अब वापस लेह शहर की ओर। हेमिस को पीछे छोड़ते ही आगे एक पुल मिला। वहां आगुंतको के लिए धन्यवाद लिखा था। पुल के नीचे मटमैली सिन्धु नदी बह रही थी। बौद्ध धर्म के प्रतीक लाल-पीले-नीले पताके फहरा रहे थे। पास ही कुछ पुराने मिट्टी और पत्थरों से बने घर थे जिनके लकड़ी के दरवाजे खुले हुए थे। हमने कुछ तस्वीरें लीं। मन हुआ एक बार फिर सिंधुु के जल को स्पर्श कर लें। पर मन को मन ही मन समझाकर सिन्धु के कलकल को महसूसते हुए वापस लौट चले कि अब आज भर इस सुंदर संसार का हिस्सा बनना है। भर लो आँखों में खूबसूरती।
हमारे साथ-साथ सिन्धु भी बलखाती चल रही थी कि मेरी निगाह दूर एक मठ पर पड़ी। जिम्मी से पूछा-कौन सा मठ है। उसने बताया स्तकना। मुझे वह इतना खूबसूरत लगा कि वहीं गाड़ी सड़क किनारे रोक दी। जाने की इच्छा को त्यागना पड़ा ,क्योंकि कई किलोमीटर अंदर जाना पड़ता। हालांकि लेह से इसकी दूरी मात्र 25 किमी दक्षिण में है। स्तकना यानी (टाइगर नाक) की आकार की एक पहाड़ी पर स्थापित एक बौद्ध मठ है।
स्तकना मठ एक सुनसान चट्टान पर 60 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इसका निर्माण लगभग 1580 में महान विद्वान संत चोसजे जम्यांग पालकर ने किया था। जिम्मी ने बताया कि इस मठ में बहुत सारे चित्रों और कलाकृतियों का संग्रह किया गया है। इसकी देखभाल तिब्बती बौद्ध धर्म के द्रुकपा संप्रदाय के बौद्ध भिक्षुओं द्वारा की जाती है। यह मठ आज भी 15वीं शताब्दी की परंपरा और संस्कृति को दर्शाता है।
हमारे साथ-साथ सिन्धु भी बलखाती चल रही थी कि मेरी निगाह दूर एक मठ पर पड़ी। जिम्मी से पूछा-कौन सा मठ है। उसने बताया स्तकना। मुझे वह इतना खूबसूरत लगा कि वहीं गाड़ी सड़क किनारे रोक दी। जाने की इच्छा को त्यागना पड़ा ,क्योंकि कई किलोमीटर अंदर जाना पड़ता। हालांकि लेह से इसकी दूरी मात्र 25 किमी दक्षिण में है। स्तकना यानी (टाइगर नाक) की आकार की एक पहाड़ी पर स्थापित एक बौद्ध मठ है।
स्तकना मठ एक सुनसान चट्टान पर 60 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इसका निर्माण लगभग 1580 में महान विद्वान संत चोसजे जम्यांग पालकर ने किया था। जिम्मी ने बताया कि इस मठ में बहुत सारे चित्रों और कलाकृतियों का संग्रह किया गया है। इसकी देखभाल तिब्बती बौद्ध धर्म के द्रुकपा संप्रदाय के बौद्ध भिक्षुओं द्वारा की जाती है। यह मठ आज भी 15वीं शताब्दी की परंपरा और संस्कृति को दर्शाता है।
शाम होने से पहले सिन्धु का किनारा, गोल-गोल पत्थर और पीछे नदी के कलकल के साथ दूर स्तकना मठ। नदी के दोनों पाट के किनारे हरे-हरे पेड़। उसके ऊपर आसमान में सफेद बादल। नजर हटाना मुश्किल है वाकई। मैं बहुत देर वहीं ठहरी रही। मन नहीं हो रहा था कि नजर हटाऊँ वहाँ से। सिंधु से जुड़ाव एक बार फिर मन में उछाल मारने लगा। सिंधु के माहपाश में बंधी कलकल धारा के किनारे और बीच में उगे पौधों पर नजर ठहरी है। दूर पहाड़ी पर ऊपर की ओर जाती सीढ़ियां मन को लुभा रही। लगता है पैदल-पैदल सिंंधु की लहरों को महसूसते ऊपर गोम्पा में पहुंच जाऊं तो कितना मोहक अनुभव हाेगा। मठ के नीचे बस्ती आबाद है। कई गोम्पा नजर आ रहे। सिंधु जीवनरेखा है लेह के लिए, सिंधु की यादें अनमोल है मेरे लिए और स्तकना मठ देखने की चाहत जिंदा है, कि अगली बार जल्दी जाऊं।
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