Thursday, July 11, 2024

वाणभट्ट की आत्मकथा बनाम गाँव की व्यथा


अपनी छोटी सी लाइब्रेरी में एक किताब ढूंढ़ रही थी कि अचानक नजर पड़ी एक पीली सी, फटी जिल्दवाली किताब पर। जैसे कितने दिन से बीमार पड़ी हो और सेवा-सुश्रुषा के लिए इंतजार कर रही हो। उत्सुकतावश उसे रैक से निकाला। किताब थी हजारी प्रसाद द्विवेदी की 'वाणभट्ट की आत्मकथा।' 1974 में प्रकाशित 8 रुपए 50 पैसे मूल्यवाली पुरानी किताब थी। मैं यह देखकर हैरान हुई कि यह कोई खरीदी हुई नहीं, बल्कि लाइब्रेरी की किताब है, जिसमें रामेश्वर सिंह पुस्तकालय, ओरमाँझी की मुहर लगी थी।

किताब के हाथ में आते ही अचानक मेरा गाँव मेरे जेहन में करवटें बदलने लगा। जी हाँ, ओरमाँझी मेरे गाँव का नाम है। राँची शहर से महज 20-22 किलोमीटर दूर। अब तो वहां तक पहुँचने के लिए चौड़ी सड़क बन गई है। सड़क के दोनों ओर बाजार बन गए हैं, दुकानें खुल गई हैं। पहले सा वहां अब कुछ भी नहीं रहा। लोगों की आवाजाही, भीड़ और शोर-शराबे में मेरा वह गाँव अब गुम हो गया है जिसकी याद रामेश्वर सिंह पुस्तकालय की मुहर लगी इस किताब ने दिला दी है।

 'वाणभट्ट की आत्मकथा' हाथ में पकड़े सोच रही हूँ कि लाइब्रेरी की यह किताब भला मेरे पास कैसे? हम शहरी हो चुके लोगों की स्मृतियाँ अब तकनीकों पर निर्भर रहने लगी हैं। मेरी स्मृतियाँ उस दौर की हैं जब इक्के-दुक्के घर में लैंडलाइन फोन हुआ करता था। टीवी नाम की कोई चीज होती है - यह पढ़ा तो था, मगर पहली बार तब देखा जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, और गांव में एक अकेले घर में टीवी देखने के लिए इतनी भीड़ उमड़ पड़ी थी कि लगा कोई मेला हो। सामने बैठी भीड़ और पीछे खड़े बेशुमार लोग...और हम जैसे बच्चे उचक-उचक कर प्रधानमंत्री की अंतिम यात्रा देख रहे थे। हालांकि साल बीतते-बीतते हमारे घर भी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी आ गया, जिसमें आनेवाले कृषि दर्शन का भी इंतजार बहुत शिद्दत से किया जाता था।

बाद के दिनों में लैंडलाइन फोन भी बहुत सामान्य सी बात हो गई थी, यानी एक मोहल्ले में दो-चार फोन तो होते ही थे। ये सारे फोन नंबर हमारी जुबान पर बसे होते। फोन नंबर के लिए डायरी पलटने की जरूरत नहीं पड़ती थी। हालांकि तब भी हमसब अपने पास छोटी सी फोन डायरी रखते थे, जहां सबके नंबर नोट रहा करते थे। लेकिन अभी याद करने की कोशिश कर रही हूं तो अपने बच्चे, पति और दोस्‍तों में भी किसी के मोबाइल का नंबर याद नहीं। मजे की बात यह कि मुझे खुद का दूसरा नंबर याद नहीं। जब जरूरत पड़ती है तो मोबाइल के फोन कॉन्टैक्ट में जाकर नंबर निकाल लेती हूँ।

 कह सकती हूँ कि तकनीकों ने हमें कई तरह की सुविधाएं दी हैं, लेकिन उसपर निर्भर होकर हमने अपना बहुत कुछ गवां दिया है। एक बड़ा हमला तो हमने अपनी स्मृतियों पर ही कर दिया है। अब आँकड़े और फैक्ट हमारी स्मृतियों में नहीं गूगल पर बसने लगे हैं। इसी खोई हुई स्मृति का नतीजा है कि मैं हैरत में हूं लाइब्रेरी को याद कर, जो मेरी स्मृति में नहीं रह गई थी। वाणभट्ट की आत्मकथा ने मानों कई स्मृतियों पर से धूल हटा दी। जेहन का एक पूरा परत धूलरहित कर दिया और मुझे मेरे गाँव की लाइब्रेरी बिल्कुल साफ-साफ दिखने लगी। सच बताऊं तो गाँव आते जाते कई बार यह ख्याल उठता रहा था कि गाँव में पढ़ने-लिखने का माहौल बनाने के लिए एक लाइब्रेरी खोलनी चाहिए। पर इस दौरान कभी मेरी स्मृति में रामेश्वर सिंह पुस्तकालय नहीं आया। 

गाँव में पुस्तकालय खोलने का इरादा इसलिए भी बनता रहा है कि गाँव मुझे प्रिय है। वहाँ का जीवन अब भी लगभग ऐसा ही है कि सूरज डूबने और उगने के साथ ही दिनचर्या खत्‍म और शुरू होती है। यद‍ि शाम ढलने के बाद के समय का सदुपयोग किया जाए, तो बहुत से बच्चों का जीवन और बेहतर हो जाएगा। ज्ञान और अनुभवों की निधि तो पुस्तकों से ही प्राप्त की जा सकती है न! 

मेरे मन में अनवरत चलते विचारों को इस सुखद हैरत ने थाम लिया कि ओरमाँझी में तो बकायदा पुस्तकालय हुआ करता था, जिसका प्रमाण है यह किताब। मगर इतनी महत्वपूर्ण बात भला मैं भूल कैसे गई...?

मेरे घर के ठीक सामने एक मंदिर हुआ करता था। हालांकि अब उसका वह अस्तित्व ही समाप्त हो गया जो मेरी यादों में है। समय के साथ सब परिवर्तित होता गया।अब तक मेरी यादों में बसे उस पुराने मंदिर को तोड़कर एक भव्य मंदिर का निर्माण हो चुका है। अब केवल मंदिर बचा है... मेरे बचपन में उस जगह खेल का मैदान था... वहां नाटक खेला जाता था... वहां छउ नृत्य का आयोजन होता था, वहां नेताओं के भाषण होते थे ..और तो और मदारियों का करतब भी वहीं देखते थे हम। मुख्य मंदिर में प्रति वर्ष दो बार माँ दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती थी और पांच दिनों का उत्सव मनाया जाता था। उसी मंदिर के अगल-बगल दो कमरे थे, जिसमें बाईं तरफ का कमरा पूजा-पाठ के दौरान सामान रखने के काम आता था और दाईं ओर वाले कमरे के ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था 'रामेश्वर सिंह पुस्तकालय।

मैं नहीं जानती रामेश्वर सिंह को, जिनके नाम पर यह पुस्तकालय खोला गया था, मगर वह मेरे लिए अभिनंनदनीय हैं,  जिन्होंने एक ऐसे गाँव में पुस्तकालय की स्थापना की, जहां मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। यह अलग बात है कि उनके नेक विचारों को संभालकर आगे बढ़ाने वाला कोई व्यक्ति नहीं मिला, वरना कम से कम पुस्तकालय का अस्तित्व तो नहीं मिटता।  

यादों पर पड़े जाले साफ करने से याद आता है कि अंदर लकड़ी के आलमीरे में खूब किताबें थीं...ठूसी हुईं-सी, जहां घुसने पर अजीब तरह की सीली गंध घेर लेती थी। शाम होते ही बल्‍ब की पीली रौशनी जब दरवाजे से बाहर न‍िकलकर बरामदे पर पड़ती तो पता चल जाता क‍ि गांव के ही रघु चाचा अपना द‍िन का काम खत्‍म कर अवैतनि‍क लाइब्रेरियन के रूप में कार्यभार संभालने आ गए हैं। 

मैं तब बहुत ही छोटी थी और मेरा उपयोग बस इतना था कि माँ मुझे भेजती थीं किताबें लाने के लिए। मुझे याद है उस समय माँ के माथे से पल्लू कभी सरकता नहीं था और किसी बाहरी आदमी से कुछ लेन-देन करना हो तो दरवाजे की ओट से उनका हाथ ही बाहर आता था। इसलिए इस आदान-प्रदान का माध्यम मैं ही बनती थी। 

हालांक‍ि उस समय पर्दा या घूंघट प्रथा नहीं थी क्‍योंक‍ि मां घर में आराम से साड़ी का पल्‍लू कमर में खोंसकर काम क‍िया करती थी। बस जब दादाजी घर के अंदर आते तो उनकी आहट म‍िलते ही सर पर पल्‍लू रख लेतीं थी मां। दादी कभी सर पर आंचल नहीं लेती थीं, मगर मां बाहर वालों और खासकर क‍िसी बुजुर्ग को देखते ही झट माथे पर आंचल खींच लेतीं।  

कई बार लाइब्रेरी बंद कर लौटते समय रघु चाचा मेरी माँ के लिए किताबें ले आते और दरवाजे से मुझे पुकारते। उस समय मां की रसोई का वक्‍त होता था इसल‍िए अपना नाम सुनकर मैं बाहर दौड़ती और पहले उनकी लाई किताब माँ को थमाती और वापसी में उनको माँ की पढ़ी हुई किताबें पकड़ा देती। 

मैं तो यह बात बिलकुल भूल गई थी कि इसी किताब को तीन बार रीन्यूवल कराने के बाद भी माँ की पढ़ने की इच्छा बरकरार रही तो उन्होंने इसका मूल्य चुकाकर अपने पास रख लिया था... और जाने कैसे यह मेरी लाइब्रेरी की किताबों के बीच चुपचाप छुपा रहा। तब गाँव की महिलाएँ उस पुस्तकालय तक नहीं जाती थीं... पुस्तकालय ही क्यों...सब महिलाएँ घर से बाहर बस तीन वजहों से निकलती थीं... उन्हें डॉक्टर के पास जाना हो, मंदिर जाना हो या फिर वोट देने। उनके पास चौथी कोई वजह नहीं थी, जिसके लिए देहरी से उनके पाँव बाहर आते। ऐसे माहौल में मेरी माँ का जबरदस्त पाठक होना अभी भी हैरान करता है मुझे।  

मुझे याद है, मेरे पिता अखबार नियमित रूप से पढ़ते थे मगर किताबों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए माँ ही लाइब्रेरी की सदस्य बन गई थीं। जाने पि‍ता की रजामंदी से या छुपकर.. पता नहीं। उन दिनों गाँव में किताबों की दुकान नहीं होती थी, इसलिए पुस्तकालय ही एकमात्र जरिया था अपनी पढ़ने की भूख शांत करने का। दोपहर के एकांत में मां को हमेशा ही क‍िताब पढ़ते पाया था मैंने।

अतीत हमेशा से बहुत सुंदर और मोहक लगता है। अब याद करती हूं तो याद आता है कि जब मेरी उम्र कहानियां और उपन्यास पढ़ने की हुई, तब तक लाइब्रेरी बंद हो चुकी थी। वैसे किताब की दुकान तो अब भी नहीं है वहां, वहीं ही क्‍यों..शहरों में भी एक-एक कर सभी दुकानें बंद हो चली है...और अब सारा ज्ञान लोग मोबाइल से प्राप्त करते हैं। बदलते गांव को देखती हूं तो निराशा होती है। अब न वहां पहले की तरह प्यार है न व्यवहार। भले ही सिर से पल्लू उतर गया हो, औरतें हाट-बाजार करने लगी हैं, मगर यह किसी के ख्याल में नहीं आया कि मरती हुईलाइब्रेरी को बचा लिया जाए, या गाँव में पढ़ने की संस्कृति विकसित हो। बल्कि अब वो गाँव , कस्बा हो गया है और निरंतर कई होटल और मॉलनुमा दुकानें खुल गई हैं, मगर बौद्धिक विकास के लिए अब भी वहां कोई प्रयास नहीं किया जा रहा।   

उन दिनों साप्ताहिक बाजार में एक किताब की दुकान लगती थी, जिसमें चंपक, नंदन, मधु मुस्कान से लेकर राजन-इकबाल, गुलशन नंदा, रानू और सुरेंद्र मोहन की किताबें बिकती थीं। यह दुकान बाजार के एकदम अंतिम छोर पर लगा करती थी, जैसे कोई उपेक्षित चीज हो, जिसकी माँग ऐसी नहीं कि उसका सामने प्रदर्शन कर  ग्राहकों को आकृष्ट किया जाए। हालांकि मैं उस दुकान की नियमित ग्राहक थी क्योंकि माँ के लिए किताबें लाते-लाते पढ़ने का चस्का मुझे भी लग चुका था।

उन दिनों आस-पड़ोस की लड़कियां जो हाई स्कूल में पढ़ती थीं, सब माँ की दोस्त होतीं और मेरी बुआएं बन जातीं। स्कूल के बाद वो सब की सब माँ के पास आ जातीं और उनकी बैठकी जमती... फिर वो पत्रिकाएं, उपन्यास पूरे गांव में घूमते, जिसे शायद छुपाकर पढ़ा जाता, क्योंकि दादी के शब्दों में माँ काम का हर्जा कर किताबें पढ़ती थीं... इसलिए दादी को देखते ही किताबें छुपा दी जातीं।  

 हालांकि माँ बहुत काम करती थीं, और उन दिनों घर में मेहमानों का तांता सा लगा रहता था। तब न फोन था न ही पूछकर किसी के घर जाने का चलन। रिश्तेदार और दोस्त अचानक आ जाते और हफ्तों रहते। न उन्हें जाने की जल्दी होती न घरवालों को भगाने की हड़बड़ी। मिट्टी के चूल्हे पर खाना पकता और पाँत में बैठकर सब खाते। लकड़ी सुलगाते और उससे निकलते धुएँ से माँ की आँखें लाल हो जातीं, मगर कभी कोई शिकायत नहीं की।  तब न मिक्सी थी न फ्रिज...न ही गैस का चूल्हा... फिर भी बहुत कुछ पकातीं मेरी माँ... खुशी-खुशी। दूर गांव से कोई रेलयात्रा के लिए जाता, तो बीच रास्ते उतरकर घर आ जाता कि रात की गाड़ी है... दोपहर यहीं खा कर निकलेंगे और रात की रोटी बांध देना। न कहने वाले को हिचक, न देने वाले के माथे पर शिकन...

 बाजार से खरीदी हुई सब्जियों को ताजा रखने का एक जुगाड़ उस समय देखा था। पकी हुई सब्जी हो या बिना पकी हुई, उन्हें किसी बर्तन में रखकर रस्सी से उस बर्तन को बांध दिया जाता था और घर में बने गहरे कुएँ में पानी के पास लटका दिया जाता था। कच्ची सब्जियों को ताजा रखने का एक दूसरा उपाय था कि मिट्टी की जमीन पर सब सब्जियां रखकर उसके ऊपर जूट का बोरा भिंगाकर ढक दिया जाता। इस तरफ हफ्ते भर सब्जियां हरी रहतीं। यकीन मानिए मेरी यादों में उन सब्जियों का हरापन अबतक बचा रह गया है, जो अब फ्रिज भी नहीं बचा पाता। धनिया-पुदीना कभी बाजार से खरीदना नहीं पड़ता था। कुएँ के आसपास की जमीन पर धनिया-पुदीना के पौधे लहलहाते रहते, जब जरूरत हुई, जितनी जरूरत हुई तोड़ लिया। इन पौधों को पानी देने की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। क्योंकि कुएँ के आसपास नहाने से लेकर बर्तन माँजने तक का काम होता था और इस दौरान बहने वाला पानी इन पौधों तक खुद पहुंच जाता था। उस पुदीने की जो महक हुआ करती थी, वह अबके पुदीने में नहीं मिलती।

लाइब्रेरी और किताबों की बात से ध्यान आया कि किसी क्लास की किताबें कैसे एक हाथ से दूसरे हाथ तक होती हुईं सालों साल विद्यार्थियों के काम आती थीं। कोर्स की किताबों का ऐसा उपयोग होता कि जैसे रेशा-रेशा वसूल करे कोई। पांचवीं कक्षा में जानेवाले छात्र के माता या पिता पहले से ही छठवीं कक्षा में जाने वाले बच्चे और उसके माता-पिता को कह देते कि उसकी किताब मुझे दे देना। परीक्षा समाप्त होने के बाद सीनियर बच्चे से किताबें ले ली जातीं।

 बड़े शौक और खुशी से परीक्षा परिणाम आने के पहले ही पुरानी जिल्द हटा दी जाती...भूरे रंग का, थोड़ा खुरदुरा खाकी पेपर आता। बच्चा अपनी माँ की सहायता से आटे को पकाकर उससे लेई (गोंद) तैयार करता। फिर एक-एक कर पुरानी किताबों पर नई जिल्द चढ़ती। उसे अच्छे तरीके से साटकर नया-सा बना दिया जाता। उन किताबों के ऊपर सफेद  कागज चिपकाया जाता और स्केल से लाइन खींचकर नाम लिखने की जगह बनाई जाती। मगर अभी नाम नहीं लिखा जाता, क्योंकि सीनियर बच्चा इस शर्त के साथ किताबें देता कि अगर वह फेल हुआ...तो वापस ले लेगा।

 हालांकि किताबें उन्हीं छात्रों से ली जातीं, जिन पर भरोसा होता कि वह फेल नहीं करेगा। यह सिलसिला तब तक चलता जब तक किताब फट न जाए और पढ़ने लायक न बचे। इस तरह किताबों के एक सेट से कई साल बच्चे पढ़ लेते। यह आपसी प्रेम का भी परिचायक है और बचत का भी। कोई बच्चा नाक सिकोड़कर फरमाइश नहीं करता  कि उसे नई किताबें ही चाहिए। परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद कॉपियाँ खरीदकर उन पर जिल्द चढ़ाई जाती और पिछले वर्ष की कॉपियों के बचे पन्ने को एक साथ सीलकर उनसे रफ कॉपी बनाई जाती।  

अब इस्तेमाल की यह प्रणाली गांवों से भी बाहर हो गई। ठहर कर सोचिए तो पता चलेगा कि इस व्यवस्था के खत्म होने के पीछे का कारण है हर वर्ष किताब के सेट में थोड़ा सा बदलाव। इससे एक ही घर का बच्चा आगे की कक्षा में पढ़ रहे भाई या बहन की किताबों का उपयोग नहीं कर पाता। खासकर निजी स्कूल मैनेजमेंट कमीशन के लालच में निजी प्रकाशकों की किताबें ही कक्षा में चलाते हैं और इस कारण विद्यार्थियों को नई किताबें खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

उन दिनों क्लास से बाहर की किताबें पढ़ने वाले बच्चों का अपना ग्रुप होता। एक किताब को सब पढ़ते..एक-एक कर। स्कूल के बाद वाला समय जुगाड़ और खेल का होता। पहले मानसिक संतुष्टि के लिए किताब की खुराक जमा की जाती, फिर बाहर खेलते भागते बच्चे। कल्पनाओं की दुनिया में घिरे बालक कभी जमीन खोदकर पाताल में बौने ढूंढ़ने की कोशिश करते तो कभी उड़ने वाले ड्रैगन तलाशते। गांव के बच्चे खेल-खेल में प्रकृति को जानते-समझते।

आजकल के बच्चों से पूछा जाए तो वे शायद पपीता और पाकड़ के पेड़ भी न पहचानें, मगर ग्रामीण बच्चे खेल-खेल में शिक्षा ग्रहण करते।  एक खेल हुआ करता था- अत्ती -पत्ती कौन पत्ती। सब बच्चे एक जगह इकट्ठा होते और उनमें से एक बच्चा निकलकर दौड़ जाता गांव में किसी भी ओर और किसी पेड़ की पत्ती तोड़ लाता। बाकी बच्चों को उसे पहचानना होता कि किस पेड़ की पत्ती है। जो जवाब नहीं दे पाता, उसकी बारी होती कि वह कोई ऐसा पत्ता लाए, जिसे पहचानना कठिन हो। इस क्रम में छोटी उम्र से ही बच्चे लगभग सभी पेड़-पौधे पहचानने लगते थे, जिससे आगे जाकर उनका प्रकृति से गहरा जुड़ाव हो जाता था। बच्‍चे सभी पेड़ पौधों की व‍िशेषता से वाकि‍फ होते थे और अनजाने ही प्रकृत‍ि की सुरक्षा की भावना उनमें घर कर जाती थी। आम की गुठली खाकर फेंकने पर भी उसमें पत्‍ते न‍िकल आते तो बड़े एहत‍ियात से उसे ऐसी जगह रोप द‍िया जाता ज‍हां उसे पेड़ बनने में कोई परेशानी न हो। अब तो गांवों में भी जगह म‍िलना मुश्‍क‍िल हो गया है। घर और उसके चारों ओर इंच-इंच को पक्‍का करना शायद शहरी और अमीर होने की न‍िशानी मान ली गई है। 

 सब कुछ सीख लेना, पा लेना सबके नसीब में नहीं होता। झारखंड के एक सज्जन को 'लाइब्रेरी मैन' के नाम से पुकारा जाता है। यह एक ऐसा इनसान है, जिसका सपना था आईएएस अधिकारी बनने का, मगर गरीबी के कारण महँगी किताबें नहीं खरीद पाए और उनका सपना, सपना ही बनकर रह गया। अपनी परेशानी को जानते हुए इस इनसान ने गरीब बच्चों की सहायता के लिए राज्य के पांच जिलों में 40 पुस्तकालय की स्थापना की और इस लाइब्रेरी की मदद से हजारों युवा अपने सुनहले भविष्य की इमारत गढ़ने में लगे हैं।

 कुछ सुखद है तो बहुत कुछ दुखद भी। मेरे गांव की लाइब्रेरी के बंद हो जाने का जितना दुख मुझे है, उससे शायद कहीं ज्यादा ही दुख हुआ था, जब पता चला था कि करनाल में 'पाश पुस्तकालय'  तोड़ दिया गया। मन बड़ा ही आहत हुआ था सुनकर कि पुस्तकालय की 8 हजार किताबें तीन जगह शिफ्ट कर दी गईं। अगर हम साहित्य को संभालकर नहीं रखते, तो समाज को कैसे संभालेंगे... उस पर वह पुस्तकालय जो अवतार सिंह सिंधू के नाम पर स्थापित थी, उसे हम बचा नहीं पाए तो क्या हैरानी की बात है कि रामेश्वर सिंह पुस्तकालय की किताबों को दीमक लगने के बाद पुस्‍तकालय ही बंद कर दिया जाए।

किताबें बागी बनाती हैं...यह पुरातन सोच है मगर आज भी कहीं-न कहीं लोगों के मन में यही बात है।  इन दिनों  स्त्री चेतना, स्त्री आलोचना पर कई किताबें आई हैं। साथ की एक महिला, जो खुद रचनाकार हैं, उसने इन किताबों को उलट-पलट कर वापस दिया। पूछने पर कि क्यों नहीं लिया, उनका जवाब था कि कहीं इन्हें पढ़कर प्रभावित हो गई, सवाल उठाने, विरोध करने लगी तो मेरा परिवार ही टूट जाएगा। 

 इक्कीसवीं सदी में इस सोच पर बेशक किसी को भी हैरत होगी, मगर बहुत कुछ बदलना अभी बाकी है। उस दौर में भी जब मध्यमवर्गीय परिवार की स्त्रियों को घर से बाहर निकलने नहीं दिया जाता था, इसी इलाके में मेहनतकश आदिवासी औरतें अपने लिबास और औरतों के पुरातन डर को परे हटाकर खेतों में काम करतीं और जंगलों में विचरती थीं क्योंकि उनका सामाजिक ढांचा ही ऐसा है। मगर क्या उन्हें शिक्षित होने की जरूरत नहीं..  क्या उनको देश-विदेश और विज्ञान की बातें नहीं जाननी चाहिए?  

यह भी एक सच है कि बेहतरीन जिंदगी की उम्मीद में शहरों का रुख करने से अब गांव के गांव खाली हो रहे हैं। पुरानी विरासत पर नए रंग रोगन चढ़ाने की कोशिश में सब कुछ बदरंग हुआ जा रहा है... हम अपने मूल्य खो रहे हैं। ऐसे समय में जब सतही और उथले ज्ञान का बोलबाला है.. पुस्तकों की जरूरत और शिद्दत से महसूस होती है। खासकर गांवों में बेवजह समय गुजारने वाले बच्चों को प्रतियोगी परीक्षा से लेकर कॉमिक्स, लिटरेचर आदि की किताबें एक साथ मिल जाएं, तो उनकी जिंदगी सँवर जाए।

इन दिनों गांव में भी लोगों को ई - बुक्स के बारे में पता है। एक तो वैसे भी कोरोना काल में पढ़ाई के लिए बच्चों के हाथों में मोबाइल दे दिया गया। अब यह स्लोगन वास्तव में चरितार्थ हो गया है कि 'दुनिया मेरी मुट्ठी में।एक क्लिक में हम जो चाहें, ढूंढ़ या देख सकते हैं। इसके लिए किताबों का पन्ना पलटने की जरूरत नहीं। फिर उस पर चैटजीपीटी के आने से किसी भी सवाल का जवाब तुरंत पा सकते हैं। पर शायद इस खतरे से अनजान हैं लोग कि जो फायदा किताब पढ़ने से होता है, वह कभी ई - बुक्स या किसी भी सर्च इंजन के इस्तेमाल से नहीं पा सकते। किताबें पढ़ते हुए हमारे अंदर एक दृश्य बनता जाता है और पढ़ा हुआ सब हमारे दिमाग में धंस जाता है। जबकि ऑनलाइन पढ़ी हुई बातें हमारे जेहन से जल्दी ही उतर जाती हैं। मगर लोगों को समझ नहीं आती यह बात, इसी कारण पुस्तकालय की जरूरत को कई जगह नकारा जा रहा है।

हालांकि यह सुखद है कि इन दिनों गांव-गांव में कम्युनिटी लाइब्रेरी खुल रही है और उत्साही युवा इसे अलग-अलग गांव कस्बों में खोल रहे हैं। खेती-किसानी करने वाला परिवार अपने बच्चों को महँगी किताबें खरीदकर नहीं दे सकता, मगर ऐसे बच्चे लाइब्रेरी का फायदा उठा सकते हैं। अब गांव-गांव लाइब्रेरी की मुहिम जोरों पर है तो झारखंड सहित पूरे देश में उम्मीद कि लाइब्रेरी खुलेगी और मैं भी अपने गांव के पुस्तकालय में वाणभट्ट की आत्मकथा वापस रख दूंगी।

 गांव की यादें ऐसे खींचती हैं कि लगता है शहर छोड़ वहीं बस जाए जाए, जहां सुविधाएं तो कम थीं, मगर प्रेम इतना कि छलकता रहता। भूख लगने पर किसी के घर भी खाना मिल जाता था। तब पानी-भात और अचार में जो स्वाद मिलता था, वह आज के छप्पन भोग में भी कहां। मिलकर खाने से स्वाद और बढ़ जाता है, भूख और तेज हो जाती है। सामूहिकता में जीने वाले हमसब कभी नहीं जानते थे कि न्युक्लियर परिवार क्या होता है। सामूहिकता में जीने के अभ्यास ने हमें उदार बनाया था और निजी खुशियों, सुकून और एकांत की तलाश में बने अब के न्युक्लियर परिवार ने हमारे जीवन को एकाकी और उदास बनाया है। हो सके तो आइए, हम अपने गाँव की ओर चलें। उसे समृद्ध बनाएँ। विकसित बनाएँ और गाँव का वह ‘देहातीपन’ बचाए रखें जिसे इनसानियत, प्यार, स्नेह, अपनत्व, लगाव और स्वाभिमान के रूप में हम जानते हैं।

Tuesday, July 2, 2024

पिता की चिंता ...



हममें बहुत बात नहीं होती थी उन दिनों
जब मैं बड़ी होने लगी
दूरी और बढ़ने लगी हमारे दरमियां
जब मां मेरे सामने
उनकी जुबान बोलने लगी थीं

चटख रंग के कपड़े
घुटनों से ऊंची फ्रॉक
बाहर कर दिए गए आलमीरे से
सांझ ढलने के पहले
बाजार, सहेलियां और
ठंड के दिनों कॉलेज की अंतिम कक्षा भी
छोड़कर घर लौटना होता था

चिढ़कर मां से कहती -
अंधेरे में कोई खा जायेगा?
क्या पूरी दुनिया में मैं ही एक लड़की हूं.
पापा कितने बदल गए हैं,
कह रूआंसी-सी हो जाती...

बचपन में उनका गोद में दुलराना
साईकिल पर घुमाना
सिनेमा दिखाना, तारों से बतियाना
अब कुछ नहीं, बस यही चाहते वो
हमेशा उनकी आंखों के सामने रहूं।

मेरा झल्लाना समझते
चुपचाप देखते, कुछ न कहते वो
हम सबकी इच्छाओं,जरूरतों और सवालों को ले
बरसों तक मां सेतु बन पिसती रहीं

कई बार लगता
कुछ कहना चाहते हैं, फिर चुप हो जाते
मगर धीरे - धीरे एक दिन वापस
पुराने वाले पापा बन गए थे वो
खूब दुलराते, पास बुलाते, किस्से सुनाते
मां से कहते - कितनी समझदार बिटिया मिली है!

यह तो उनके जाने के बाद मां ने बताया -
थी तेरी कच्ची उमर और
गलियों में मंडराते थे मुहल्ले के शोहदे
कैसे कहते तुझसे कि सुंदर लड़की के पिता को
क्या - क्या डर सताता है...

बहुत कचोट हुई थी सुनकर
कि पिता के रहते उनको समझ नहीं पाई
आंखें छलछला आती हैं
जब मेरी बढ़ती हुई बेटियां करती हैं शिकायत
मम्मी, देखो न ! कितने बदल गए हैं पापा आजकल !

Wednesday, June 26, 2024

हो रहा है ज़िक्र पैहम आम का


आम...नहीं - नहीं, आम से पहले मुझे आम का बगीचा याद आता है, पत्तों से छनकर आने वाली धूप याद आती है और पीठ पर उगी घमौरियों की काल्पनिक खुजलाहट भी महसूस होने लगती है।

यह तो होना ही था...तब भरी दोपहरी आम के बगीचे में मुहल्ले के बच्चों का जमावड़ा लगता और होती थी छीना - झपटी। जब आम के टिकोरे थोड़े से बड़े होते तो कोई अपनी जेब में छुपाकर नमक लाता, कोई मिर्ची और जो ज्यादा तेज बच्चा होता वह अपने घरवालों की आंख बचा रसोई से चाकू भी ले आता। सब मिलकर उसे छीलते, छोटे - छोटे टुकड़े करते और फिर बनता नायाब कच्चे आम का घुमउआ...अहा...मुंह में पानी लाने वाला अतुलनीय स्वाद।

ढप की वह आवाज रसीली


गर्मियों की छुट्टियां आधी बीतती तब तक आम बड़े होने लगते। कुछ दिनों पहले तक आम खाने का साझा बंदोबस्त वाला तरीका बंद हो जाता, क्योंकि पके आम मिलने पर भला कौन बंटवारा करे !  पत्थर मारकर आम भी नहीं तोड़ा जा सकता क्योंकि बागीचे की पहरेदारी अब तक शुरू हो जाती थी। इसलिए हमें पेड़ से पके - टपके फल का इंतजार होता। जैसे ही ढप की आवाज होती, झाड़ - झंखाड़ भूलकर सब बच्चे उस ओर ही दौड़ लगाते। जिसके हाथ लगता आम...वह दूसरों को दिखा - दिखा कर ललचाता।

पहले ज्यादातर बीजू आम के पेड़ होते थे घरों के बाहर। उन दिनों एसी कूलर का जमाना नहीं था, सो गर्मियों में हमलोग छतों पर तारे गिनते या हवा चलने पर कितने पके आम गिरे, इसकी गिनती करते हुए सो जाते। सुबह जल्दी उठकर सब आम चुन कर एक बाल्टी पानी में डुबाकर छोड़ देते। फिर तो आम ही नाश्ता, आम ही खाना...

वरना लंगड़ों पे कौन मरता


गर्मियों और आम ऐसा नाता है कि एक के आते ही दूसरे को पाने की बेताबी बढ़ जाती है। तब हमारे लिए आम की दो ही किस्में होती थी - काटकर खाने वाला, चूस कर खाने वाला आम।

यह तो बाद में पता लगा कि अल्फांसो, दशहरी, जर्दालू, बैंगनपरी, तोतापरी, कलमी, हापुस, चौसा, मालदा, लंगड़ा...न जाने कितने आम होते हैं। मुझे लंगड़ा नाम के साथ ही किसी का कहा एक शेर याद आता है -

"तजरुबा है हमें मुहब्बत का दिल हसीनों से प्यार करता है
आम ये तेरी खुशनसीबी है वरना लंगड़ों पे कौन मरता है"


इतिहास में आम


प्राचीन भारतीय ग्रंथों में आम को कल्पवृक्ष भी कहा गया है। वैदिक कालीन ग्रंथों तथा अमरकोश में भी इसकी चर्चा है और यह बुद्ध के समय भी प्रतिष्ठा पा चुका था। आम की प्रशंसा कालिदास ने भी की और सिकंदर ने भी।हेमिल्टन जो अठारहवीं सदी में भारत आया था, उसने गोवा के आमों को संसार का सर्वश्रेष्ठ आम बताया है ।  कोंकणी आम की यह प्रतिष्ठा आज भी कायम है।
ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में भी आम का उल्लेख किया है।

कहते हैं मुगल सम्राट अकबर ने दरभंगा में विभिन्न प्रजातियों के आम के पेड़ लगवाए थे। शाहजहां भी आम का शौकीन था। और हां - चौसा में हुमायूं पर जब शेरशाह ने विजय प्राप्त किया तो अपने पसंदीदा आम का नाम चौसा रख दिया।


अमझोरा का सोंधा स्वाद


उन दिनों आम की गुठली कड़ी होने से पहले ही आम घर आ जाता था अमझोरा बनाने के लिए। क्या स्वाद होता था उसका। पहले उसे आग या गरम राख में पकाओ, छील कर गूदा अलग करो और उसमें काला नमक, चीनी, भुना जीरा, पुदीना और पानी डालकर तैयार करो। कहीं से बर्फ मिल जाए तो स्वाद जैसे दुगुना हो जाता था। लोग तो मिट्टी के घड़े में डालकर ठंडा होने रखते थे और खूब पीते, मस्त काम करते। गांवों में गर्मी के असर को काटने का कोई दूसरा उपाय इससे बेहतर नहीं होता था।


वैसे अचार का सिलसिला तो बचपन से ही चला आ रहा। मां गर्मियों में आम के चार टुकड़े करने के लिए 'बैंठी' जिसे हंसुल कहते हैं, उसका उपयोग करती थीं। जिस आम के अंदर की गुठली कच्ची निकलती, वह हमारे खेल का साधन बनती। हम उसे अंगूठे और इंडेक्स उंगली के बीच रखकर दबाते। सामने जो भी लड़का या लड़की होता, उसकी ओर देखकर चिकनी गुठली से पूछते - " कोया - कोया...बता इसकी शादी किधर होगी ? " गुठली जिस दिशा में जाकर गिरती, हम सामने वाले पक्का विश्वास दिला देते कि मानो न मानो तुम्हारी ससुराल उसी दिशा में होगी।

तब न टीवी सबके घर होती थी न और खेलने का कोई अलग तरीका। तो बच्चे मन बहलाव के लिए कंचे - कबड्डी के अलावा भी कुछ खेल बना लेते थे।

अचार की फांक


आम के मीठे और नमकीन दोनों तरह के अचार बनते घर में। मां साबुत मसाले मंगवाती और एक - एक कर सब मसाले पहले भूनती और सबको सिल - लोढ़ा में पीसती। पूरा घर भुने मसालों की सोंधी सुगंध से भर जाता।

मां अचार लगा धूप में रख देती और हमलोग छत पर चुपके से जाकर अचार की फांक निकाल कर भागते। चार - पांच दिन धूप दिखाने के बाद खाने के लिए कुछ अचार बाहर रखकर बाकी को कांच के मर्तबान में साल भर सुरक्षित रखने के लिए ढक्कन के नीचे एक कपड़ा डालकर कस कर बंद किया जाता था। इन अचारों को हम साल भर खाते। मुझे याद है तब बड़े शहरों से आने वाले मेहमान मां के हाथों बने अचार की तारीफ कर अपने घर ले जाने के लिए भी मांग लेते।

जाने कहां गए वो दिन


कई बार आम अधिक आ जाता तो मां छोटे कच्चे आमों को छील - सुखाकर उसकी खटाई बनाती और पके आम के अमावट, जैम बनते। यानी आम के आम, गुठली के दाम। सब कुछ घर का बना। न कोई प्रिजर्वेटिव का उपयोग न बाजार का चक्कर। होम मेड चीजें जो स्वाद में तो अच्छी होती थी, स्वास्थ्य की दृष्टिकोण से भी फायदेमंद। अब सोचती हूं तो लगता है, यह किसी और युग की बातें याद कर रही हूं। बच्चों के पास अब इतनी फुर्सत कहां कि आम में मंजर आने से उनके पकने तक कि प्रक्रिया को जाने समझे।

हमलोग तो आम के मंजरी आने से ही पेड़ पर नजर गड़ाए रहते थे। इसके दो कारण थे - पहला कि उस समय सरस्वती पूजा के दिन मिश्री और आम के मंजर प्रसाद के रूप में चढ़ाकर, फिर पहली बार खाते थे। दूसरा - कोयल की मीठी बोली उसी समय से सुनाई पड़ने लगती थी।

अब कार्बाइड डाल कर पकाए फल और पेड़ में पके फल के स्वाद का अंतर हम समझते हैं, क्योंकि हमने दोनों को चखा है। मगर अब के बच्चे भला कैसे पहचानेंगे यह स्वाद ?  अब बाजार जाइए, जो उपलब्ध है, खरीद लाइए। बल्कि अब तो लगभग हर मौसम में आम मिलने लगा है, जिसमें कोई स्वाद होता ही नहीं।

गलती आज के बच्चों की भी नहीं है। ये कंक्रीट के जंगल में रहते हैं और इनकी दुनिया मोबाईल, लैपटॉप में सिमट के रह गई है। घर के आसपास न कोई फलदार पेड़ नजर आता है और न ही फल पकने पर पड़ोसी के घर पहुंचाने वाली सामाजिकता बची है। लोग इतने सिमट गए हैं कि अब पड़ोसी भी पड़ोसी को नहीं पहचानता।

एक समय था जब घर में आम का पेड़ होना, समृद्धि का परिचायक हुआ करता था। पहले जिनके आम के बागान या चार - छः पेड़ होते थे वो आम पकने पर पूरे मुहल्ले को बांटने के बाद नाते - रिश्तेदार और मित्रों के घर भी भिजवाया करते थे। शादियों में भी टोकरी भर - भर कर आम भिजवाने का रिवाज़ था। तभी न अकबर इलाहाबादी ने तो एक पूरी ग़ज़ल ही बतौर ए ख़ास 'आम' पर लिख डाली है 'आम-नामा' के नाम से। दरअसल यह दरख्वास्त थी अपने दोस्त मुंशी निसार हुसैन से -

नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए

ऐसा ज़रूर हो कि उन्हें रख के खा सकूँ
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस ख़ाम भेजिए

मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए

ऐसा न हो कि आप ये लिक्खें जवाब में
तामील होगी पहले मगर दाम भेजिए !


माना जाता है कि यह सबसे पहले आसाम में जंगली प्रजाति के रूप में उगा और चौथी से पांचवी सदी ईसा पूर्व ही एशिया के दक्षिण पूर्व तक पहुंच गया। भारत कभी भी आम का आयात नहीं करता और यहां पन्द्रह सौ से अधिक किस्म के आम उगाए जाते हैं। वाकई, आम आम नहीं खास है, क्योंकि यह फलों का राजा है। मंजर से लेकर पत्तों तक, कच्चीअंबिया से लेकर पके आम तक , हमारे जीवन में रचा - बसा है, समझिए कि एक पूरी संस्कृति है आम।


Thursday, May 30, 2024

जलते हुए पेड़



कल रात घुमावदार घाटी
पार करते हुए,नीचे एक पुराने लंबे वृक्ष को
जलते देखना,
कितना विचलित कर देने वाला अनुभव था!
जैसे कोई दैत्य अट्टहास करता हुआ
अपनी भुजाएं फैलाए !

मई की इस गर्मी में जल रहे हैं
छोटानागपुर के ये पहाड़ भी,
दहशत से भरे जानवर गांवों की ओर भाग रहे हैं
ताप से सहमी है चिड़ियाँ
हरे जंगलों के बीच आग देखना 
जैसे सामने हो रही हिंसा को देखना है

ओह! अब कोई नहीं कहता
जंगल की आग देखकर कि
ऐसे तो सब खत्म हो जाएगा एक दिन!

कोई नहीं कहता कि यह कैसे बुझेगी!
पहले भी लगती थी आग इन जंगलों में
सब दौड़ते थे पानी से भरी बाल्टियाँ लेकर
ऐसा कहते हैं पुराने लोग

देखती हूं घाटियों में लोग खड़ी करते हैं अपनी गाड़ियां
उनके मोबाइल के कैमरे चमक उठते हैं
जलते हुए पेड़ों और पहाड़ों की तस्वीरें लेकर
लौटते हैं सैलानी अपने घरों को

मैं जगी रहती हूं
बचपन में देखे गए हरे जंगल की याद में , और...
मेरी नींद में खलल डालते आते रहते हैं जलते हुए पेड़!


Friday, May 24, 2024

अकेली मां

मां अक्सर बताया करती थीं
युवा दिनों में
जब जाती थीं पिता के साथ बाजार
लंबे डग भरते हुए
हमेशा पिता चार हाथ आगे निकल जाते थे
साथ चलने के लिए
छोटे कद की मां को लगभग दौड़ना पड़ता था


बड़ी हुई बेटियां तो मां ने
पिता के साथ बाहर जाना छोड़ दिया
गर्व से भरी मां दोनों बेटियों के हाथ थाम
बाजार जातीं, सिनेमा देखतीं,
सहेलियों सी खिलखिलातीं
पिता से कहतीं
जाइए अब अकेले और तेज कदमों से
नापिए दुनिया

और एक दिन पिता सचमुच
लंबे डग भरते हुए बहुत दूर निकल गए
मां अकेली छूट गईं

बेटियां कहां रह पाती हैं मां के पास हमेशा
तुलसी मुरझा जायेगी,
भूरी बिल्ली कहीं भूखे न रह जाए
छत पर उतरने वाले कबूतर उन्हें न पा उदास हो जाएंगे...
मां से भी तो अपना घर नहीं छूटता

अब भी उन दिनों को याद करती हैं मां
पिता के साथ स्कूटर पर बैठ
पूरा शहर घूमती थीं
अब थरथराते हैं पांव
सड़क पर चलते, रिक्शा चढ़ते

डबडबाई आंखों से इतना ही कहती हैं
तेरे पिता को आगे चलने की आदत थी न
तब भी तो मुड़कर नहीं देखते थे
कि पीछे कहां रह गई हूं मैं....

 

Thursday, May 23, 2024

गुलमोहर


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गांव में कतारबद्ध पेड़ों पर
छतरियों से फैले रहते थे सुर्ख फूल
गुलमोहर के

शहर के इस तंग मुहल्ले में
एक ही पेड़ था
जो ठीक मेरी खिड़की के नीचे खिलता था

उन्हें छू कर
अपने उखड़ने का दुख भूल जाती थी
यह वृक्ष नहीं, एक सेतु था

गांव से शहर की दूरी
अब थोड़ी और बढ़ गई है
कल गुलमोहर का यह पेड़ भी कट गया...

Wednesday, February 14, 2024

बसंत के आने उम्मीद...

 

हर उस जगह से तुम लापता हो गए
जहां मैं पहुंच सकती थी|
न सिर्फ पहुंचती
बल्कि आवाज भी लगाती
कि ठहरो, जरा एक नजर देख लो
शायद मन का कोई छोटा सा ही हिस्सा
अभी भी उर्वर हो

जहां कटे वृक्ष की कोई जड़
दुबककर बैठी हो
और अनुकूल हवा - पानी पा
फोड़कर धरती का सीना
सर उठा ले...

मगर तुमने
कोई मोड़, कोई रास्ता, कोई छांव
न मुड़ के देखा, न कोई निशान छोड़े
बार - बार देखती हूं
पतझड़ के गुजरने की राह
बसंत के आने उम्मीद
मगर
न खत - ओ - किताबत की जगह है कोई बाकी
न आवाज की पहुंच

बस एक मजबूत सी किवाड़ है
हमारे दरमियान
इधर हवा की सरगोशियाँ है
उधर यादों का बहिश्त
मेरे हाथ में सांकल है
मगर खटखटा सके गुजरे वक्त को
अब वो हिम्मत नहीं बाकी... 

Wednesday, November 8, 2023

पंचपर्व दीपावली



दीपावली..दीपोत्‍सव, एक ऐसा पर्व जि‍से देश में तो सभी मनाते ही हैं, वि‍दशों तक में इसकी धूम है। कहते हैं कि‍ राम जब वनवास से वापस आए तो चारों तरफ दीप जलाकर उनका स्‍वागत कि‍या गया। तब से दीपावली मनाया जाने लगा। मगर यह ही अकेला कारण नहीं। यह भी माना जाता है कि‍ देवी लक्ष्‍मी जी भी कार्तिक मास की अमावस्‍या के दि‍न समुद्र मंथन से अवतार लेकर प्रकट हुई थीं। चूंकि‍ भगवान गणेश सभी देवों में प्रथम पूज्‍य हैं इसलि‍ए उनकी भी पूजा कार्तिक अमावस्‍या को लक्ष्‍मी जी के साथ होती है। यह भी कहा जाता है कि‍ दीपावली की रात ही लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे शादी की। कुछ लोग दीपावली को विष्णु की वैकुण्ठ में वापसी के दिन के रूप में मनाते है। मान्यता है कि इस दिन लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं और जो लोग उस दिन उनकी पूजा करते है वे आगे के वर्ष के दौरान मानसिक, शारीरिक दुखों से दूर सुखी रहते हैं तो कुछ लोग यह भी मानते हैं कि‍ कार्तिक अमावस्‍या को भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था।


यह तो हुई पुराणों की बातें। वजह चाहे जो भी हो, दीपावली अपने साथ उमंग और खुशी लेकर आती है। सबसे अच्‍छी बात कि‍ यह ऐसा पर्व है जि‍से मनाने से पहले हम घर का कोना-कोना साफ करते हैं। यह स्‍वच्‍छता का प्रतीक है और रौशनी करना खुशी का। दीपोत्‍सव का संदेश है- ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’। हिंदू दर्शन में योग, वेदांत, और सामख्या विद्यालय सभी में यह विश्वास है कि इस भौतिक शरीर और मन से परे वहां कुछ है जो शुद्ध अनंत, और शाश्वत है जिसे आत्मन् या आत्मा कहा गया है। दीवाली, आध्यात्मिक अंधकार पर आंतरिक प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई का उत्सव है।


दीपावली आते ही सबके मन में असीम उमंग भर जाता है जो पूरे वर्ष भर में कभी महसूस नहीं होता। मुझे याद है सबसे पहले गांव में हम घरौंदे बनाने की तैयारी में लग जाते थे। ठीक दशहरे के बाद। स्‍कूल से घर लौटते ही परि‍वार और आसपास के सारे बच्‍चे कुदाल खुरपी और बोरा लेकर खेतों की ओर नि‍कल जाते। नदी कि‍नारे की चि‍कनी मि‍ट्टी इकट्ठा करते घरौंदे के लि‍ए। उस वक्‍त खेतों में कच्‍ची मूंगफलि‍यां लगी होती। हमलोग उसे भी नि‍काल कर खाते और मि‍ट्टी ढोकर घर लाते। 


उस समय सारे घरवाले अपने काम और सफाई में व्‍यस्‍त रहते। हमारा काम हमें ही करना होता था। दो तीन दि‍नों तक मि‍ट्टी, ईंटे और पटरे यानी लकड़ी के तख्‍तों का इंतजाम करते। अब होती आंगन के एक कोने में घरौंदा, जि‍से घरकुंदवा कहते थे हम, उसे बनाने की तैयारी। बच्‍चों में होड़ लगती कि‍ कि‍सका घर सबसे सुंदर बनेगा। हम बाकायदा पूरा घर बनाते, बाहर आंगन। ईंटे रखकर उस पर मि‍ट्टी चढ़ाते। लकड़ी के तख्‍ते से छत बनाते। कई बार एकमंजि‍ला तो कई बार दो मंजि‍ला। ये सारा काम हमलोग स्‍कूल से लौटने के बाद करते। उसकी लि‍पाई-पुताई का काम धनतेरस के दि‍न तक पूरा कर लि‍या जाता। 


घरौंदा प्रतीक है सृजन के सुख का। बच्‍चों को यह शि‍क्षा बचपन से दी जाती है कि‍ बड़े होकर तुम्‍हें अपना घर बनाना है और उसे अपने हाथों से संवारना भी है। यह मेहनत और संयम का कार्य है, जि‍से खेल-खेल में सि‍खाया जाता है बच्‍चों को। हालांकि‍ अब लोगों के पास इतना वक्‍त नहीं। लोग रेडीमेड घरौंदा खरीद लेते है। पर दशक पहले ऐसी बात नहीं थी। 


धनतेरस के दि‍न गांव का कुम्‍हार बड़े से दौरे में दीया और कुम्‍हारि‍न अपने दौरे में कुल्‍हि‍या-चुकि‍या और ग्‍वालि‍न लेकर आती। कुल्‍हि‍या-चुकि‍या, जांता, सि‍ल-लोढ़ा, चूल्‍हा, चकला-बेलना यानी रसोई के सारे बर्तन और घोड़े-हाथी, और ग्‍वालि‍न, एक लड़की की मूर्ति जि‍सके हाथ में दि‍ए बने होते, सारे इकठ्ठा कर लेती। मेरी कोशि‍श होती कि‍ जि‍तने भी सामान कुम्‍हार ले आए, उसे न लौटाऊं। कई बार पि‍ता खीजते, इतने सारे दि‍ए और खि‍लौनों का करोगी क्‍या। पर मैं नहीं मानती। कहती, पापा मुझे सारे दि‍ए जलाने है। कुम्‍हार भी कहता, ले लो न बाबू, बि‍टि‍या को पसंद है। मैं भी अब बचे हुए सामान कहां लौटा कर ले जाऊंगा। अंतत: मेरी जि‍द पूरी होती। दीपावली कुम्‍हारों के लि‍ए पैसे कमाने का समय है। यही एक वक्‍त है जब मि‍ट्टी के दीयों की मांग सबसे ज्‍यादा होती है साथ ही साथ खि‍लौनों की भी। उनकी आजीवि‍का के लि‍ए यह बहुत जरूरी है कि‍ हम अपनी परंपरा का र्नि‍वाह करते हुए मि‍ट्टी के दीप ही जलाएं।  


धनतेरस की शाम हम बाजार जाते। रौशनी से नहाया बाजार, बर्तनों के ढेर और लोगों की भीड़। उस दि‍न मुझे बड़ा अजूबा लगता। साधारणत: उस वक्‍त गांव की महि‍लाएं बाजार नहीं जाती थी, मगर उस दि‍न देखती सभी लोग, मां, दादी, चाची और पड़ोस की महि‍लाएं खुद जाती और पसंद की चीजें खरीद लाती। पीतल के बर्तन, झाड़ू, गणेश-लक्ष्‍मी की मूर्तियां और सोने-चांदी के सि‍क्‍के लोग खरीदते। इन दि‍नों तो धनतेरस का बाजार बहुत बड़ा हो गया है और करोड़ों का कारोबार होता है। सि‍क्‍के से लोग सोने-हीरे के गहनों के साथ-साथ गाड़ि‍यों की भी खूब खरीददारी करते हैं। मगर उन दि‍नों जब त्‍योहार का व्‍यवसायीकरण नहीं हुआ था तो मुझे याद है दीवाली के आसपास हर वर्ष वहां नौटंकी वाले आते थे। साथ ही मीना बाजार भी लगता था। देर रात सारे काम खत्‍म कर पूरा का पूरा मुहल्‍ला नौटंकी देखते जाता था। हम बच्‍चे बहुत हैरानी से सब देखते और मां-चाचि‍यों की बातें खत्‍म ही न होती थी। 


धनतेरस के अगले दि‍न छोटी दीवाली। घर की साफ सफाई की समाप्‍ति‍ और रसोई में पकवान की तैयारी शुरू। मि‍ठाई और पारंपरि‍क भोजन की तैयारी। अगले दि‍न धुसका, आलू की सब्‍जी, पुलाव, गोभी की मसालेदार सब्‍जी बनती। मि‍ठाईयां कुछ घर में बनती, कुछ बाजार से आती। छोटी दीवाली के दि‍न थोड़े दि‍ये जलते हैं । मंदि‍र में, तुलसी चौरे के नीचे, कुंए और गौशाला में। छत पर चारों दि‍शाओं में और कुछ बाहर..कुछ खि‍ड़कि‍यों कुछ छज्‍जे पर। उस दि‍न बच्‍चे सि‍र्फ रौशनी जलाते। शोर वाले पटाखेे बि‍ल्‍कुल नहीं। 


रात हमारे लि‍ए वि‍शेष खास होता। शाम के वक्‍त ही दादी एक पुराना दीया ढूंढकर रख लेती। जब सारे लोग सोने चले जाते तब दादी हाथ में वही दीया, जि‍समें सरसों का तेल भरा रहता, और जलता रहता, लेकर आती और बच्‍चों के तलवे में तेल लगाती। सर पर आरती देकर कमरे में दि‍या घुमाती। ऐसा वो पूरे घर में करती और होठों ही होंठो कुछ बुदबुदाती रहती। सब सोये होते उस वक्‍त। मैं आंखें मूंद सोने का बहाना करती। दादी पूरे घर में दीया घुमाकर घर के बाहर नि‍कलती और दूर मैदान में रख आती। इसे यमदीया कहते हैं। गहन अंधकार में एक दीया बड़े से मैदान के बीच बेहद आकर्षक लगता। मुझे तब समझ नहीं आता था कि‍ दादी देर रात क्‍यों रखती है दीया। बड़ा रहस्‍यमयी होता था सब। पर बहुत अच्‍छा लगता था। कहते हैं यमराज की खुशी की खाति‍र यह दि‍या नि‍काला जाता कि‍ वह हमारे परि‍वार की तरफ अपनी दृष्‍टि‍ न डालें। घर की सबसे उम्रदराज महि‍ला यह जि‍म्‍मेदारी नि‍भाती। दरअसल बड़ों का आर्शीवाद बच्‍चों के सर पर रहे, इस प्रथा में यह भावना नि‍हि‍त होती है। 


अगले दि‍न दीपावली की सुबह नींद खुलती तो देखती पापा और दादी बड़े से बरतन में पूजा घर के सारे भगवान को नहला रहे होते। उस दि‍न सुबह सि‍र्फ पूजा के कमरे की सफाई होती और भगवान नए वस्‍त्र पहनते। उस दि‍न पूजा होने तक पि‍ताजी व्रत रखते। मां रसोई में लगी होती। हम बच्‍चे नााश्‍ता करने के बाद बड़े से बाल्‍टी या टब में पानी भर सारे दीये भि‍गो देते। घंटे भर बाद पलट कर पानी सुखाने के लि‍ए रखते। अपने घरकुंदवा या घरौंदा सुंदर से सजाते। दोपहर तक नहा-धोकर नए कपड़े पहन लेते।


गोधूि‍ल बेला में दीया जलाया जाता था। मां पूजा के कमरे में गणेश-लक्ष्‍मी पूजन की तैयारी करती और मैं और छोटी बहन थाली में घी के दीपक लगाते। कई जगह दीपावली की रात काली पूजा भी होती है। कुबेर की भी पूजा की जाती है। दीपावली के दि‍न नि‍यम था कि‍ पहले मंदि‍र में भगवान के आगे दीया लगेगा, फि‍र सबलोग अपने घर में लगाएंगे। हम थाली में दीप लेकर घर के सामने वाले मंदि‍र में सबसे पहले जाते। सारे घरों में दीये लगने शुरू हो जाते। कि‍सी घर की छत पर दीया सजा मि‍लता तो कि‍सी घर के बाहर केले का थंब लगाकर उस पर दीया इस तरह से लगाया मि‍लता कि‍ अद्भुत दृश्‍य नजर आता। कहीं बच्‍चे फूलझड़ी छोडते मि‍लते। 


शाम को पूूजा होती रहती और हम कोने-कोने को रौशन कर रहे होते। छत, आंगन, कुंआ यहां तक कि‍ गौशाला में भी दि‍ये सजाते। मजे की बात कि‍ हमें जरा भी थकान नहीं होती। तब तक पूजा संपन्‍न हो जाती। मां की आवाज पर आरती में शामि‍ल होते। इसके बाद बारी आती हमारे घरौंदों के पूजन की। प्राय: घर की बेटि‍यां ही घरौंदा पूजतीं। अपने हाथों से बना हमारा छोटा सा घर पूरा सजा संवरा रहता। दूधि‍या मि‍ट्टी से लीपने के बाद उस पर रंग-बि‍रंगी चि‍त्रकारी कर हस्‍तकला का नमूना पेश करते थे हम। जि‍तने मि‍ट्टी के खि‍लौने थे, उन सबको सजा देते थे छोटे से घर में। हमारी ग्‍वालि‍न के हाथों के दि‍ए झकमक जलने लगते और घर भरने के लि‍ए भाई के नाम से छोटे चुकि‍ए में खील-बताशे भरते। सबसे दि‍लचस्‍प बात है कि‍ उसमें पांच तरह के अनाज होते थे और दीपावली के एक दि‍न पहले हम खुद भुनवा कर लाते थे। दीपावली को रंगोली बनाकर सजाया जाता है घर।


यह प्रथा खास बेटि‍यों के लि‍ए इसलि‍ए क्‍योंकि‍ माना जाता है कि‍ लड़कि‍यों से घर भरा लगता है। इसलि‍ए इस रस्‍म को नि‍भाने के लि‍ए बेटि‍यां जरूरी होती है। साथ ही गर्मी के बाद नए अनाज होते हैं तो उनको भी पहले-पहल भगवान को अर्पित कि‍या जाता है। बेटि‍यों के अंदर की कला को नि‍खारने का काम करता है घरौंदा। चि‍त्रकारी और रंगोली का सुंदर प्रदर्शन होता है दीपावली में। 


प्रसाद लेने के बाद सभी बच्‍चे सीधे घर के बाहर। पटाखों का थैला सबके हाथ में होता और फूलझड़ी़, आलू बम, सांप, बीड़ी बम, जलेबी, अनार...क्‍या कुछ नहीं होता था हमारे पास। जी भरकर पटाखे छोड़ते और पूरे मैदान में दौड़ते फि‍रते..दोनों हाथों में फूूलझड़ी थामे..जैसे हमारे पैरों को जलेबी की रफ्तार मि‍ल गई हो। देर रात तक कई दौर चलता पटाखों का। इस बीच मैं तेल और बाती लेकर एक चक्‍कर सारे दीयों की लगाती। जि‍स दीये का तेल कम मि‍लता उसमें दुबारा तेल भरती और जि‍सकी बाती ज्‍यादा जल चुकी हो, उसे बदल देती। मेरा यह कार्य तब तक चलता रहता जब तक मैं नींद से चूर होकर बि‍स्‍तर में नहीं चली जाती। सारेे लोग सो जाते और मैं दीया-बाती करती रहती। खास बात है कि‍ दीपावली में करंज के तेल के दि‍ये जलते हैं। इस तेल के जलने से कीटाणुओं का नाश होता है जो कि‍ बरसात के बाद बहुत होते हैं। यह भी एक तरह से वातावरण स्‍वच्‍छ करने और कीड़े-मकौड़े मारने का ही कार्य है, वरना वर्ष भर में सि‍र्फ दीपावली में ही करंज तेल जलाने का रि‍वाज नहीं होता। 


इसी रात मां काजल बनाती थी आंखों में लगाने के लि‍ए। घी के दीये के ऊपर कांसे की कटाेरी पलटकर रख देती थी रात को सोने के पहले। सुबह जब उसे पलटकर देखते तो कालि‍ख की मोटी परत बि‍छी मि‍लती। उसे कजरौटे में भरती थी मां और हम बच्‍चों को काजल लगाती थी। दीपावली की रात ऐसा लगता जैसे आकाश के सारे तारे जमीं पर आ गए। देर रात हम सोते पर सुबह जल्‍दी जागना होता। इस रात घर से दरि‍द्रता भगाने की भी रस्‍म नि‍भाई जाती। लोग लक्ष्‍मी का आगमन हो, इसके लि‍ए अपने दुकान और घरों में पूजा कर शुभ-लाभ लि‍खते और स्‍वास्‍ति‍क बनाते हैं। कुई जगह लोग अपने घर के दरवाजे, यहां तक कि‍ ति‍जोरि‍यां भी बंद नहीं करते। पूरे घर को दीये और बि‍जली की लड़ि‍यों से सजाया जाता है। आम के पत्‍ते का वंदनवार भी लगता है। माना जाता है कि‍ इस रात जि‍सके घर में रौश्‍ानी होती है मां लक्ष्‍मी उसके घर आती है। कई लोग इस कारण सारी रात जगते हैं। यह कुप्रथा भी है इस रात जुआ खेला जाता है।  


दीपावली की दूसरी सुबह..यानी सोहराई का दि‍न। इसे गोवर्धन पूजा भी कहते हैं। सबसे पहले हमें उठकर घरौंदे से कुल्‍हि‍या-चुकि‍या नि‍कालना होता जि‍समें रात खील-बताशे भर के रखे थे। उसे भाइयों को देती। हम बहनों को खाना नहीं था। हम उठकर देखते तो पता लगता है गौशाले की सफाई हो चुकी है। गोबर से लीपा जा चुका है। आंगन में लकड़ी के चूल्‍हे पर बहुत मात्रा में अनाज पक रहा है। पांच तरह के अनाज मिलकर बनते थे जिसे पख्या कहा जाता था। देखते ही दादी का आदेश होता...जाओ चौक पूर आओ। यानी रंगोली बनाओ। तब हम दीवाली के दूसरे दि‍न रंगोली बनाते थे। घर के बाहर से अंदर गौशाले तक।


रंगोली बनाने के लि‍ए चावल के आटे का घोल बनाते और उस पर सि‍ंदूर लगाकर सजाते। इस बीच गाय-बैल को नहा दि‍या जाता। उसके बाद उसके पूरे शरीर में दीयों काे अलग-अलग रंग में डुुबाकर छाप लगाई जाती। उनके सींग पर तेल मला जाता। फि‍र आंगन से अंदर उनकी पूजा कर लाया जाता। गौशाले के नाद में उनके लि‍ए पकाया गया अनाज परोसा जाता। सारा दि‍न कुछ न कुछ क्रम चलता रहता।


जब शाम के चार बजते, तो सारे लोग अपने जानवरों को, वि‍शेषकर गाय-बैल को खूंटे से नि‍काल लाते। उन्‍हें खुला छोड़ दि‍या जाता। सारे जानवर इकट्ठे होकर उछलते-कूदते। हमें बहुत मजा आता देखकर। उस दि‍न इनको पूरी स्‍वतंत्रता होती कि‍ जि‍धर चाहे चले जाए। कोई रस्‍सी नहीं पकड़ता। घंटे-दो घंटे तक यही सब चलता। हम बच्‍चे कभी बाहर जानवरों को देखने जाते तो कभी उनके दौड़ने से डरकर घर में छुप जाते।


सांझ ढलने से पहले सब लोग अपने-अपने जानवरों को हांककर वापस गोशाला ले आते। गौ-पूजा की समाप्‍ति‍ होती। देर शाम फि‍र दीये नि‍काले जाते। आज बासी दीयों का ही प्रयोग होता सजावट के लि‍ए। हां, मदि‍र, तुलसी आदि‍ में नए दीये लगते। कल के बचे पटाखे चलाये जाते। फि‍र से एक छोटी दीवाली मनती।


अगला दि‍न भाई दूज का होता। हम लड़कि‍यों काेे तब तक व्रत रखना होता है जब तक पूजा नहीं हो जाती। यह पूजा महल्‍ले में कि‍सी एक के घर होती और सब लोग वहीं आकर पूजा करते। गोबर से आंगन या छत में यम-यमी की आकृति‍ बनती। बाहर चौकोर घेरा बनाकर पूरा घर बनाया जाता। घर के अंदर गोबर से कई चौकोर खाने बनते और घेरे के अंदर सांप, बि‍च्‍छू, चूल्‍हा आदि‍ बनाया जाता है। इस पूजा में सबसे कष्‍टप्रद बात होती रंगीनी या भटकईया का कांटा ढूंढना। बहनेंं पूजा के दौरान अपने भाई को श्राप देती है, फि‍र थोड़ी देर बाद पश्‍चताप करने के लि‍ए जीभ पर रंगैनी का कांटा चुभाती हैं। अपने भाई की लंबी उम्र की कामना से पूजा करती हैं और कहानी सुनती हैं। दो या तीन कहानी तो पक्‍का बोली जाती थी चाची, ताई द्वारा। हमें बड़ा मजा आता यूं सुनकर कहानी। जि‍समें भाई बहन का प्‍यार होता और अक्‍सर भाभि‍याें की बुरी छवि‍ होती।


सबसे वि‍चि‍त्र बात की पूजा समाप्‍त होने के बाद यम-यमी के सीने पर एक ईंट धरा जाता और उसमें एक पांव धरकर सारी बहनेंं गीत गाते हुए पार होती थी। अपने भाई की रक्षा और उनके दुश्‍मनों का बुरा हो, यह कामना करती हैं बहनें। यह पर्व अब भी मनाया जाता है। इसके बाद भाई को प्रसाद देने के बाद बहनेंं कुछ खाती। प्रसाद में चना होता जि‍से भाई को नि‍गलना होता है। पूजा के वक्‍त रूई की एक माला बनती है, जि‍से 'आह जोड़ना' कहते हैं। इस माला को बनाते वक्‍त मौन रहा जाता है और भाई की मंगलकामना की जाती है। जि‍से पूजा के बाद भाई की कलाई में पहना दि‍या जाता है। भाई भी बहनों को पैसे या कोई उपहार देते। मुख्‍यत: यह भाई-बहनों के बीच के प्‍यार को बढ़ानेे वाला त्‍योहार है, राखी के अलावा। इस दि‍न सभी भाई अपनी बहन के घर जाते। मान्‍यता है कि‍ जि‍स भाई की हड्डी को बहन का श्राप लगा होता है, उसकी आकाल मृत्‍यु नहीं होती।

यह त्‍योहार भाई-बहन के प्‍यार का प्रतीक है। राखी के बाद यही ऐ पर्व है जि‍समें भाई बहन का साथ जरूरी है। प्राय: वि‍वाहि‍त बहनों के घर भाई जाते हैं। भाई दूज के साथ ही पंचपर्व दीवाली खत्‍म हो जाती है। थोड़ी मायूसी होती कि‍ अब बहुत शांति‍ है मगर सि‍र्फ दो-तीन दि‍न। फि‍र महापर्व छठ की गहमागहमी शुरू। यानी हमारी संस्‍कृति‍ में उत्‍साह और उमंग जगह होती है पूरे वर्ष। 

Sunday, October 29, 2023

ओह अक्तूबर !

ओह अक्तूबर ! 

कितनी यादें लेकर आते हो साथ
मन तोला-माशा होता है।


बिस्तर पर चाँदनी का सोना
हरसिंगार का खिलना-महकना-गिरना

समेटना हथेलियों में तुम्हारी याद की तरह
उन नाजुक फूलों को 

राग "मालकौंस"
कोई गाता है दूर, बहुत दूर से 

मन को अतीत में खींच ले ही जाता है
कितना भी रोके कोई..
 
ओह अक्तूबर ....
तुम आए फिर....आओ, थम जाओ। 


Tuesday, September 27, 2022

मन के घेरे ( कहानी )

 

-    रश्‍मि‍ शर्मा

उनकी आँखेँ पहले मिचमिचाई और फिर मुँद-सी गईं। ऐसा सोचते या कहते हुए वह एक खास तरह के सुख से भर उठी थी, ऐसा सुख जिसका शब्दों में ठीक-ठीक अनुवाद शायद संभव नहीं था - ‘सोचा था तुम मर जाओगी तो उसकी दूसरी शादी करा देंगे।‘  

उसे हैरत हुई कि कैसे कह पा रही हैं वह यह बात जबकि अभी-अभी, ठीक दस मिनट पहले डाक्‍टर ने आश्वासन के साथ ही चेतावनी भी दी थी कि‍ अभी तो कोई बीमारी नहीं दिख रही, मगर प्रीकॉशन नहीं लिए गए, तो कुछ भी हो सकता है।


शायद उन्‍होंने सुना ही नहीं ठीक से, या फिर अचानक ही भारी हो उठे माहौल को हल्‍का करने के लि‍ए मजाक कर रहीं हो। वैसे यह भी संभव है कि उनकी दिली इच्छा हो कि बीमारी वही रहे, बस बीमार बदल जाए। अचानक ही कहीं पढ़ा या किसी से सुना हुआ वह प्रसंग याद हो आया- बादशाह बाबर अपने बेटे हुमायूं से खूब मुहब्बत करता था। एक बार हुमायूं  गंभीर रूप से बीमार हो गया। उसके बचने की कोई उम्मीद न देखकर बाबर ने ऊपरवाले से दुआ की - ' तू  हुमायूं की जिंदगी लौटा दे। बदले में मैं अपनी ज़िंदगी कुर्बान करने को तैयार हूं।कहा जाता है कि‍ बाबर की दुआ कुबूल हुई, हुमायूं  धीरे-धीरे सेहतमंद होने लगा और बाबर बीमार। कुछ दि‍नों बाद ही बाबर की मृत्‍यु हो गई। 

 बाप-बेटे के मोहब्बत की इस कहानी के खांचे में भला वह कहां से फि‍ट बैठ रही है, उसे समझ नहीं आया। शायद यह उनके  बोलते रहने की आदत का ही हासिल है। कोई सुने न सुने बोलते ही रहना है। कई बार इस अति‍ के कारण अर्नगल भी बोल जाती है वह। फिर भी एक बार साफ-साफ कह देना ही ठीक होगा कि मौत मुझे नहीं, आपके लाडले को आवाज दे रही है, इसलि‍ए होश मत खोइए आप। 

 पर यह सोचते हुए एकबारगी वह कांप गई। क्‍या सच में शलभ....अगर शलभ को कुछ हो गया तो...?

 

'ओहो! कितना प्‍यार करती हो न तुम उनसे..! ' न जाने मन के कि‍स कोने से एक तंज भरी आवाज आई थी।

 साथ रहते-रहते तो सभी को प्‍यार हो जाता है...क्‍या हुआ जो उनके बीच का प्रेम चुक गया। न, चुका नहीं था, सच तो यह है कि प्यार जैसा लगा था, पर प्यार था ही नहीं... प्यार न हो, न सही, मगर एक बंधन तो है, जि‍समें बंधे है दोनों। वैसे भी कि‍तने शादीशुदा जोड़े हैं, जि‍नके बीच प्‍यार नदी सा बहता और सागर सा उफनता है! मगर रहते हैं न साथ...  और इस रि‍क्‍तता की भरपाई के लि‍ए ही तो सब बच्‍चे पैदा करते हैं। सहसा उसे अपने बेटे अंशु की याद हो आई।

 अंशु का चेहरा आंखों में कौंधते ही भय की एक तेज सी लहर कृतिका की रीढ़ में दौड़ गई। उसे शलभ को खो देने के अंदेशा से ज्‍यादा इस बात की कल्‍पना डरा रही थी कि‍ वह कैसे पालेगी अंशु को अकेली। वह तो कोई नौकरी भी नहीं करती। कई बार चाहा कि‍ कहीं न कहीं काम पर लग जाए, मगर हमेशा शलभ ने ही मना कि‍या- ‘मेरा बचपन तो अकेले ही बीता। मजबूरी थी कि‍ मां को नौकरी पर जाना पड़ता था। यहां जब दो-दो कमाने वाले हैं ही तो फिर...’

 अब वह कैसे बताती शलभ को कि‍ अंशु के गर्भ में आने से पहले अकेले घर में रहना उसके लि‍ए कि‍तना कठि‍न था। घर क्‍या, उसका जीवन ही इतना दुश्‍वार था कि‍.....

 कार में बगल की सीट पर बैठी वह, यानी उसकी सास बहुत देर से उसका चेहरा देखे जा रही थी। शायद उसके अंदर चल रहे उथल-पुथल को भांपने की कोशिश कर रही थी या फि‍र अपने कहे पर कोई प्रति‍क्रि‍या नहीं मि‍लने से हैरान थी। मुमकि‍न है, वह यह भी सोच रही हो कि‍ वह सावि‍त्रि‍ की तरह अब कि‍सी तपस्‍या का संकल्‍प  लेगी। 

    बिना कुछ कहे मुंह फेर लिया कृतिका ने और कार की बंद खिड़की से दौड़ते-भागते शहर को देखने लगी। उसके हाथों में रिपोर्ट्स की फाइल थी, जिसके पन्ने न जाने किधर से घुस आई हवा से फड़फड़ा रहे थे। उसने उंगलियों के दबाव से पन्नों को स्थिर करने की कोशिश की। फर्राटे से दौड़ती कार के अंदर अजीब सा सन्नाटा बिखर गया था।

 कृति‍का की सास की  मिचमिचाई आंखें अब पूरी तरह खुल गई थीं। कुछ देर तक उसकी तीखी निगाहें कृति‍का  के चेहरे पर टि‍की रहीं, फि‍र  सामने देखने लगीं वह।

 कृतिका ने मन ही मन सोचा, शायद मुझसे ज्यादा उनको सांत्वना की जरूरत है। लगता है यह झटका बर्दाश्‍त नहीं हो रहा उनसे। वैसे भी ससुर जी के जाने के बाद भावनात्मक रूप से वह पूरी तरह शलभ पर ही निर्भर हैं। किसी विधवा माँ के लिए इससे बड़ा झटका क्या हो सकता है कि उसकी आँखों के आगे उसका इकलौता बेटा... कुछ कह-सुन लेने से उनका मन हल्का हो जायेगा। 

 सास की बात सुनकर एक बार तो मन हुआ था कि सीधे-सीधे पूछ डाले  अगर डॉक्टर की आशंका सच साबित हो गई तो?पर होंठो से शब्‍द बाहर नि‍कलते, उसके पहले ही उसने अपनी दांतों से जीभ को दबाते हुए रोक लि‍या था खुद को।  उसका यह जवाब किसी बम की तरह फूटता उनके सर पर और कार के भीतर ही एक जलजला आ जाता। इतना कोसती वह कृति‍का और उसके पूरे खानदान को कि‍...   

 सास की बात से उसके भीतर चिढ़ और गुस्से का बवंडर उठा था पर ऊपर से संयत थी कृतिका। थककर एक बार उसकी तरफ नजर डाला कि शायद वही कुछ कहे...बात आगे बढ़ाए, मगर उधर भी ऐसी ही चुप्पी थी। चुप्पी के इस पुल को पार करने के लिए उसे उचित शब्द मिल नहीं रहे थे।

 पीछे छूट चुकी डॉक्टर की हिदायतें कृतिका के कानों में किसी हथौड़े की तरह बज रही थीं,  उसने सोचा घर पहुँचते ही शलभ की दराज में पड़े गुटखा और तंबाकू के सारे पैकेट आज डस्टबिन के हवाले कर देगी... कनपटी की नसें उभरने लगी हैं... एक छोटा सा भी तनाव उसके माइग्रेन को नींद से जगा देता है। पर आज की बात तो बहुत बड़ी है, ऊपर से सास की यह जहरबुझी बात...

 खुद को संभालने की कोशिश में वह फिर बाहर देखने लगी। आंखों के आगे पूरी दुनिया खुली हुई थी और यादों के घोड़े प्रकाश की रफ्तार से दौड़ लगा रहे थे। नीली रौशनी से नहाया कमरा है। निर्विकार चेहरे के नीचे उसका तराशा गया अंग-अंग थिरक रहा है। बिस्तर पर लेटने वाले की निगाहें उसकी त्वचा से चिपक सी गई हैं और उसके थिरकते बदन को पता है कि एक दौर और बाकी है...मगर उसके पहले यह...

 नाचना उसका शौक नहीं..दर्द से टहक रहा उसका बदन। नहीं..यह बदन का नहीं मन का दर्द है जो शि‍राओं से होते हुए उसके अंग-प्रत्‍यंग में फैलता जा रहा है। उसके पैर जैसे मन-मन भर भारी हो गये हैं।  जी करता है, जहां है वहीं ढह जाए, प्रस्‍तर शि‍ला में बदल जाए। कृतिका की दाहिनी हथेली दरवाजे के हैंडल को सख्ती से मसल रही है, उसकी उँगलियाँ पसीने से भर उठी हैं...सालों से स्थगित गुस्सा उसकी नसों में तेजी से फैलता जा रहा है...

धच्‍चके से कार रुकी तो वह सोच से बाहर आई। दरवाजा खोलकर एक तरफ से कृतिका तो दूसरी तरफ से उसकी सास निकली। दोनों बि‍ना कोई बात कि‍ए कदमताल करती घर के अंदर प्रवेश कर गई, ऐसे जैसे कि‍ अब आपस में उनके बोलने-बति‍याने को कुछ रखा ही नहीं। सच तो यह है कि‍ कृति‍का दो अलग भावनाओं को एक साथ जी रही थी। उसका एक मन अपने भविष्य की चिंता में कातर हुआ जा रहा था तो अतीत की वीथियों में उलझा दूसरा मन सालों पुराने हिसाब की भरपाई की सभावनाएं तलाश रहा था। कृतिका अपने इन दो मनों के दरम्यान बेचैन डोल रही थी...

 उसने रिपोर्ट्स डायनिंग टेबल पर रखे और रसोई की ओर चली गई। उसकी सास, जिसका नाम मंजुलता है, हमेशा की तरह गेट के ठीक बाईं तरफ वाले अपने बेडरूम में समा गई। शलभ सीधे ऑफिस चला गया था।

 शाम को शलभ के घर आते ही कृतिका और मंजुलता दोनों ही उसके कमरे की तरफ लपके। कृ‍ति‍का एकटक देख रही थी शलभ का चेहरा। हमेशा ही मौजूद रहनेवाली लापरवाही अब भी वहाँ टंगी हुई थी, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो या फिर उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। कृतिका जानती थी कि‍ उसके कुछ कहने का असर नहीं होगाउसके साथ ही कमरे में सास का आना भी उसे चुभा था कहीं...। कभी-कभी लगता है कि‍ शलभ पर असली हक तो सास का है, वह केवल नाम का रि‍श्‍ता नि‍भाने के लि‍ए इस घर में मौजूद है। क्‍या उनको यह समझना नहीं चाहि‍ए कि‍ इतनी बड़ी बात के बाद कुछ पल हमें पहले एकांत में बात करने देती।   शलभ के आते ही वह जिस तेजी से कमरे की तरफ लपकी थी, उसके दुगुने रफ्तार से वह बाहर निकलकर फिर से रसोई में घुस गई।     

 जैसा सोचा था, ठीक वैसी ही तेज आवाजें बेडरूम से किचन तक आ रही थीं। माँ-बेटे का परस्पर प्यार उफान पर था... इन बेनतीजा बहसों से उसका जी ऊब चुका था। कृतिका ने मिक्सी का नॉब तीन पर घुमा दिया। अब उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था और वह सुनना भी नहीं चाहती थी। उसे अपने बच्चे के लिए मिल्कशेक तैयार करना उस बहस में उलझने से ज्‍यादा जरूरी लगा। ग्लास में मिल्कशेक ढालते हुए एक बार फिर डॉक्टर का गंभीर चेहरा उसकी आँखों के आगे आकर खड़ा हो गया- ‘प्रीकॉशन नहीं लिए गए, तो कुछ भी हो सकता है।’ मिल्कशेक ग्लास से बाहर गिरते-गिरते बचा। उसने सायास खुद को बरजा, जानबूझकर गुटखा चबाते शलभ का चेहरा अपनी आँखों के आगे रखा और एक अजीब तरह की उबकाई के अहसास से भर उठी। 

 डिनर के बाद शलभ जब कमरे में आया तो हमेशा की तरह उसके मुंह में पान मसाला भरा हुआ था। ऐसे समय में वह कृति‍का से कोई बात नहीं करता। बस अपना मोबाईल लेकर बि‍स्‍तर पर दूसरी तरफ मुंह करके लेट जाता है... यदि जि‍द करके वह कुछ कहती भी तो हाथ के इशारे से हां या ना बोलकर बात खत्‍म। इसलि‍ए अब अूममन वह सोने से पहले उससे कोई बात नहीं करती। उसे जरा भी पसंद नहीं कि‍ बात करते समय पीक मुंह से बाहर आए, या जर्दे की तीखी गंध उसके आसपास देर तक बनी रहे।

 पर आज उससे नहीं रहा गया और उसके मुंह से नि‍कल आया- ''डाक्‍टर की चेतावनी के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा तुम्‍हें। अब तो संभल जाओ।'' 

 जवाब में शलभ ने बुरी तरीके से घूरा था उसे जैसे कह रहा हो कि‍ बेहतरी इसी में है कि‍ वह चुप हो जाए।   

 रात के किसी पहर फिर एक सपना आया। तेज हरहराता पानी और उसमें डूबती उतरती वह। बचने की लगातार कोशि‍श कर रही है। कि‍नारे बहुत सारे लोग नजर आ रहे हैं, मगर उसकी ओर कोई नहीं देख रहा। उसे बाहर नि‍कलना है। बस जरा दूर और आ जाए....  किनारा दिख रहा, मगर लहरों से लड़ते-लड़ते वह थक चुकी है। भय से उसकी आंखें बंद हो गई कि अगर वह अभी डूब जाती है तो अंशु ...


सपना में सपना नहीं, कल्पना है यह। नींद खुलने पर महसूस हुआ कि तेज चल रही है सांसे और धड़कनें ऐसी कि लगे दिल पसलियों से टकरा रहा है। उसे आजकल अक्सर ही यह सपना आता था। जागती आंखों से बंद आखों का सपना दुहराते हुए एकदम चौंक उठी वह। आज कुछ नया आ जुड़ा था उस सपने में, यह एकदम नई बात थी कि‍ किनारे से कोई हाथ बढ़ा रहा था। कौन था...कौन था वह चेहरा। लाख कोशिशों के बाद भी उसे याद नहीं आया कि उसने वाकई कोई हाथ देखा था या उन हाथों का एक धड़ भी था जिस पर एक चेहरा टंगा था। देर तक सोचने के बावजूद वह सपना और कल्पना के बीच फर्क नहीं कर पाई। वह बेतरह थकी थी, बिस्तर पर पड़े-पड़े उसे नींद आ गई।


सुबह परदे की फांक से निकल धूप का एक नन्‍हा टुकड़ा उसके चेहरे पर नाच रहा था। आंखों की पपोटों पर रौशनी की मुलायम तपि‍श से उसकी नींद टूटी। अनायास मुस्करा उठी वह। धूप के टुकड़े को हौले से सहलाया जैसे उसे शुक्रिया कह रही हो...  


'
मुस्करा लो, मगर तुम्हारा सपना कभी पूरा नहीं होगा'

जाने कब शलभ उठ गया था और उसकी ओर देख रहा था, उसे पता भी नहीं चला।

''
वैसे भी दि‍न हो या रात, मेरे सपने कब पूरे होते हैं,''  बुदबुदाती हुई कृतिका ने बिस्तर छोड़ दिया। न उसने पूछा कि किस सपने की बात कह रहा वो, न बताया शलभ ने। 

 कृति‍का बचती है शलभ के साथ कि‍सी भी बहस में उलझने से। उसकी कि‍सी बात का जवाब दि‍या नहीं कि‍ वह बात खिंचती हुई इतनी लंबी हो जाती है कि‍ झगड़ा समाप्‍त होने का नाम ही नहीं लेता। घर का पूरा माहौल बदल जाता है। उनके बीच की तल्‍खी पूरे घर को लपेटे में ले लेती है और बेचारा अंशु सहम सा जाता है। सीधी सी बात भी दिनों तक व्‍यंग्‍य में कही जाती है और तब कृति‍का का हंसना-रोना सब मुश्‍कि‍ल हो जाता है।

 शलभ के सामने किसी का फोन आ जाए तो और आफत...व्यंग्य में एक खास तरह का उलाहना भी शामिल हो जाता है, उन उलाहनों के शब्द उसे किरचों से चुभते हैं। सामान्य दिनों में बहुत तरह से समझाया, सफाइयाँ भी दी, पर अब थककर सफाई देना भी छोड़ दिया था उसने। समझो, जो समझना है। भीतर ही भीतर लहूलूहान हो जाती है वह और फोन को कई-कई दिनों तक साइलेंट मोड में डाल देती है। गुस्से में खुद को ही तकलीफ देती है, अपनी माँ तक के फोन नहीं उठाती।

 बेडरूम से बाहर आती कृतिका की नजर सामने टेबल पर पड़े मेडिकल रिपोर्ट्स पर गई, उसे लगा उसकी मुक्ति का मार्ग इन रिपोर्टों से होकर ही निकलेगा... एक पल को उसकी पलकें जैसे किसी दुआ में मुंदी थीं...

 घर के काम निबटाती कृतिका का यह अहसास और गहरा हुआ जा रहा है कि यंत्रवत सी हो गई है उसकी जिंदगी। सालों से उसका समय अंशु के साथ ही गुजरता है। शलभ और सास सुबह-सुबह ड्यूटी पर चले जाते हैं। वह अंशु को संभालते और काम निबटाते हुए बहुत बार थक के चूर हो जाती है। मगर किससे कहे अपनी तकलीफ। सास घरेलू होती तो कुछ जिम्मेदारियां उठा लेती। शलभ तो वापस आने के बाद जो टीवी में घुसता है, फिर निकलने का नाम नहीं लेता। फिर तो उसे चाय भी वहीं चाहिए और खाना भी।

उधर शलभ की फरमाइश और सास की जरूरतें पूरी करते- करते अंशु को सुलाने का समय हो जाता। रात बिस्तर पर पड़ते ही आंखें मुंदने लगती, मगर वह...सिहर उठता है उसका तन, जैसे रेशा-रेशा ऐंठने लगा हो…बेतरह प्‍यास लगने लगती है ऐसे समय। शरीर इस ढंग से प्रति‍कार करता है उस वक्त जैसे उसका सारा बदन पत्‍थर में बदल गया हो। अब वहां न धूप है न पानी..बस एक ठंडापन पसरा है। स्‍पर्श कामनाओं का ज्‍वार नहीं जगा पाते। वह जड़ हुई ऐसे छटपटाती है जैसे कि‍सी मछली को नदी से बाहर लाकर रेत में पटक दि‍या गया हो और छत पर टंगी आंखें किसी तूफान के गुजर जाने का इंतजार कर रही हों...  आंख की कोरों से रि‍सता आंसू अंधेरे के दामन में खुद को छुपाता तकिये में समाता जाता है।

  '' फालतू की हैं ये रिपोर्ट्स। आजकल डॉक्टरों का बस एक ही काम है, डराकर पैसे ऐंठना। सब बिजनेस है आज के जमाने में। वो जमाना गया जब डॉक्टर मरीजों की सेवा करते थे। अब हम मरीज नहीं ग्राहक हैं, ग्राहक! पहले बीमारी के नाम से डरायेगा, फि‍र हजारों का टेस्‍ट, दवा...  सब इनलोगों की मि‍लीभगत है। जितना ऐंठ सको, ऐंठ लो।'' शलभ अखबार थामे भुनभुना रहा था, पर कृतिका समझ रही थी कि वह अपनी बात उसके और मां के कानों तक पहुंचाना चाहता था।

 चुपचाप रही कृतिका। जानती है जवाब देने का कोई फायदा नहीं। अभी कुछ बोली नहीं कि वह इस कदर चि‍ढ़ कर जवाब देगा कि उसका तन-मन सुलग जाएगा।  

 ''तुनकमिजाज जरूर है शलभ, पर दि‍ल का भला है...'' सास ने उन दोनों के बीच की तनातनी को भाँपते हुए हमेशा की तरह अपने बेटे का पक्ष लिया है...  ”थोड़ा बर्दाश्‍त ही कर लोगी तो कुछ बि‍गड़ नहीं जाएगा। 

 जाने खुद को क्या समझती है यह इंस्‍पेकटरानी..अंदर ही अंदर दांत पीसती कृति‍का का जी हुआ कि आज ईंट का जवाब पत्थर से दे मारे। पर सामने टेबल पर पड़े मेडिकल रिपोर्ट्स को देख उसने किसी तरह खुद पर काबू पाया...

 '' न बहु...गुस्‍सा नहीं करते। बस हम चार जने ही तो हैं इस परि‍वार में। सबके जीवन में सुख-चैन बना रहे। भगवान ने इतना सुंदर चेहरा दि‍या है, कुढ-कुढ़ के मत बि‍गाड़।''  उनके शब्दों ने एक बनावटी मिठास ओढ़ ली थी। बेटे को सुनाकर बहू की परवाह करने का यह नाटक वह खूब समझती है।

 पूरी दोमुंही सांप है यह औरत... मन ही मन कुछ बुदबुदाई कृति‍का, मगर प्रकटतः कुछ कह नहीं सकी।

 आज मां की डांट का भी कोई असर होता नहीं दिख रहा था। शलभ ने कभी किसी की सलाह नहीं मानी, आज भी अपनी उसी जिद पर अड़ा हुआ है... 

एक हफ्ते बाद फिर डॉक्टर के पास जाना है, बायोप्सी के लिए। जाने क्या रिपोर्ट आए। डॉक्टर ने ऊपर से भले ढाढ़स बँधाया हो, पर कहीं भीतर उसे भी आशंका है, तभी तो उसने टेस्ट करवाने को कहा है... यदि उसकी आशंका सच साबि‍त हुई तो...

 अपने ही सोच से सहम गई कृतिका... अचानक ही उसने खुद को असहाय और अकेली पाया। थोड़ी देर पहले जिसे मन ही मन दोमुंही सांप और इंस्पेकटरानी कहकर कोस रही थी, उसी सास की सुनाई कहानियों ने उसके अंदर बोलना शुरू कर दि‍या है ... ‘समाज में अकेली औरत का रहना कोई गुड्डे- गुड़िया का खेल नहीं है। छोटे बच्‍चे के साथ भरी जवानी काटना कांटों के ऊपर पांव धरकर चलते जाना है। वो तो कहो मेरे पास पुलिस की नौकरी थी, लोग आँख उठाकर देखने के पहले चार बार सोचते थे... अगर यह वर्दी नहीं होती तो जाने क्या होता मेरे साथ...’

 उसके पास तो कुछ भी नहीं। न नौकरी, न बैंक बैलेंस, न ही कोई वि‍शेष योग्‍यता। अगर वह मर गई तो आज के आज उसके पति‍ की दूसरी शादी हो जाएगी...पर उसकी....जानबूझकर वह आज शलभ की बगल वाली सीट पर बैठी है। सास के रहते कभी कार में शलभ के साथ नहीं बैठती वह...ऐसा करना शलभ की नजर में उसकी माँ का अपमान है। गेयर बदलते शलभ के हाथ पर धीरे से वह अपना हाथ रखना चाहती है... जाने वह किसके लिए आश्वस्ति खोज रही है, खुद के लिए या शलभ के लिए... पर मन है कि कहीं और चला जा रहा है...

 रातें अक्सर बहुत भारी गुजरती थीं उस पर। रोज-रोज का झेलना जब बर्दाश्त के बाहर हो जाता बड़ी मुश्किल से ना में सिर हिलाती वह और अगले ही पल उसके मुंह पर घर का दरवाजा बंद हो जाता। वह सिकुड़ी सहमी लान में बैठी रात गुजार देती। शुरू -शुरू बेचैनी में वहीं टहलती रहती, खूब रोती थी। सीढियों पर उसका बदन पड़ा होता और वह प्रार्थना करती कि सुबह होने से पहले उसे मौत आ जाए।

मगर मौत मांगने से मिल जाए, तो कहना ही क्या।

वह भीतर ही भीतर घुटती रहती पर उसे समझ नहीं आता क्या करे, किससे कहे... एक दिन बहुत सकुचाते हुए, अटक-अटक कर टुकड़ों-टुकड़ों में बताया था उसने सास से सबकुछ। उसे उम्मीद थी सास उसकी तकलीफ समझेगी, पर जो हुआ उसने उसे बुरी तरह तोड़ दिया था।


हो हो हो.. उन्‍होंने बड़ी फूहड़ सी हंसी हँसते हुए कहा था - 'आजकल के लड़के और उनकी फैंटेसी। किसी और ने तो नहीं कहा न तुम्हें नाचने को... शलभ पति है तुम्हारा, उसे खुश रखना तुम्हारा फर्ज है।’

कृतिका के पैरों तले से जैसे जमीन खिसक गई थी। उसकी पुलिसिया रौबदाब से वह खूब प्रभावित होती थी। वर्दी के सहारे अकेले दम एक वि‍धवा ने अपनी औलाद को बड़ा किया, लायक बनाया... पर उसकी इस हंसी ने जैसे उन सारे प्रभावों को धो दिया था... कृतिका ने सोचा - क्या पोजिशन और पोस्ट औरत और मर्द की मानसिकता में कोई भेद नहीं रहने देते।

 उसके भीतर उस समय आश्चर्य से ज्यादा उनके लि‍ए घृणा उपजी थी मन में। जब अपनी बहु का दर्द नहीं समझती तो औरों का क्या समझती होंगी उसका दर्द केवल उसका है, इस अहसास ने उसकी शिराओं में एक गहरी, लंबी उदासी और अकेलापन भर दिया था। मान मर्यादा की लकीरों में कैद कृतिका को जब अपनी मुक्ति का कोई मार्ग नहीं सूझता, तब तकलीफ और अकेलेपन के दुरूह पलों में कई बार वह ईश्वर के आगे हाथ जोड़कर प्रार्थना करती... उसके भीतर गूँजते प्रार्थना के शब्दों में शलभ की मृत्यु की कामना हुआ करती थी।

कार की डैशबोर्ड पर लगी देवी की मूर्ति से मन ही मन शलभ का आरोग्य मांगते हुए कृतिका ने सोचा कहीं उसकी प्रार्थनाओं का ही यह असर तो नहीं कि शलभ.... अतीत में की गई अपनी ही प्रार्थनाओं से उलझकर रह गई थी कृतिका... नहीं-नहीं...वह तो महज गुस्‍से में कहे गए कुछ शब्द थे... अपने आप को नये सिरे से नकारने की इस कोशिश में कृतिका शलभ की खूबियों को याद करने की कोशिश कर रही थी और इस कोशिश में कहीं और उलझती जा रही थी। क्या एक ही व्यक्ति के दो रूप भी हो सकते हैं?

 आवेग के उन क्षणों के बीत जाने के बाद सुबह शलभ एक दूसरा ही आदमी होता। वह अक्‍सर ही सीढ़ि‍यों पर थक कर सो जाती। ठंड से उसका बदन अकड़ा होता। सुबह दरवाजा खोलकर उसे शॉल ओढ़ाते हुए शलभ उठाता और बाहों में समेटे हुए अंदर लाकर बि‍ठाता। फि‍र रसोई में जाकर खुद ही चाय बना लाता और उसे प्‍यार से पि‍लाता। वह समझ नहीं पाती कि आखिर ऐसा क्या हो जाता है रातों को।

 नीली रौशनी बदन में लिपटी होती मगर उसके रोम-रोम में एक सिहरन सी व्याप जाती... थकान और थिरकन के बीच शलभ का यह दो रूप उसके लिए किसी रहस्यलोक से कम नहीं था। अभी वह उसके पहले रूप की स्मृतियों को अपने भीतर से धकेलकर बाहर कर देना चाहती है कि तभी पिछली सीट पर बैठी सास का चेहरा उसे सामने लटके शीशे में दिखाई पड़ता है और उस दिन के कहे उसके शब्द उसके कानों में टभक उठते हैं- '' तू नसीब वाली है कि‍ तुम्हारा पति तुमसे प्यार करता है। उन औरतों की सोच जि‍सका आदमी उसके होते कहीं और रात गुजारता है। ऊपरवाले का शुक्राना कर कि‍ जो भी है, बस तेरे लि‍ए ही है।''  

 सालों से चुभनेवाले ये शब्द जैसे आज अपनी तीक्ष्णता भूल से गए हैं। जाने क्यों सास के शब्दों में आज पहली बार तकलीफ की ध्वनि सुनाई पड़ रही है और वह चाहकर भी उन पर  गुस्सा नहीं कर पा रही।

 सहसा उसकी आँखों में उन दिनों की स्मृतियाँ कौंध आईं, जब अंशु के जन्म के बाद महीनों उसकी सास उसके साथ सोती थी। बहाना बच्चे को संभालने का था। शलभ को मजबूरी में दूसरे कमरे में सोना पड़ता। शादी के बाद पहली बार तब वह सुकून की नींद सो रही थी... दिनभर की पुलिसिया ड्यूटी के बावजूद रातों को सास का यह मीठा व्यवहार उसके लिए अप्रत्याशित था। उन्हीं दिनों एक रात किसी भावुक क्षण में उन्होंने उससे कहा था... “मैं शलभ के जिद्दी स्वभाव को जानती हूँ। पर, माँ होने की अपनी सीमाएं हैं, सबकुछ खुलकर नहीं कह सकती उससे। अभी तुम्हारे शरीर को आराम चाहिये इसीलिए तुम्हारे साथ मेरा होना बहुत जरूरी है।‘

 कृतिका हैरान हो सोचती रही थी कि वो वाली सास असली है या यह वाली।  इस तरह अलग भूमिकाएं कैसे निभा लेती हैं वह। कभी जब वह कमरे के अंदर जाने में आनाकानी करती तो जबरदस्ती ठेल कर भेजती थी वह - 'अपने आदमी को खुश रखना औरत की जिम्मेदारी है।' और अब शलभ के आवाज देने पर खुद पूछने चली जाती है - ' बताओ क्‍या बात है, बहु बच्‍चे को संभाल रही है।


अंशु के पैदा होने के बाद बहुत सी चीजें खुद संभलने सी लगी थीं। पर इसी बीच जाने कहाँ से यह आफत आन पड़ी। शलभ के जीभ और होठों की रंगत बदलने लगी थी। अक्‍सर शेविंग करते समय वह आईने में देखते हुए इस बात का अहसास होने लगा था शलभ को, मगर इग्‍नोर कि‍ए जा रहा था। उसने कई बार, बल्‍कि‍ बार-बार कहा था शलभ को कि‍ यह सब चीजें खाना सेहत के लि‍ए सही नहीं। शुरू में तो वह हां, हां कहता, कि‍ बस जल्‍दी छोड़ देगा। कभी कहता कि‍ अभी थोड़ा काम का तनाव है, खाने से रि‍लैक्‍स फील होता है। कभी बोलता ड्राइव करते समय एकाग्रता के लि‍ए खा लेता है, कभी दोस्‍तों का साथ देने के लि‍ए...पर जल्‍दी ही खाना छोड़ दूंगा, मगर बाद में ढि‍ठाई पर उतर आया था।  

 ''नहीं छोडूंगा, क्‍या कर लोगी? ''  

 '' करूंगी क्‍या, ये सारा पाउच उठाकर फेंक दूंगी बाहर।''  

 '' जि‍तना फेंकोगी, उतना मंगा लूंगा... फेंकती रहो...'' तो कभी धमकी देता - '' फेंक के तो दि‍खाओ। तुम्‍हारे मायके से नहीं आता है पैसा।''  

 यहाँ तक आते-आते कृतिका का जायका एक बार फिर से कसैला हो आया है। इनसे बाहर आने की कोशिश में कुछ और पीछे जाती है वह... सुदूर अतीत के ये पन्‍ने जैसे बीते कल की बात जान पड़ते हैं। उसे भी कहाँ पता था कि सबकुछ इस कदर सुरक्षित पड़ा है उसके भीतर। कॉलेज के दिनों में जाने कितने लड़के मरते थे उस पर, मगर शलभ उन सब में अलग था। चाहतों की एक महीन और मौन डोर हुआ करती थी उसकी आँखों में। जाने कितनों का दिल तोड़कर शलभ का हाथ थामा था उसने। पर मुकद्दर की लकीरें लिखता कोई है, जीता कोई और है। ख्वाहिश की आकाश के टिमटिमाते तारे छू लेना इतना भी आसान होता है क्या? अगर जीवन ने इस मोड़ पर लाकर खड़ा किया कि उसे अकेली रहना है, तो आगे का सफर वह तन्हा तय कर लेगी... .

बायोप्सी की रिपोर्ट आने में अभी समय है। मगर न जाने कृतिका किस उधेड़बुन में फंस गई हैं।

उस दिन स्कंद से मुलाकात हुई बाजार में। वह उसका बैचमेट था। उसके पास आते ही हमेशा लगता है जैसे बादलों का एक टुकड़ा सर के ऊपर आ बैठा है और वह सुहानी हवा के झोंके में आनंदित हुई जा रही है।

 यह अहसास अभी-अभी हुआ हो, ऐसा नहीं। उसने पहले भी फील कि‍या था, पर समझ नहीं पाई थी। स्कंद के चेहरे पर सदाबहार मुस्कान रहती है। जब पड़ोस में था तो कभी कॉपी - पेन के बहाने तो कभी अदौड़ी- अचार के लेन-देन के नाम पर सामना हो ही जाता था। हमेशा लगता कि उस मुस्कान और आंखों की चमक के पीछे कोई बात छुपी है। मगर क्या...तलाशती ही रह गई थी कृतिका।

उसे याद है उसके एक जन्मदिन पर सामने पड़ जाने पर उसने पॉकेट से पेन निकालकर दिया था, उसी मोहक मुस्कान के साथ और कहा था ' इससे एग्जाम दोगी तो पेपर अच्छा जाएगा। हैप्पी बर्थ डे ।'


उस छोटी सी बात का अर्थ निकालते, समझते बरस बीते और वह सब छोड़ शलभ से जुड़ गई।

आज लगता है कि समय की जो कद्र नहीं करते, उनके लिए समय भी बैठा नहीं रहता। शलभ दोहरी जिंदगी जीता हुआ इंसान है, जिसके चेहरे पर कभी मोहक मुस्कान नहीं दिखती कृतिका को। वह केवल हावी होने की कोशिश करता है।


''
ठीक तो हो न कृति...'


जवाब में एक छोटी मुस्कान पसर गई कृतिका के चेहरे पर... ' कैसे हैं आप... मतलब... कैसे हो तुम?'' स्कन्द का चेहरा उसकी मुस्कुराहट से नहा उठा है। उसमें अब भी वही मासूमि‍यत और खिंचाव है।

 जाते हुए स्कंद को देखना भला लग रहा था कृतिका को। कुछ रिश्तों के तार अनजाने इतने जुड़े होते हैं कि वर्षों बाद भी मिलने से यूं लगता है कि उतनी ही आत्‍मीयता अब तक बरकरार है।

 उम्मीदों-आशंकाओं और निश्चय-अनिश्चय के बीच झूलते दिन एक-एक कर निकल रहे हैं। कृतिका पर एक खौफ तारी रहने रहने लगी है इन दि‍नों। रातें सुकूनवाली तो कभी नहीं रहीं पर नींद ने कभी उसे निराश नहीं किया। मगर इन दि‍नों नींद पर भी जैसे उन्हीं रातों का पहरा लग गया है। अजब सी छटपटाहट पूरे वजूद पर बनी रहती है। जरा सी नींद पड़ी कि‍ सपने में देखा, उसका कुछ खो गया है और वह लगातार तलाशते हुए इधर से उधर घूम रही है। कई लोग जाने-पहचाने से हैं उसके आसपास, मगर उसे जाने कि‍सकी तलाश है। बेचैन नि‍गाहें ठहरती है, एक चेहरे के ऊपर। वह लगातार उसकी ओर देख कर मुस्‍करा रहा है। वह नजरें फेर लेती है और आखि‍रकार थकी सी कि‍सी पानी पानी से भरे पुल के कि‍नारे बैठ गई है।    

 उसने देखा वही आदमी चुपचाप उसके बगल में आकर बैठ गया है और इशारों से उसे हाथ आगे करने के  कह रहा है। वह चकित सी दोनों हथेलि‍यों को उसके आगे  खोल देती है। वह चुपचाप उसकी हथेलि‍यों के ऊपर अपनी मुट्ठि‍यां रख देता है। जब वह हाथ हटाता है तो सैकड़ों जुगनू उसके हाथों से उड़ने लगते हैं और वह सब भूलकर आसमान की ओर देखने लगती है। 

 तभी नींद खुल जाती है उसकी। कौन था वो ? स्‍कंद ?

 वह अकबकाकर उठ बैठी है। चौंक कर बगल में देखा - शलभ गहरी नींद में सो रहा है। वह जाने क्‍या-क्‍या कल्‍पना कर रही है,  कि‍न अंदेशों में डूबी है। डाक्‍टर की बात उसके अंदर घर कर गई है कि‍ इस अनि‍श्चित दुनि‍या में कुछ भी संभव है। उसे याद आया अबतक बायोप्सी की रिपोर्ट आ चुकी होगी, रात देर तक वे ऑनलाइन रिपोर्ट देखने के लिए ओटीपी का इंतजार करते रहे थे।

 कृतिका उठकर सेंटर टेबल से शलभ की मोबाइल ले आती है... रिपोर्ट निगेटिव है।

 उसकी डबडबा आई आँखों में मोबाइल की इबारत धुंधली सी हो उठी है...

 वह खुश होकर शलभ को जगाना चाहती है, तभी उसके भीतर एक अजीब सी बेचैनी चिलक उठती है और अचानक ही उसके बढ़े हाथ ठिठक से जाते हैं। अभी-अभी नि‍कले सूरज के अरुणि‍म चेहरे को बादलों के एक जाने-पहचाने स्‍लेटी टुकड़े ने ढंक लि‍या है। बालकनी में टंगे पिंजरे की चि‍ड़ि‍या जोर-जोर से चीं-चीं कर रही है...

 

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