दीपावली आते ही मेरे मन में असीम उमंग भर जाती है जो पूरे वर्ष भर में कभी महसूस नहीं होती। यह बचपन की यादों का ही असर है जो अब तक उर्जावान रखता है हमें। दुर्गा पूजा के समाप्त होते ही हमारे मन में एक अबूझ सी छटपटाहट भरती कि, दीवाली आ रहा है। हमें ये करना है..वो करना है।
मुझे याद है सबसे पहले गांव में हम घरौंदे बनाने की तैयारी में लग जाते थे। ठीक दशहरा के बाद। स्कूल से घर लौटते ही परिवार और आसपास के सारे बच्चे कुदाल खुरपी और बोरा लेकर खेतों की ओर निकल जाते। नदी किनारे की चिकनी मिट्टी इकट्ठा करते घरौंदे के लिए। उस वक्त खेतों में कच्ची मूंगफलियां लगी होती। हमलोग उसे भी निकाल कर खाते और मिट्टी ढोकर घर लाते।
उस समय सारे घरवाले अपने काम और सफाई में व्यस्त रहते। हमारा काम हमें ही करना होता था। दो तीन दिनों तक मिट्टी, ईंटे और पटरे यानी लकड़ी के तख्तों का इंतजाम करते। अब होती आंगन के एक कोने में घरौंदा, जिसे घरकुंदवा कहते थे हम...उसे बनाने की तैयारी। बच्चों में होड़ लगती कि किसका घर सबसे सुंदर बनेगा। हम बाकायदा पूरा घर बनाते, बाहर आंगन। ईंटे रखकर उस पर मिट्टी चढ़ाते। लकड़ी के तख्ते से छत बनाते। कई बार एकमंजिला तो कई बार दो मंजिला। ये सारा काम हमलोग स्कूल से लौटने के बाद करते। उसकी लिपाई-पुताई का काम धनतेरस के दिन तक पूरा कर लिया जाता।
उसी दिन गांव का कुम्हार बड़े से दौरे में दिया और कुम्हारिन अपने दौरे में कुल्हिया-चुकिया और ग्वालिन लेकर आती। पापा अांगन में बैठकर दिए गिनवाते और मैं कुल्हिया-चुकिया, जांता, सिल-लोढ़ा, चूल्हा, चकला-बेलना यानी रसोई के सारे बर्तन और घोड़े-हाथी, और ग्वालिन, एक लड़की की मूर्ति जिसके हाथ में दिए बने होते, सारे इकठ्ठा कर लेती।
मेरी कोशिश होती कि जितने भी सामान कुम्हार ले आए, उसे न लौटाऊं। कई बार पापा खीजते, इतने सारे दिए और खिलौनों का करोगी क्या। पर मैं नहीं मानती। कहती, पापा मुझे सारे दिए जलाने है। कुम्हार भी कहता, ले लो न बाबू, बिटिया को पसंद है। मैं भी अब बचे हुए सामान कहां लौटा कर ले जाऊंगा। अंतत: मेरी जिद पूरी होती।
धनतेरस के दिन शाम को हम बाजार जाते। रौशनी से नहाया बाजार , बर्तनों के ढेर और लोगों की भीड़। उस दिन मुझे बड़ा अजूबा लगता। साधारणत: उस वक्त गांव की महिलाएं बाजार नहीं जाती थी, मगर उस दिन देखती सभी लोग, मां, दादी, चाची और पड़ोस की महिलाएं खुद जाती और पसंद की चीजें खरीद लाती। मुझे याद है दीवाली के आसपास हर वर्ष वहां नौटंकी वाले आते थे। साथ ही मीना बाजार भी लगता था। देर रात सारे काम खत्म कर पूरा का पूरा मुहल्ला नौटंकी देखते जाता था। हम बच्चे बहुत हैरानी से सब देखते और मां-चाचियों की बातें खत्म ही न होती थी।
3 comments:
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-10-2016) के चर्चा मंच "आ गयी दीपावली" {चर्चा अंक- 2511} पर भी होगी!
दीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दीप पर्व मुबारक !
वाह, ऐसे दिन भी थे
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