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बकरोटा हिल पर मैं और अभिरूप |
आज हमें खज्जियार की यात्रा पर निकलना था। सुबह उठकर तैयार हुए। हालांकि बच्चों के साथ सुबह निकलना हमारे लिए आसान नहीं होता। उनके लिए छुट्टियों का मतलब देर से सोना और देर से जागना है। फिर भी यथासंभव जल्दी तैयार होकर निकल पड़े। कार के साथ ड्राइवर हमारा इंतजार कर रहा था क्योंकि कल हम नहीं जा पाए थे घूमने।
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नीचे दिखती खूबसूरत घाटी |
हम मुश्किल से पांच किलोमीटर ऊपर गए होंगे कि उसने गाड़ी सड़क किनारे रोक दी। हम बकरोटा हिल पर ही थे। सड़क किनारे से पहाड़ और घाटियों का सौंदर्य अपने शबाब पर था जैसे। नीचे घाटी में सीढ़ीदार खेत, घर, पगडंडियां बेहद खूबसूरत लग रही थी और ऊपर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ पर चीड़ और देवदार के गगन छूते पेड़। हम मंत्रमुग्ध हो गए। वहां दो व्यक्ति खरगोश लेकर तस्वीर खिंचाने के आग्रह के साथ घूम रहे थे। हमने भी बात मानी और तस्वीर ले ली। सर्पीली घाटियों के आकर्षण में कुछ देर रूके हम फिर आगे चले।
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पहाड़ का सौंदर्य
सड़क की बायीं तरफ चीड़ का जंगल और उस उगे सफेद-पीले जंगली फूल ऐसे लग रहे थेे जैसे फूलों की चादर लगा दी हो प्रकृति ने। हम डैन कुंड के रास्ते पर थे। यह जगह डलहौजी से करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर है। यह डलहौजी का सबसे ऊंचा स्थान है। कहते हैं मौसम साफ होो तो यहां से व्यास, रावी और चिनाब नदी की सुंदर घाटियों काे देखा जा सकता है।
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सड़क किनारे उगे फूल |
पता लगा कि ऊपर एक मंदिर है और वहां तक जाने के लिए ट्रैकिंग ही एकमात्र रास्ता है। लगभग डेढ़ किलोमीटर चलकर जाना होता है। पूरे रास्ते में फूल ही फूल हैं जैसे फूलों की घाटी हो। बरसात तक जंगली फूलों से पट जाती है धरती। अब भला हम कैसे नहीं जाते। दूर-दूर तक गाड़ियां लगी हुई थी। काफी लोग नजर आ रहे थे। ऊपर जाने के लिए मंदिर का गेट बना हुआ है। हमने भी मां का नाम लिया और चल पड़े चढ़ाई को।
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डैन कुंड की ओर जाते अमित्युश |
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चढ़ाई पर विश्राम करते कुछ लोग |
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फूलों की घाटी...सफे़द डेजी से पटी जमीन |
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फूलों के बीच |
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हमारा इंतजार करते अमित्युश |
जैसे अंदर गए..पैदल रास्ता ऊपर जाते दिखा। लोग आ-जा रहे थे। चीड़ का घना जंगल था। पक्का रास्ता भी बना था। कच्चे रास्ते की पगड़डी और पक्की सीढ़ियां भी। आप चाहे जिसे चुन लो। कुछ दूर आगे गए कि लगा वाकई फूलों के जंगल में हैं हम। बहुत ही खूबसूरत। दूर पहाड़ी पर लोग चढ़ते नजर आ रहे थे। उनमें पर्यटक थे और स्थानीय निवासी भी। चारों तरफ फूल ही फूल बिखरे हों जैसे। हल्की सी हवा चलती तो चीड़ के पेडों से आवाज निकलती। जैसे कि गुनगुना रहा हो कोई।
हम बीच-बीच में रूककर जरा सुस्ता लेते थे। पर आश्चर्यजनक रूप से अमित्युश चलता चला गया। वह काफी आगे निकल जाता और फिर रूककर हमारा इंतजार करता। हम अभिरूप की शैतानियों से परेशान थे। वह दाैड़ लगा रहा था। जरा सा फिसले नहीं कि खाई थी बगल में। हमेंं उसका हाथ पकड़कर चलना पड़ रहा था। मगर इतने खूबसूरत दृश्य थे, कि मन प्रफुल्ल था।
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ऊंचाई से दिखता पहाड़ |
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चीड़ों के साथ फूल ही फूल |
अब हम ऊपर ऐसी जगह थे जहां से पांच पहाड़ियां नजर आ रही थी। ऊपर नीला निरभ्र आसमान और उस पर रूई से फाहे से सफ़ेद बादल..नीचे फूलों से पटी धरती। व्हाइट डेजी की चादर बिछी थी जमीन पर। हम गुनगुनाने लगे...'मन कहे रूक जा रे रूक जा, यहीं पे कहींं....' मगर आगे चलना था। लौटना भी था। बहुत खूबसूरत तस्वीरें आई वहां।
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अभिरूप और मैं |
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चढ़ाई करते पर्यटक |
एक मैदान आता है उसके बाद सीधी चढ़ाई फिर आता है काली मां का मंदिर, पोहलानी मंदिर। बहुत भीड़ थी वहां। पर्यटक भी और स्थानीय लोग भी। मंदिर के द्वार पर स्लोगन लिखा था-भूखे को अन्न, प्यासे को पानी।
अंदर पूजा चल रही थी। हम भी पंक्तिबद्ध हो लिए दर्शन के लिए।
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पोहलानी मां का द्वार |
मंदिर परिसर में बांयी ओर बहुत भीड़ थी। वहां कई त्रिशुल गड़े थे और खूब सारी घंटियां भी। पूजारी झूमते हुए पूजा कर रहा था। लोग हाथ जोड़े खड़े थे। उसने एक धूपदानी में धूप जलाया और वहां से तेजी से निकलकर ऊपर की पहाड़ियों की ओर भागा। उसके एक हाथ में लोहे का सांकल या सिकड़ था दूसरे में धुंआ उगलती धूपदानी।
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मां काली की पूजा करता पुजारी |
ऊपर पहाड़ी पर भव्य प्रतिमा थी मां काली की, खुले आकाश के नीचे। उसने आरती की और दूसरी तरफ से उतर गया। अब वह वापस मंदििर परिसर में था। उसने उसी सांकल से खुद को पीटना शुरू किया। कुछ बुदबुदाता रहा और खुद की पीठ पर लोहे की चेन बरसाता रहा। सब हाथ जोड़े देख रहे थे। अब इस क्रिया को बंद कर उसी सांकल को सबके माथे पर लगाकर पुजारी ने आर्शीवाद दिया, मगर र्सिफ पुरूषों के सर पर लगाया।
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आर्शीवाद देते पुजारी |
पता चला कि गांव के कुछ लोगों ने भंडारा का आयोजन किया है। यह इस प्रक्रिया द्वारा देवी से पूछा जा रहा है कि जिस प्रयोजन से यह भंडारा किया जा रहा है वो सफल होगा कि नहीं। बगल में हवन कुंड था। वहां महिलाएं दरी बिछाकर भजन कर रही थी। हमने माता को प्रणाम किया। बाहर दानपेटी में दान डाला और नीचे की ओर चल पड़े।
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स्थानीय लोगों की भीड़ |
वापसी में भी वही सुंदर नजारा। चढ़ने से ज्सादा आसान होता है नीचे उतारना। रास्ते में कई लोगों ने पूछा कि और कितनी दूर चलना है। थोड़ी कठिन है चढ़ाई, मगर फूलों की घाटी का शौौक हो तो जरूर जाएं।
मेरे मन में सवाल कुलबुला रहा था। जब इस पहाड़ी में माता पोहलानी यानी काली मां का मंदिर है तो इसका नाम डैन हिल क्यों हैं ? एक दो लोगों से पूछा पर कोई जवाब नहीं मिला। हमारे ड्राइवर साहब ने भी इंकार में सर हिला दिया। मेरी पत्रकार प्रवृति जवाब पाए बिना आगे बढ़ना ही नहीं चाहती थी। एक स्थानीय व्यक्ति ने आखिर मेरी जिज्ञासा शांत की।
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आराम करते अमित्युश |
उन्होंने बताया कि दरअसल ये डैनकुंड यानी डाइन कुंड है। कहते हैं इतनी ऊंचाई पर डाइनें निवास करती हैं, इसलिए इसका नाम डैन कुंड है। अंधिवश्वास सही, ग्रामीणों का मानना है कि जब सर्दियों में बर्फ पड़ती है तो ऊपर जाने का मार्ग बंद हो जाता है। उन दिनाें कोई नहीं जाता। गर्मियों में भी ऊपर जहां खुले आकाश के नीचे काली मां की प्रतिमा है, वहां सिर्फ पुजारी ही जा सकता है। औरतें नहीं जाती। सर्दियों में कोई गलती से चला जाता है तो उसका अता-पता नहीं चलता। मिलती है तो सिर्फ लाश। अपनी आवाज को रहस्यमय बनाते हुए उन्होंने कहा- इसी बार की सर्दी में एक गांव वाला चला गया था ऊपर। चार दिन बाद उसकी लाश मिली।
आज के जमाने में यह बात हम नहीं मान सकते मगर गांवों में अंधविश्वास आज भी कायम है। हमारे यहां भी है। औरतें मार दी जाती हैं डायन के नाम पर। तो ऊंचेे पहाड़ में कोई बर्फ में दबकर, फिसलकर या ठंढ़ से जमकर मर जाता होगा तो डाइनों के सर इल्जाम लगता है।
बहरहाल..है बहुत ही खूबसूरत जगह डैन कुंड । हमें पता होता तो एक पूरा दिन हम यही बिताते। अब चल पड़े आगे की ओर.
क्रमश: ....
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चीड़ तले अभिरूप |
2 comments:
सुन्दर वर्णन और खूबसूरत चित्र
Bahut bahut dhnyawad aapka
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