Thursday, February 21, 2008

अकेलेपन का धुंध


जब भी
बि‍खरती है
मेरे इर्द-र्गि‍द
अकेलेपन की गहरी धुंध
तुम कि‍सी बहाने
अपनी यादों की दस्तक दे जाते हो
और घसीट लेते हो
जबरन मुझको
अपने संग-संग
यादों की गलि‍यों में
भटकने के लि‍ए।

और मैं जो करती रहती हूं
महीनों कोशि‍श
तुम्हें भुलाने की
वह सारा सब
एक झटके में ध्वस्त हो जाता है........
मेरे इर्द-र्गि‍द छाया
अकेलेपन का धुंध
थोड़ा और गहराता जाता है।

2 comments:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन गुनाह किसे कहते हैं ? मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

ओंकारनाथ मिश्र said...

सुन्दर रचना.