शाम
पिघलता सोना या नीला समंदर
मुँडेर पर उग आया है
इंतज़ार का बिरवा
मेरे बाद भी वो जगह ख़ाली नहीं हुई
फूल गुलैची के
अब भी महकते हैं सरे शाम
खंडहर हो गया वो घर
वीरान है वो गलियाँ
कोई नहीं आता गुलाबी दुप्पटा संभाले
बेचैन होकर छत पर
गली में नज़रें बचाकर कोई नहीं देखता
अब मुँडेर की तरफ़
बस शाम की ख़ूबसूरती अब भी वही है
सूने से छत पर
आज भी उतरती है शाम
अपना सुनहला दामन पसारे ....।
तस्वीर...कुछ रोज़ पहले की
2 comments:
ऐसी अनुभूति रिक्तता-बोध से मन को भारी कर देती है.
शाम भी वही ... मंज़र भी वही ... शायद देखने वाली नज़रें बदल गयीं ... ख़ूबसूरत है फ़ोटो ...
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