दीपावली की दूसरी सुबह..यानी सोहराई का दिन। सबसे पहले हमें उठकर घरौंदे से कुल्हिया-चुकिया निकालना होता जिसमें रात खील-बताशे भर के रखे थे। उसे भाइयों को देती। हम बहनों को खाना नहीं था।
हम उठकर देखते तो पता लगता है गौशाले की सफाई हो चुकी है। गोबर से लीपा जा चुका है। आंगन में लकड़ी के चूल्हे पर बहुत मात्रा में अनाज पक रहा है। पांच तरह के अनाज मिलकर बनते थे जिसे पख्या कहा जाता था! देखते ही दादी का आदेश होता...जाओ चौक पूर आओ। यानी रंगोली बनाओ। तब हम दीवाली के दूसरे दिन रंगोली बनाते थे। घर के बाहर से अंदर गौशाले तक।
रंगोली बनाने के लिए चावल के आटे का घोल बनाते और उस पर सिंदूर लगाकर सजाते। वहीं सीखा मैंने रंगोली बनाना। मगर बाहर से अंदर तक बनाते-बनाते कमर दुख जाती क्योंकि हमारे घर में गौशाला पूरे आंगन और बगान को पार कर पीछे था। मगर नियम यही था कि पूरे रास्ते बनाना है।
इस बीच गाय-बैल को नहा दिया जाता। उसके बाद उसके पूरे शरीर में दीयों काे अलग-अलग रंग में डुुबाकर छाप लगाई जाती। उनके सींग पर तेल मला जाता। फिर आंगन से अंदर उनकी पूजा कर लाया जाता। गौशाले के नाद में उनके लिए पकाया गया अनाज परोसा जाता। सारा दिन कुछ न कुछ क्रम चलता रहता।
जब शाम के चार बजते, तो सारे लोग अपने जानवरों को, विशेषकर गाय-बैल को खूंटे से निकाल लाते। उन्हें खुला छोड़ दिया जाता। सारे जानवर इकट्ठे होकर उछलते-कूदते। हमें बहुत मजा आता देखकर। उस दिन इनको पूरी स्वतंत्रता होती कि जिधर चाहे चले जाए। कोई रस्सी नहीं पकड़ता। घंटे-दो घंटे तक यही सब चलता। हम बच्चे कभी बाहर जानवरों को देखने जाते तो कभी उनके दौड़ने से डरकर घर में छुप जाते।
सांझ ढलने से पहले सब लोग अपने-अपने जानवरों को हांककर वापस गोशाला ले आते। गौ-पूजा की समाप्ति होती। देर शाम फिर दीये निकाले जाते। आज बासी दीयों का ही प्रयोग होता सजावट के लिए। हां, मदिर, तुलसी आदि में नए दीये लगते। कल के बचे पटाखे चलाये जाते। फिर से एक छोटी दीवाली मनती।
3 comments:
तब और आज बड़ा अंतर है ... कितना कुछ बदल जाता है देखते देखते ... सुन्दर यादें
शुभ दीपावली!
सहर के भाग- दोड़ भरे जीवन में त्योहार एक छोटे दायरे में सिमट कर रह गए हैं।
दीपावली की शुभकामनाएं .
ऐसा भी होता था, हमने आज तक ऐसे दिलचस्प रीती रिवाज़ नहीं देखे, आपके लेख में गांव व पुराना समय को महसुस किया।
Sachin3304.blogspot.in
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