अगला दिन भाई दूज का होता। हम लड़कियों काेे तब तक व्रत रखना होता है जब तक पूजा नहीं हो जाती। यह पूजा महल्ले में किसी एक के घर होती और सब लोग वहीं आकर पूजा करते। गोबर से आंगन या छत में यम-यमी की आकृति बनती। बाहर चौकोर घेरा बनाकर पूरा घर बनाया जाता। घर के अंदर गोबर से कई चौकोर खाने बनते और घेरे के अंदर सांप, बिच्छू, चूल्हा आदि बनाया जाता है। इस पूजा में सबसे कष्टप्रद बात होती रंगीनी या भटकईया का कांटा ढूंढना। बहनेंं पूजा के दौरान अपने भाई को श्राप देती है, फिर थोड़ी देर बाद पश्चताप करने के लिए जीभ पर रंगैनी का कांटा चुभाती हैं। अपने भाई की लंबी उम्र की कामना से पूजा करती हैं और कहानी सुनती हैं। दो या तीन कहानी तो पक्का बोली जाती थी चााची, ताई द्वारा। हमें बड़ा मजा आता यूं सुनकर कहानी। जिसमें भाई बहन का प्यार होता आैर अक्सर भाभियाें की बुरी छवि होती।
सबसे विचित्र बात की पूजा समाप्त होने के बाद यम-यमी के सीने पर एक ईंट धरा जाता और उसमें एक पांव धरकर सारी बहनेंं गीत गाते हुए पार होती थी। अपने भाई की रक्षा और उनके दुश्मनों काा बुरा हो, यह कामना करती हैं बहनें। यह पर्व अब भी मनाया जाता है। इसके बाद भाई को प्रसाद देने के बाद बहनेंं कुछ खाती। प्रसाद में चना होता जिसे भाई को निगलना होता है। पूजा के वक्त रूई की एक माला बनती है, जिसे 'आह जोड़ना' कहते हैं। इस माला को बनाते वक्त मौन रहा जाता है और भाई की मंगलकामना की जाती है। जिसे पूजा के बाद भाई की कलाई में पहना दिया जाता है। भाई भी बहनों को पैसे या कोई उपहार देते। मुख्यत: यह भाई-बहनों के बीच के प्यार को बढ़ानेे वाला त्योहार है, राखी के अलावा। इस दिन सभी भाई अपनी बहन के घर जाते। मान्यता है कि जिस भाई की हड्डी को बहन का श्राप लगा होता है, उसकी आकाल मृत्यु नहीं होती।
आधे से ज्यादा दिन इन्हीं सब में पूजा-पाठ में बीत जाता। शाम होते-होते अहसास होता कि पंचपर्व दीवाली खत्म हुई। थोड़ी मायूसी होती कि अब शांति है मगर सिर्फ दो-तीन दिन। फिर महापर्व छठ की गहमागहमी शुरू। यानी हमारी संस्कृति में उत्साह और उमंग बनाा रहता है पूरे वर्ष। मगर मेरे लिए दीवाली से अच्छा कुछ नहीं।
1 comment:
कितना अच्छा लगता था वह सब, तब जब भावों से मन हिलोरें लेने लगता था पर आज पर्व का स्वरुप ही बदल गया है , पर्व मानते तो हैं लेकिन वह भावनाएं और उन गर्माहट कहीं विलीन हो गयी लगती है
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