रूप-अरूप
रूप का तिलिस्म जब अरूप का सामना करे, तो बेचैनियां बढ़ जाती हैं...
Friday, April 6, 2018
Wednesday, April 4, 2018
Tuesday, March 27, 2018
Saturday, March 24, 2018
झारखंड में दहक रहा पलाश
पलाश से प्रेम है मुझे...बहुतों को होगा, क्योंकि यह है ही इतना खूबसूरत कि सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। अभी फाल्गुन-चैत के महीने में आप झारखंड में कहीं भी शहर से दूर निकल जाइए, पलाश के फूलों पर आपकी नजरें अटक जाएगी। आप मुरी से रांची आ रहे हों या रांची से जमशेदपुर के रास्ते में हो या फिर पलामू, गुमला हजारीबाग, कहीं, किसी तरफ भी निकल जाइए, जंगल की आग में खोकर रह जाइएगा।
चैत माह में वैसे भी प्रकृति अपने सुंदरतम रूप में होती है। उस पर टेसू का खिलना मंत्रमुग्ध करता है। सिंदूरी आभा से शोभित गांव-वन मोहित तो करते ही हैं। झारखंड के लोग तो शुरू से ही टेसू के रंग बनाकर होली का त्योहार मनाते आए हैं। यह हमारी झारखंडी संस्कृति का हिस्सा है। अब तो रंग और गुलाल भी बनने लगे हैं पलाश के फूल से।
बहरहाल, बात फिर पलाश की हो, तो बता दें कि हमारे झारखंड का राजकीय पुष्प ही पलाश है। हालांकि पलाश झारखंड ही नहीं, देश के विभिन्न हिस्सों में पाया जाता है। हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, बंगाल, उड़ीसा में ज्यादा पाया जाता है। राजस्थान और बंगाल में इसके पत्ते की बीड़ियां भी बनाई जाती है। हमारे झारखंड में भी टेसू के पत्तों से दोना-पत्तल बनाया जाता है और छाल से रेशे से रस्सियां बनती हैं। पलाश के अनगिनत औषधीय उपयोग हैं।
बंगाल में भी खूब पलाश पाए जाते हैं। नवाब सिराजुद्दौला और क्लाइव के बीच जहां युद्ध हुआ था, उसे प्लासी का युद्ध कहा जाता है। कोलकाता से कुछ दूर स्थित इस स्थान में बहुत पलाश पाया जाता था जिस कारण इसे प्लासी युद्ध कहा गया। अरावली और सतपुड़ा के पर्वत श्रृंखलाओं में जब पलाश खिलते हैं तो तो लगता है जंगल में आग लग गई। कहते हैं कि एक समय में विदेश से लोग रक्त पलाश देखने के लिए आते थे। कबीर ने कहा है-
कबीर गर्व न कीजिए, इस जोबन की आस।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास।।
कबीर ने पलाश की तुलना एक ऐसे सुंदर सजीले नवयुवक से की है, जो अपनी जवानी में सबको आकर्षित कर लेता है, परंतु बुढ़ापे में अकेला रह जाता है। टेसू के साथ भी कुछ ऐसा ही है। बसंत से ग्रीष्म ऋतु तक, जब तक टेसू में फूल व हरे-भरे पत्ते रहते हैं, उसे सभी निहारते हैं। मगर बाकी के आठ महीनों में कोई उसकी तरफ देखता भी नहीं।
पलाश के कई नाम हैं। हिंदी में 'टेसू', 'केसू', 'ढाक' और 'पलाश', बांग्ला में 'पलाश' या 'पोलाशी', तेलुुुुगू में 'पलासमू', उड़िया में 'पोरासू', पंजाबी में 'केशु', गुजराती में 'खांकरो', कन्नड़ में 'मुत्तुंकदणिडका', मराठी में 'पलस', उर्दू में 'पापड़ा', राजस्थानी में 'चौर', 'छोवरो', 'खांकरा', संस्कृत में 'किंशुक', 'ब्रह्मवृत', 'रक्त पुष्पक' और अंग्रेजी में 'लेम ऑफ फाॉरेस्ट' के नाम से जानते हैं।
'किंशुक' का अर्थ होता है शुक यानी तोते के जैसा लाल चोंच वाला फूल जबकि अंग्रेजी में 'लेम ऑफ फाॉरेस्ट' का अर्थ है जंगल की आग। दोनों ही बातें सत्य है। फूल पलाश का ऐसा होता है कि तोते की चोंच नजर आता है और जब जंगल में पलाश खिल जाते हैं तो वाकई लगता है आग लग गयी हो। पलाश के गुणों का बखान तो कवियों ने खूब किया है। खिले हुए लाल फूलों से भरे पलाश की तुलना संस्कृत लेखकोंं ने युद्ध भूमि से की है। महाकवि कालिदास लिखते हैं-'' वसंत काल में पवन के झोंको से हिलती हुई पलाश की शाखाएं वन की ज्वाला के समान लग रही थीं और इनसे ढकी हुई धरती ऐसी लग रही थी, मानो लाल साड़ी में सजी हुई कोई नववधु हो।''
पलाश के वृक्ष में फरवरी से कोयले जैसी काले रंग के कलियों के गुच्छे दिखाई देने लगते हैं। मार्च के अंत तक पूरा वृक्ष लाल-नारंगी फूलों से लद जाता है। यह दस से 15 फूट ऊंचा वृक्ष है। इसमें एक डंटल में तीन पत्ते होते हैं। इसलिए इसे 'ढाक के तीन पात' कहा जाता है, जो मुहावरे के रूप में ज्यादा प्रचलित है। इस संबध में एक कथा है कि एक बार पार्वती जी ने तीनों आदिदेवों को शाप दे दिया। उनके शाप से ब्रह्मा जी पलाश, विष्णु जी पीपलऔर शिव जी बरगद बन गए। इसलिए पलाश को ब्रह्म वृक्ष भी कहा जाता है।
पलाश को पवित्र माना गया है। इसकी लकड़ी का हवन में उपयोग किया जाता है इसलिए इसे याज्ञिक कहते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार यज्ञोपवित संस्कार में ब्रह़मचारी काे पलाश की लकड़ी का दंड धारण करना चाहिए। मगर आश्चर्य है कि पलाश के फूलों से पूजा प्रचलित नहीं है। शायद इसलिए कि यह गंधहीन होता है। मगर आंध्रप्रदेश के तेलंगाना में शिवरात्रि के दिन शिव को पलाश के फूल अर्पित करने की परंपरा है।
पुराणों में पलाश की कथा है कि भगवान शिव और पार्वती का एकांत भंग करने के कारण अग्नि देव को शाप ग्रस्त होकर पृथ्वी पर पलाश वृक्ष के रूप में जन्म लेना पड़ा। महर्षि बाल्मिकी ने भी रामायण में पलाश का उल्लेख करते हुए लिखा है कि विंध्याचल पर्वत के निकट एक वन में पलाश के फूलों को देखकर मोहित हो जाते हैं। वे सीता से कहते हैं- 'हे सीते', पलाश के वृक्षों ने फूलों की माला पहन ली। अब वसंत आ गया। पलाश को हिंदू धर्म के साथ-साथ बौद्ध् भी पवित्र मानते हैं। ऋगवेद में उल्लेख है कि पलाश के वृक्ष में ब्रहमा, विष्णु और महेश का निवास है। अत: ग्रह शांति के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है।
लाल और नारंगी पलाश के अलावा सफेद और पीला पलाश भी पाया जाता है। सफेद पुष्प वाला पलाश औषधीय दृष्टिकोण से ज्यादा उपयोगी है। लता पलाश भी पायाा जाता है।
क्या यह शुक है - अर्थात किंशुक के टेढ़े-मेढ़े वृक्ष पर कचपचिया (बैब्लर) और शकरखोरा (सनबर्ड्) जैसे पक्षी आकर बैठते हैं, जिससे परागकण की प्रक्रिया संपन्न होती है। मगर मैंने पलाश पर तोते बैठे हुए कई बार देखे हैं। जब पलाश के फूल झरकर धरती को नारंगी रंग से भर देते हैं तो लगता है कि अंगारे दहक रहे हैं जमीन पर।
अगर पलाश के वन देखने तो तो अभी उपयुक्त समय है कि झारखंड आए जाए और शहर नहीं, गांवों का रूख किया जाए क्योंकि कई घर-आंगन के पास भी खिलते हैं पलाश। पलाश जिनके मन में खिलता है वह ये पंक्तियां जरूर मन ही मन दुहारते होंगे- '' जब-जब मेरे घर आना तुम, फूल पलाश के ले आना।''
Friday, March 23, 2018
झारखंड के भांट या घांटो फूल
इस फूल को बचपन से देखा है मगर नाम नहीं जानती थी। इसकी खुश्ाबू ऐसी है कि आपके कदम जरूर ठिठक जाएंगे।
फागुन-चैत के मौसम में आप झारखंड में आसपास कहीं निकल जाइए, ढेरों सफेद फूल की झाड़ियां मिल जाएगी। इसे भांट या घांटो फूल कहते हैं।
पांच पंखुड़ियों वाला सफेद फूल, जिसके मूल में गुलाबी रंग होता है, जिससे भीनी-भीनी खुश्बू आती है। यह जंगली फूल है, मगर औषधीय पौधा है। डायरिया, लीवर डिसआर्डर, पेट में कीड़े मारने में, त्वचा संबंधी समस्या और पेट दर्द, सांप काट लेने आदि में काम आता है।
शायद कोई और भी नाम हो जो मुझे नहीं पता ....
Wednesday, March 21, 2018
आ जाओ गौरैया
एक दिन पहले साल में रसम की तरह फिर से गाैरैया दिवस की के तौर पर गायब होते प्यारे पक्षी गौरैया के लिए फिक्र जता ली गई। इसके बाद अब हम सब अपनी-अपनी रोजमर्रा की जिंदगी को सुविधाजनक बनाने में लग जाएंगे। उसमें गौरैया की याद भी शायद नहीं हो।
पिछले दिनों मैं नानी के गांव गई । शहरों में रोज बदलाव हो रहा हैं। बड़ी-बड़ी इमारतों की सैकड़ों-हजारों की आबादी के लिए कमरे हैं, दरवाजे-खिड़कियां हैं, बालकनी भी है। बच्चों के खेलने-कूदने और बड़ों के टहलने के लिए सामूहिक पार्क है। लेकिन जिसे हमारे यहां घर के रूप में जानते हैं, उसके लिए आंगन और खुली जगह के नाम पर कुछ नहीं है। यों अब तो गांव भी बहुत तेजी से बदलने लगे हैं। लेकिन संयोग से नानी के घर पहले की तरह अब भी आंगन है। हल्की ठंढ थी तो मैं और मामी आंगन में बैठ कर वहीं बातें करने लगे। पास में एक परात में पानी भरकर रखा हुआ था। कुछ देर में चार गौरैया आई और उस पानी में नहाने लगी। बिल्कुल हमारे पास। मैं बेहद खुश होकर उन्हें देखती रही। उस वक्त कैमरा नहीं था मेरे पास और मोबाइल भी दूर रखा था। मुझे लगा, उठूंगी तो ये भाग जाएंगी। फिर इन्हें नहाते देखने का सुख भी जाता रहेगा।
वो दोनों मजे से देर तक नहाती रहीं। फिर बाहर निकलकर बदन झाड़ा आैर आंगन में गिरा दाना चुगने लगी। मैंने पूछा मामी से - गौरैया रोज आती हैं क्या? मामी बोलीं- इनको आदत हो गई है यहां रहने की। अपने मन से आती-जाती रहती है। मैं चावल चुनती हूं तो मेरे पैरों के पास से दाना चुनकर खाती है। भागती नहीं। बड़ा अच्छा लगता है इन्हें अपने आस-पास पाकर। अपने बच्चों सी होती है गौरैया। इनके होने से घर भरा-भरा लगता है।
मुझे बेहद अच्छा लगा देख-जानकर , दरअसल, इन दिनों मेरे घर की छत पर गौरया नहीं उतरती। हां, बहुत सारे कबूतर और कौवे आते हैं, गौरैयों ने आना छोड़ दिया। हालांकि मैं रोज दाना-पानी देती हूं हर सुबह। छत पर जाते ही सैकड़ों कबूतर उतरते हैं मगर गौरैया नहीं।
ध्यान आया कि वाकई अब गौरेयों की संख्या काफी कम हाे गई है, इसलिए गौरैया को 'रेड लिस्ट' में डाला गया है और प्रत्येक वर्ष 20 मार्च को 'विश्व गौरैया दिवस' मनाया जाने लगा है। लेकिन अफसोस है कि इस एक दिन के बाद गौरैयों के सवाल को एक तरह से भुला दिया जाता है। जबिक हमारे साथ गौरैयों का जो जीवन रहा है, उसके नाते यह हमें हमेशा याद रखने की जरूरत है।
पक्षी विज्ञानी का कहना है कि गौरैये की आबादी में साठ से अस्सी फीसदी की कमी आई है। अगर हमें यह आंकड़ा न भी पता हो तो अपने आसपास देखकर जान लेंगे कि नहीं दिखती हैं अब घर-आंगन में रोज चहचहाने वाली गौरैया। अगर इनके संरक्षण के सही प्रयास नहीं किए गए तो गौरैया बीते कल की बात हो जाएगी। वैसे भी शहरी बच्चों को तो नजर नहीं ही आती है गौरैया। गांव में भी कमी हुई है गौरैयों की संख्या में। बीते कल की बात करें तो हरेक घर-आंगन में आती थी गौरैया। कई घरों में घोसलें बनाकर रहती थी।
पक्षी विज्ञानी का कहना है कि गौरैये की आबादी में साठ से अस्सी फीसदी की कमी आई है। अगर हमें यह आंकड़ा न भी पता हो तो अपने आसपास देखकर जान लेंगे कि नहीं दिखती हैं अब घर-आंगन में रोज चहचहाने वाली गौरैया। अगर इनके संरक्षण के सही प्रयास नहीं किए गए तो गौरैया बीते कल की बात हो जाएगी। वैसे भी शहरी बच्चों को तो नजर नहीं ही आती है गौरैया। गांव में भी कमी हुई है गौरैयों की संख्या में। बीते कल की बात करें तो हरेक घर-आंगन में आती थी गौरैया। कई घरों में घोसलें बनाकर रहती थी।
विज्ञान और विकास ने हमारे सामने नई समस्याएं भी उत्पन्न की हैं। पक्के घरों ने उनके घोंसले छीन लिए तो तेजी से कटते पेड़-पौधे ने गौरैयों का ठिकाना नहीं रहने दिया। कीटनाशकों के इस्तेमाल ने गौरैयों के खाने के अनाज में कमी कर दी तो मोबाईल फोन और टॉवरों की सूक्ष्म तरंगों ने इनके जीवन पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया। यह समस्या केवल हमारे देश की नहीं, पूरे विश्व में संकट है और हमें मिलकर गौरैयों को बचाना होगा।
बेशक, अब लोग थोड़े जागरूक हुए हैं और इन्हें बचाने के लिए अभियान भी शुरू हो गए हैं। कई गैर सरकारी संस्थानें अपने क्षेत्र में मुहिम चला रही है। मगर जब तक हम खुद जागरूक नहीं होंगे, इन अभियानों का कुछ ठोस हसािल नहीं होगा। हमें यह महसूस करने की जरूरत है कि प्रकृति से हमारे देखते-देखते एक ऐसा जीव गायब होने की कगार में है जो हमारे बीच का है और बेहद प्रिय रहा है। हमारी बुजुर्ग पीढियां हमें सिखाती थी कि घर में गौरैया का बसना इस बात का सूचक है कि हमारे पास धन-धान्य की कमी नहीं। हम परंपरा और संस्कृति से जुड़ी बात कहते हैं, अपने बच्चों को ऐसे सिखाते हैं तो वह तीव्र असर करती है। इसलिए दशक भर पहले के बच्चे या बड़े, कभी घोंसले को नहीं उजाड़ते थे।
हमें वापस बुलाना होगा हमें गौरैया को। अपने घर-आंगन में थोड़ी जगह देनी होगी और सुरक्षा का ध्यान रखना होगा। दाना-पानी के साथ प्राकृतिक वातावरण भी देना होगा। गौरैया मनुष्य की हमसफर रही है। इनकी चहचहाहट से हमारा घर, आंगन, छत और मन गुलजार रहे, इससे ज्यादा खूबसूरत बात क्या होगी।
Tuesday, March 20, 2018
आदिवासी जीवन का सार है सरहुल
त्योहार उल्लास का प्रतीक है। एक ऐसा अवसर जिसमें परिवार के अलावा संगी-साथी और कई बार अनजाने लोगों के साथ मिलकर सौहार्दपूर्वक खुशी मनाई जाती है, जीवन का सुख लिया जाता है दैनिक कामों के अलग हटकर। और सरहुल एक ऐसा त्योहार है जिसमें केवल उत्साह है, उमंग है और नृत्य है। हम सब जानते हैं कि प्रकृति पूजक होते हैं आदिवासी। उनके सभी मुख्य त्योहार प्रकृति से ही जुड़े हैं क्योंकि प्रकृति ही उनके जीवन का आधार है अौर सरहुल शब्द का अर्थ ही है 'साल की पूजा'। यह पर्व नए वर्ष की शुरूआत का प्रतीक है क्योंकि यह चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। हिंदू नवसंवत्सर की शुरूआत भी चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को होती है और इस दिन से नए वर्ष का प्रारंभ होता है।
आदिवासी सरहुल के बाद ही नए फसल का उपयोग करते हैं क्योंकि पाहन सात प्रकार की सब्जी और मीठी रोटी पहले धरती मां को अर्पित करते हैं और उसे ही प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। सरहुल झारखंड ही नहीं, बंगाल, उड़ीसा और मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में पूरी भव्यता के साथ मनाया जाता है।
चैत माह में पूरे झारखंड की सुंदरता देखने योग्य होती है। सबसे पहले साल के सभी पेड़ पर्ण विहीन हो जाते हैं और फूल के मंजर आते हैं। फिर सखुआ के फूलों की गंध दूर-दूर तक फैल जाती है। अब पेड़ों में गुलाबी-लाल पत्ते आते हैं। इसी समय जंगल में पलाश के फूल भी भर जाते हैं। आम के पेड़ पर मंजरियां खिलती हैं और मधुमक्खियां फूलों का रस जमा करती हैं। पर इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण है साल या सखुआ का वृक्ष।
सखुआ के पेड़ के महत्व के पीछे कई बातें और कहानियां है जो हमें बताती है कि आदिवासी जीवन में इस पेड़ की इतनी अहमियत क्यों हैं। कहा जाता है कि साल वृक्ष की आयु बहुत अधिक होती है। ' हजार साल खड़ा, हजार साल पड़ा हजार साल सड़ा'। इसके पत्ते से दोना-पत्तल बनता है। सखुआ के गोंद से धुवन बनाया जाता है जो पूजा और पर्यावरण शुद्ध करने के काम आता है। इनकी लकड़ियां जलावन के काम आती है और सखुआ लकड़ी से बने समान वर्षों तक टिकते हैं।
यह उपयोग तो है ही और दूसरी वजह है सखुआ को लेकर लोकजीवन में प्रचलित मौखिक कहानियां। मुंडा कहानियां यह बताती है कि मुंडाओं का अन्य जाति से भयंकर युद्ध हुआ। इसमें अनेक लोग शहीद हो गए। उनको मसना में गाड़ दिया गया और वहीं कुछ सखुआ के पौधे उग आए। उन्होंने मान लिया कि यह हमारे शहीद ही हैं जो पेड़ और फूल-पत्ते बनकर आए हैं। शहीदों की याद में सरहुल मनाना शुरू किया।
एक दूसरी कथा है कि मुंडाओं और दिकुओं में अचानक युद्ध हुआ। सिंगबोंगा के आदेश पर मुंडाओं ने सखुआ के फूल-पत्तों से अपने को सजा लिया ताकि आसानी से दिकुओं और मुंडाओं की पहचान हो सके। इस युद्ध में मुंडा विजयी हो गए। इसी की स्मृति में सरना स्थल में सखुआ कि टहनियां लगाई जाती हैं। ऐसी ही एक कथा है कि जब विदेशियों से मुंडाओं का युद्ध हो रहा था तो वे लोग सिंगबोंगा के कहने पर साल के पत्तों में छुप गए और विदेशियों को उनका कुछ पता नहीं चला। फलस्वरूप मुंडाओं की जीत हुई।
चौथी कथा महाभारत से है। मुंडा कौरवों की तरफ से युद्ध कर रहे थे। अनेक मुंडा योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। इनकी लाश को साल के पत्तों से ढककर छोड़ दिया गया, ताकि युद्ध की समाप्ति के बाद उनका अंतिम संस्कार किया जा सके। युद्ध समाप्ति के बाद पाया गया कि उनकी लाशें सड़ी नहीं। तब से सरहुल मनाया जाने लगा।
एक और मुंडारी लोककथा है कि सरहुल धरती की बेटी बिंदी के मृत्युलोक से वापसी का त्योहार है। धरती की इकलौती बेटी एक दिन नहाने गई और वहीं से गायब हो गई। पृथ्वी दुखी रहने लगी और धरती में पतझड़ का मौसम आ गया। बहुत खेजबीन के बाद पता लगा कि बिंदी पाताल में है। बिंदी को वापस भेजने के दूतों के अनुरोध पर पाताल के राजा ने कहा- कि एक बार यहां आने के बाद कोई नहीं लौटता। बहुत अनुरोध के बाद पाताल के राजा ने आधो समय पृथ्वी पर रहने की अनुमति दी। तब से जब बिंदी वापस आती है तो धरती हरी-भरी हो जाती है और हरियाली छा जाती है।
जो भी हो, अब तो प्रकृति पूजा के साथ-साथ शोभायात्रा भी निकाली जाती है सरहुल में। यह त्योहर पूरे परिवार के एकत्र होने का है। महीनों से तैयारियां चलती है। घर की साफ-सफाई से लेकर नए कपडों की खरीददारी तक। लाल पाड़ की सफेद साड़ी पहन, माथे पर सरई फूल खोंस कर जब युवक-युवतियां ढोल-नगाड़े और मांदर की थाप पर सामुहिक नृत्य करते हैं, तो वह दृश्य स्मरणीय हो जाता है। कोल्हान में इस पर्व को ' बा पोरोब' कहा जाता है, जिसका अर्थ फूलों का त्योहार होता है।
प्रकृति तो सरहुल के आने का निमंत्रण देती ही है, सरहुल के गीतों में भी बहुत प्यारे ढंग से प्रकृति की आगवानी की जाती है।
'' आओ सखुआ के फूल
आओ उतर आओ
आाओ नई-नई कोंपले
आओ उतर आओ ''
पूजा के एक दिन पहले पाहन राजा और पाईनभोरा उपवास कर पंजरी मिट्टी पूजा के लिए लाते है। गांव के नदी या तालाब से नए घड़े में पानी भर कर पाईनभोरा सरना स्थल में रखता है। दूसरे दिन पाहन राजा, पाईनभोरा और और ग्रामीण उपवास कर अपने-अपने घर में पूजा कर के सरना स्थल पर लोटा से पानी लेकर जाते हैं। फिर पूजा के बाद अच्छी खेती और गांव-समाज की खुशहाली के लिए प्रार्थना की जाती है। तीसरे दिन फूलखोंसी की जाती है। मान्यता है कि सरई फूल को घर के छप्पर पर लगाने से सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है।
सच है कि आदिवासी जहां रहते हैं, पर्यावरण को बचाने का संदेश देते हैं। अपने रहन-सहन और त्योहारों के माध्यम से बार-बार बताते हैं कि हम प्रकृति में बने रहे, प्रकृति से जुड़े रहे। आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ वातावरण और शुद्ध पर्यावरण दे सकें हम इसलिए जरूरी है कि हम आदिवासियों की मौलिेक मनोवृति को अपना लें।
Monday, March 19, 2018
स्वर्णलता का सत्य...
अक्सर लताओं की तुलना स्त्री से की जाती है। पर क्या आप जानते हैं कि यह पीली लता जो आपको आसपास किसी बेर , कीकर या बबूल पर लिपटी हुई दिखती है, यह कितनी ख़तरनाक होती है उस पेड़ के लिए ?
इसका नाम आकाशबेल, अमरबेल या आकाशवल्लरी, आलोकलता है। स्वर्णलता भी इसे ही कहते हैं। सुनने में बड़े मोहक नाम हैं सभी, परंतु यह जिस पेड़ या पौधे से लिपटती है...उसी को धीरे-धीरे ख़त्म कर देती है। अपना आहार उसी पौधे से चूस लेती है। इसे आकाशबेल इसलिए कहते हैं क्योंकि अमरबेल मिट्टी में नहीं होती।
बेल पर शरद् ऋतु में कर्णफूल की तरह गुच्छों में सफेद फूल लगते हैं। बीज राई के समान हलके पीले रंग के होते हैं। यह बेल वसन्त और ग्रीष्म ऋतु में बहुत बढ़ती है और शीतकाल में सूख जाती है। हालाँकि आयुर्वेद में बहुत उपयोगी लता मानी जाती है। कई बीमारियों की औषधियां इससे तैयार होती है।
मगर है न कितनी ख़तरनाक लता। अब किसी कविता में नारी के बिम्ब के रूप में इसे प्रयोग करने से पहले एक बार सोचिएगा।
Sunday, March 18, 2018
चैत आ गया .....
चैत आ गया फिर से..केवल आया ही नहीं, पूर्ण यौवन पा इठला रही है हवा। कोमल कुसुम की ललछौहीं पत्तियां मोह रही मन को। रक्तपलाश से दहक रहा गांव-जंगल। सुबह-सवेरे पलाश की नारंगी चादर बिछी है धरती पर। पीले महुए से पटी गई है जमीन भोर में।
मंद-मंद बहती है बयार सुबह सवेरे चैत में। खेतों में गेहूं की बालियां जवान हो गई है। दोपहर की हवा सर्र.सर्र कर गेहूं की बालियों को हिलाती है। जब भांट के फूलों की मादक गंध हवा में घुलमिल जाए, जब नीम के हल्के बैंगनी फूल खिल-खिल जाए, जब केंद के फल पक जाए, अरहर के दाने घर के आंगन में आ जाए और जब कोयल के साथ-साथ ढेंचुआ भी पेड़ की फुनगियों में बैठा दिख जाए तो समझना चैत आ गया।
सुबह शाम हल्की ठंड और दिन गरमाया सा लगे, मंदिरों और बरगद के नीचे से जब चैता की स्वरलहरियां कानों से टकराए..'' रसे-रसे बहे जब पवनमा/ हो राम बीतल फगुनमा..तो समझिए चैत आ गया।
चैत माह चित्त को सुकून देता है। फागुन जिया में टीस उठाता है, पर चैत जैसे सांझ को बैलगाड़ी में टुनटुन करती घंटियों के साथ घर लौटने का अहसास है। रबी फसल से लदकर बैलगाड़ी जब घर आए, अंगना में गिरे पत्तों को हवा बुहार ले जाए, रमुआ का बेटा जब गलियों में साईकिल का चक्का घुमाए और बच्चे राहड़ के दाने पीट-पीट छिनगाए तो समझना चैत आ गया।
Friday, March 16, 2018
असली दुःख....
तुम दुःखी हो !
नहीं लगता मुझे बिल्कुल ऐसा
ईश्वर का दिया सब है
पास तुम्हारे
तुमने जो अर्जित किया
उसका भी सुख भोग रहे हो
नहीं लगता मुझे बिल्कुल ऐसा
ईश्वर का दिया सब है
पास तुम्हारे
तुमने जो अर्जित किया
उसका भी सुख भोग रहे हो
दुःख क्या होता है
दरअसल तुमने जाना नहीं
देखो अपने आसपास किसी
तन-धन से लाचार वृद्ध को
और महसूस करो दर्द उसका
दरअसल तुमने जाना नहीं
देखो अपने आसपास किसी
तन-धन से लाचार वृद्ध को
और महसूस करो दर्द उसका
ऐसी पीड़ा जो तन से अधिक
मन को व्यथित करे
और उसे प्रकट करने के
अधिकार से वंचित हो जाओ
तब दुःख की गहराई का
भान होगा तुम्हें
मन को व्यथित करे
और उसे प्रकट करने के
अधिकार से वंचित हो जाओ
तब दुःख की गहराई का
भान होगा तुम्हें
मगर, ये भी जान लो
मन के भार सह भी लोगे
तन जब भार बन जाए
हाड़-माँस का पुतला बन
पड़ जाओगे बिस्तर पर
इससे आगे सब दुःख छोटे लगेंगे
मन के भार सह भी लोगे
तन जब भार बन जाए
हाड़-माँस का पुतला बन
पड़ जाओगे बिस्तर पर
इससे आगे सब दुःख छोटे लगेंगे
देखोगे तुम अपनों की
उपेक्षा भरी दृष्टि
पाओगे कि बाँहों में लिए घूमते थे जिनको
उनके पास
दो घड़ी का समय नहीं तुम्हारे लिए
उपेक्षा भरी दृष्टि
पाओगे कि बाँहों में लिए घूमते थे जिनको
उनके पास
दो घड़ी का समय नहीं तुम्हारे लिए
जब मनचाहा खाना चाहोगे
सकुचाते हुए कहोगे किसी दिन
अपनी ख़्वाहिश, और बदले में
झिड़कियाँ सुनोगे
चटोरी जीभ के लिए
तब सचमुच अपनी स्वाद ग्रंथियों को
ओछा ठहराओगे
सकुचाते हुए कहोगे किसी दिन
अपनी ख़्वाहिश, और बदले में
झिड़कियाँ सुनोगे
चटोरी जीभ के लिए
तब सचमुच अपनी स्वाद ग्रंथियों को
ओछा ठहराओगे
जीवन भर
पूरी ठसक के साथ जिए
जानते हुए कि तिरस्कार मिलेगा
परंतु कहोगे
अपनी छोटी सी इच्छा, औरों के आगे
इस उम्मीद में
कि सामने सबके बात रख ली जाएगी
पूरी ठसक के साथ जिए
जानते हुए कि तिरस्कार मिलेगा
परंतु कहोगे
अपनी छोटी सी इच्छा, औरों के आगे
इस उम्मीद में
कि सामने सबके बात रख ली जाएगी
फिर ख़ुद ही सहमी आँखो से देखोगे
कि कहीं दुत्कार ना दे
तुम्हारी अपनी ही संतान
पोसा है जीवन भर
चेहरे के भाव से ही समझ जाओगे
कि क्या सुनना है अब
कि कहीं दुत्कार ना दे
तुम्हारी अपनी ही संतान
पोसा है जीवन भर
चेहरे के भाव से ही समझ जाओगे
कि क्या सुनना है अब
फेर लोगे तुरंत निगाहें दूसरी ओर
चुपके से
पोंछोगे छलके आँसू, छुपाओगे ख़ुद से
नाटक करोगे हँसने का
और जो दुःख का सागर सीने में
उमड़ेगा तब समझोगे
कि असली दुःख क्या होता है।
चुपके से
पोंछोगे छलके आँसू, छुपाओगे ख़ुद से
नाटक करोगे हँसने का
और जो दुःख का सागर सीने में
उमड़ेगा तब समझोगे
कि असली दुःख क्या होता है।
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