वो ही चेहरा
जि‍सकी याद भुलाने के लि‍ए
खुद से कि‍ए थे वादे
और कई मजबूत इरादे

हंसता हुआ वो कहता है
नहीं सूखता कभी
बीज प्रेम का
बस तनि‍क मुरझाता है

शब्‍दों के जहर से
जरा सूख सा जाता है
सींचो चुल्‍लू भर प्रेम जल से
तुरंत दम हरा हो जाता है

आखि‍र होता क्‍या है प्रेम..
जो पास होता है, वो दूर होता है
और छोड़ कर जाने वाला ही
क्‍यों इतना दि‍ल के करीब होता है....


तस्‍वीर--साभार गूगल 

Saturday, March 16, 2013

उदासी के दो गीत

वक्‍त के चरखे पर 
उदासी का गीत है
मोहब्‍बत की चादर बुनने को
कात रही हूं सपने

यकीनन
कुछ सपने पूरे भी होते हैं...

* * * * * * * * * 


ये उदासी है

तड़ीपार दि‍या है जि‍से मैंने
मगर
कि‍सी घुसपैठि‍ए सी है
आदत इसकी
भावनाएं जहां
तनि‍क कमजोर पड़ी 
चट आ जाती है वापस
जैसे
ताक में हो इसी की

ऐ मोहब्‍बत, बता ज़रा
कहीं तुम्‍हारा ही तो
दूसरा नाम नहीं
' उदासी '

Friday, March 15, 2013

नीलकंठ......

नहीं देखना चाहि‍ए बार-बार
उस डाल की तरफ
जहां से आपकी प्‍यारी चि‍ड़ि‍यां ने
अभी-अभी उड़ान भरी हो

ये एक ऐसा दुख होता है
जि‍से आप व्‍यक्‍त नहीं कर सकते
क्‍योंकि आपको भी नहीं पता
कि‍ आप चाहते क्‍या हैं

आंखों को भाने वाली हर शै
अपनी हो...मुमकि‍न नहीं
और चि‍ड़ि‍यां को पिंजरे में रखने से
वो गाना भूल जाती है, जो आपको बेहद पसंद है

* * * * * * * * * * *

कहती हूं इसलि‍ए कि‍ तुम
गौरैया बनते, फ़ाख्‍ता बनते
एक बार तो मेरी छत पर उतरते, या
सामने वाले पीपल की डाल पर फुदकते

जानां.......मगर तुम तो नीलकंठ बन गए
जि‍से शुभ होता है देखना....मगर कभी दि‍खते ही नहीं....


तस्‍वीर--साभार गूगल

Wednesday, March 13, 2013

छोड़ दि‍या हमने भी ....

(((...TODAY IS NO SMOKING DAY...)))


चल....
आज अंति‍म बार
तेरी याद को
तेंदू पत्‍ते में भर
कस कर 
एक धागे से लपेट दूं

और
सुलगा के उसे
लगाउं एक लंबा सा कश....
फूंक दूं अपने सीने की
सारी जलन

जलती बीड़ी के सि‍रे को
और लहका कर
जल्‍द ख़त्‍म कर दूं सब

और
चीखकर कहूं दुनि‍या से
लो
छोड़ दि‍या हमने भी
कश ले-लेकर अपनी ही जिंदगी को पीना.....


तस्‍वीर---साभार गूगल

Tuesday, March 12, 2013

बता दो अपनी यादों को.....

कौन करेगा हद मुकर्रर
मेरी चाहत
और तुम्‍हारी बेख्‍़याली की

कि‍ चांद आकाश में 
आज भी है पूरा
और मैं तुम बि‍न अधूरी

पढ़ा है मैंने अनाधिकार प्रवेश वर्जित है
आज बता ही दो अपनी यादों को तुम भी ये बात.....


तस्‍वीर--साभार गूगल 

Sunday, March 10, 2013

यादों के पलाश .....



मुझे बेहद पसंद है् पलाश के फूल...जब भी देखती हूं.....बि‍ना पत्‍ते के लाल-लाल.....दग्‍ध पलाश, मुझे लगता है इसके पीछे कोई ऐसी कहानी रही होगी....लोक कथा.....दंत कथा....जि‍से समय के साथ सबने भुला दि‍या..........कि

एक बेहद खूबसूरत राजकुमारी थी।  एक बार वह आखेट के दौरान सखि‍यों के संग प्‍यास बुझाने जंगल में झील के कि‍नारे गई......वहीं उसने देखा उसे, और प्‍यार जो गया उससे। वो था ही इतना खूबसूरत.....बि‍ल्‍कुल कि‍सी युवराज सा....
दोनों की आंखें मि‍ली......लगा...पसंद करते हैं एक-दूजे को.....मन ही मन प्रण लि‍या, कि मि‍लेंगे......

कई मुलाकातें....प्‍यार परवान चढ़ा........वहीं झील का कि‍नारा उनके मि‍लन का गवाह बना.......

आखि‍रकार वो मि‍ल न सके......प्रेमी लड़का कहीं गुम हो गया...या दूर चला गया......
राजकुमारी पागलों की तरह उसे ढूंढती फि‍र रही है......जंगल...झाड़...नंगे पांव...
तीव्र वि‍रह वेदना से उसकी आंखों से आंसू गि‍र रहे हैं....अनवरत......दग्‍ध हृदय से वह पुकार रही है.......कहां हो.......तुम कहां हो....

उसके झरझर गि‍रते आंसू में इतनी ताब है.....हृदय में इतनी वेदना है्.......कि जहां-जहां उसके आंसू गि‍रे....वहां पलाश के पेड़ उग आए.....

जब यादों का मौसम आता है...बसंत आता है....पेड़ के सारे पत्‍ते उसकी याद में झर जाते हैं और नग्‍न पलाश का वृक्ष राजकुमारी की आंसुओं से बने लाल फूलों से लद जाता है, सारा जंगल  भर जाता है........
कि‍..... जाने वाला इन यादों के फूलों को देखकर लौट आए......और राजकुमारी के अतृप्‍त आत्‍मा को सुकून मि‍ल जाए.......

जानती हूं.......ये मेरी कोरी कल्‍पना है, मगर मैं जब भी पलाश के फूल देखती हूं....अहसास होता है कि इनके पीछे कोई मार्मिक कहानी जरूर होगी।



जलते कपूर सा मेरा प्रेम....


दीप्‍त..प्रज्‍जवलि‍त
पान के पत्‍ते पर
जलते कपूर सा मेरा प्रेम
जो ति‍रना चाहता है
अंति‍म क्षण तक
जलना चाहता है

और तुम
चंचल नदी की तरह
मुझे डुबोने को आतुर

क्‍या अल्‍पजीवी प्रेम भी मेरा
तुम्‍हें स्‍वीकार नहीं.......


तस्‍वीर--छठ पर्व के समय दीप प्रज्‍जवलि‍त करते परि‍जन

Friday, March 8, 2013

महि‍ला दि‍वस और आंखन देखी.....



अंतरराष्‍ट्रीय महि‍ला दि‍वस.....सब लोग बधाईयां देगे आज एक-दूसरे को। हक की बात करेंगे, अधि‍कार की बात होगी, सामाजि‍क बदलाव की बात होगी। पर जरा एक बार मेरी नजर से  महि‍लाओं की हालत पर नजर डालि‍ए न.......हम कि‍स मुंह से मनाएं महि‍ला दि‍वस ......

प्रथम दृश्‍य
* * * * * *

महि‍ला थाना में लगभग 20 वर्षीया सांवली सी  युवती,  सकुचाई सी एक कोने में बैठी है। थानेदार के बुलाने पर संकोच के साथ जाकर सामने खड़ी होती है.....
बताओ, क्‍या बात है.....
मैडम वो भाग गया...छोड़कर मुझे ...
कौन भाग गया ?
-- मैडम, जि‍सके साथ मैं रहती थी......आपके ही डि‍पार्टमेंट में काम करता है....
कब से साथ रहती थी
मैडम, छठी क्‍लास से
थानेदार मैडम हैरत से उसका चेहरा घूरती हैं और फि‍र एक सवाल लि‍ए मेरी आंखों में झांकती है....ये उम्र और हरकत ऐसी....फि‍र हमदोनों उसे देखते है.....

पूरी कहानी ऐसी है.......
रांची से सटे एक गांव में लड़की, मान लें नाम मीना है, रहती है। छठी कक्षा में पढ़ती थी तब। पड़ोस के लड़के से दोस्‍ती हुई। दोस्‍ती बढ़ती गई, उम्र के साथ-साथ। बचपन की दोस्‍ती प्‍यार में बदल गई। अब वो एक नामचीन अस्‍पताल में नर्स है, और लड़का पुलि‍सकर्मी।

प्रेम की पींगे बढ़ाते वे साथ चलते रहे। बकौल मीना-- जब 12वीं कक्षा में थी तब इमोशनल दबाव डालकर शारीरि‍क संबंध बनाया। कहता...मुझसे प्‍यार नहीं करती, इसलि‍ए मेरे पास नहीं आती।
शादी के वायदे कि‍ए। लड़की वायदों के हिंडोले में झूलती गई। पि‍छले 10 वर्ष से साथ रहते थे। अब कि‍सी और लड़की के चक्‍कर में उसे छोड़ गया।

बेचारी.....बेवकू़फ लड़की। आंखों में आस भरकर सोचती है कि वो आ जाएगा वापस....जि‍सने उसे प्‍यार कि‍या और अब बदल गया। डबडबाई आंखों से कहती है...इतने साल से साथ हूं...अब कहां जाउं .....????


दूसरा दृश्‍य
* * * * * *

लगभग 35 वर्षीय महि‍ला, बिखरे बाल..मगर होठों पे मुस्‍कान। देखकर कहीं से नहीं लगता कि इसके जीवन में कोई दर्द होगा या कभी-कभी वि‍क्षि‍प्‍तता का भी दौरा पड़ता होगा।
गरीब...अकेली लड़की, मगर शौक बड़े-बड़े। एक दि‍न घूमने का मन कि‍या.....मनमौजी....टि‍कट खरीदी और बैठ गई रेल में। साथ में संग एक सखी। पहुंची दि‍ल्‍ली।

जब तक जेब में पैसा था, सब ठीक रहा। खत्‍म ...तो फांकाकशी...

शायद पहले से ही मानसि‍क रूप से थोड़ी कमजोर रही होगी या दुनि‍यादारी में

 कैसी हो..;क्‍या हुआ तुम्‍हारे साथ.....

कहती है.....रात में घूम रही थी दि‍ल्‍ली में.....कुछ लोग मि‍ले....कहा..चलो मुर्गा-भात खिलाते हैं...
भूख लगी थी.....चल पड़ी...ले गए बहुत दूर
बहुत सारे लोग थे......गंदा काम कि‍या दीदी मेरे साथ, बहुत बुरे लोग हैं वहां....

मैं भाग आई...वापस..अपने झारखंड
कहीं नहीं जाउंगी..कभी नहीं जाउंगी....सब बुरे लोग होते हैं

एक आश्रम में आसरा लि‍या है उसने। उस घटना के बाद संतुलन खो बैठी। पेट में बच्‍चा लि‍ए आई थी वापस। एक फूल सी बच्‍ची को जन्‍म दि‍या उसने। प्‍यार से पाल रही थी। तीन साल की हो गई थी बच्‍ची। मगर दि‍माग ने साथ नहीं दि‍या उसका। बच्‍ची बीमार पड़ी। कभी बेहद प्‍यार करती थी, कभी पीटने लगती थी। शायद सही देखभाल के अभाव ने जान ले ली बच्‍ची की।

जब पूछा...कहां तेरी बच्‍ची......आंसू डबडबा आए आंखों में। मर गई दीदी....मेरी प्‍यारी बच्‍ची। पि‍ता का नाम पूछने पर हि‍कारत से कहती है.....होगा कोई...क्‍या पता।
बुरे लोग, बुरी दुनि‍या...मेरी सहेली को तो सड़क से उठा लि‍या था। मुझे व सब लड़कि‍यों को अपने घर में ही रहना चाहि‍ए।

मगर बेचारी.....अपने घर का पता ही भूल चुकी है। कहां जाएगी ??

आलेख 'दैनि‍क लोकसत्‍य' में 8 मार्च 2013 को संपादकीय पृष्‍ठ में प्रकाशि‍त
तस्‍वीर--साभार गूगल

Thursday, March 7, 2013

कोई नहीं आने वाला...



बैठी हूं आंखों में 
इंतजार भरकर 
जबकि‍ पता है 
कोई नहीं आने वाला
जिंदगी की सूनी सड़क पर ....

ऐ मेरी ख्‍वाहि‍शों 
टीन की छत पर गि‍रती
बारि‍श की बूंदों की तरह
मत दे दस्‍तक..लगातार
कि‍ चला गया सावन...

अब तो मैं हूं...चंद हसीन यादें और उम्र भर का इंतजार्
जानां.....न कहूंगी अब कभी कि तेरे लि‍ए बहुत उदास है कोई



तस्‍वीर--साभार गूगल 

Wednesday, March 6, 2013

तेरा भी शुकराना....

तमाम रि‍श्‍ते-नाते
बेशकीमती हैं तुम्‍हारे लि‍ए
सि‍वा एक मेरे

* * *
फरेब से बारि‍श के
मुरझाते हैं नन्‍हें तरू
पर आ ही जाता है उन्‍हें भी
धरती के सीने से
जीवन शक्‍ति लेना

* * * *
कि एक ठोकर देती है
आगे संभलकर चलने का
हौसला

* * *
नए सब़क और पहली ठोकर के लि‍ए

जिंदगी के साथ तेरा भी शुकराना....

Monday, March 4, 2013

वो पीला सि‍तारा....



खगोलशास्‍त्र में मैं बि‍ल्‍कुल शून्‍य हूं.....हालांकि दि‍लचस्‍पी इतनी गहरी है कि‍(, जब भी मौका मि‍लता है..खुले आकाश में टि‍मटि‍माते तारों को अनवरत नि‍हारती रहती हूं.............ग्रह-उपग्रह, नजदीक के तारे, दूर टि‍मटि‍माते सि‍तारे....मन ही मन तारों को पहचानने की कोशि‍श... ये सप्‍तऋषि....ये झाड़ू तारा....ये रहा....ध्रुव तारा...........वैसे चाहती तो जान सकती थी इनके भी बारे में। मगर हूं अव्‍वल दर्जे की आलसी.........कोई बताएगा तो सुन लूंगी.....

ऐसे ही आज भी नजर पड़ी ज़रा नजदीक के उस सि‍तारे पर...जि‍सका रंग सफ़ेद न होकर औरों के बनि‍स्‍पत पीला है.........ये सि‍तारा बचपन से प्रिय है मुझे

याद आ गई वो बात मुझे.....शायद मेरी उत्‍कंठा शांत करने के लि‍ए दादी जी ने यह बात कही थी मुझसे...मेरे ये पूछने पर कि वो नज़दीक का तारा पीला क्‍यों है....बच्‍चों को बहलाने वाला ही जवाब मि‍ला था मुझे शायद.....

कि‍ उसे तारे का रंग इसलि‍ए पीला है, क्‍योंकि उसकी शादी होने वाली थी। बारात सजाकर बहुत दूर से एक चमकीला तारा आने वाला था...इसे ब्‍याह कर ले जाने के लि‍ए......पर न जाने क्‍या हुआ कि बारात आई ही नहीं और ये बेचारी शरीर पर हल्‍दी लगाए दूल्‍हे का इंतजार करती रही। इसने आज तक हल्‍दी नहीं उतारी अपने बदन से क्‍योंकि इसे वि‍श्‍वास है कि इसका मनमीत एक दि‍न जरूर आएगा।

उफ....ये इंतजार....

साथ ही मुझे याद आती है उन दि‍नों की बात जब पत्रकारि‍ता की कक्षाएं चल रहीं थी .....साथ में एक दीदी पढ़ती थी...खामोश...चुप-चुप सी। मुझसे दोस्‍ती हो गर्इ। जाने क्‍यों उदास लोगों से खूब बातें करने का मन होता है मेरा। ऐसे मैं कम बोलती हूं मगर कोई चुप्‍पा मि‍ल जाए तो मुखर हो जाती हूं। अपने इस व्‍यवहार पर कभी-कभी खुद ही आश्‍चर्य होता है मुझे।

हां, तो वो दीदी भी मुझसे बहुत घुल-मि‍ल गई। बहुत बाद में जाकर उन्‍होंने बताया कि उनकी शादी होने वाली थी। बारात दरवाजे पर लगने ही वाली थी........कि दहेज की रकम पर बात अटक गई। दरवाजे से बारात लौट गई और वह सोलह श्रृंगार किए बैठी रह गईं। तब से उदास हो गई है उनकी जिंदगी.....कि‍ कि‍सी पर यकीन नहीं होता अब। आज तक उन्‍होंने शादी नहीं की।

दीदी की कि‍स्‍मत और उस हल्‍दी लगे तारे की कि‍स्‍मत एक कैसे......क्‍या पता सच ही हो ये बात.....जो दादी ने बताई थी मुझे......


तस्‍वीर--साभार गूगल

मायने ....



कोई एक रि‍श्‍ता
बनाना चाहता है
और कोई बस संभालना

ह्रदयतल से उठी चाहत को
शब्‍द देना
नि‍हायत ही बेवकूफ़ाना कदम होता है

जबकि पता हो आपको कि
शब्‍द कुछ दूर चलकर अपने मायने बदल देते हैं......


तस्‍वीर--पलाश के फूलों से लाल हुआ जा रहा है जंगल...मेरे कैमरे को बह़त भा गया पलाश

Sunday, March 3, 2013

घर चला सूरज...



बस.....

अब घर जा रहा है सूरज
नीला आकाश अंधेरे की चादर ओढ़ेगा
आसमान की उलटी तश्‍तरी में
सोने-चांदी से सि‍तारे जगमगाएंगे

मैं देखूंगी उन्‍हें, खुश हो टिमटि‍माउंगी भी
अंधेरे में, जुगनू की तरह

पर आकाश के सि‍तारे ने
जमीं के जुगनू की
कब की है परवाह.......

काश ! ये सि‍तारे एक बार जमीन पर उतर आते....और सूरज के छुपते ही तुम्‍हारी याद न मारते मुझे डंक....
मैं भी चांदनी रात में चमकती सफ़ेद परी बनकर....है न जानां.. ??


तस्‍वीर--कल शाम की

Saturday, March 2, 2013

तेरी आस........



धुआं-धुआं सी थी शाम
उजाले को नि‍गल गई कालि‍मा

अरमानों के दि‍ये को
ओट तो दे दो

कहीं बुझ न जाए तेरी आस
कि‍ बड़ी तेज हवा है......

तस्‍वीर--पंचघाघ के पास आज की शाम और नज़र मेरे कैमरे की..

Friday, March 1, 2013

चाहतों से उपजी उदासियां.......



रोज़ रात सोचती हूं
दि‍न भर की
ज़मा उदासी को
एक टोकरी में भर
कि‍सी नदी में बहा आउं
इस संदेशे के साथ

कि

मेरी अंतहीन चाहतों से उपजी
उदासियों
तुम्‍हारा अंत यही है
कि हर
हर अभि‍लाषा के पेड़ पर
फल नहीं आते
और हर खूबसूरत फूल की
खुश्‍बू
सबको नहीं भाती

फि‍र भी

रात रोज़
उदास लम्‍हों की
सौगात ले कर आता है
और पीला चांद
नीम की टहनी से झांकता रहता है.....

तस्‍वीर--मेरे पैतृक गांव गोविंदपुर की