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| कालाटोप का रेस्ट हाउस | 
डैन कुंड से चल दिए हम कालाटोप की तरफ। मुश्किल से 15 मिनट लगे और हम थे लक्कड़मंडी । यह कालाटोप का प्रवेशद्वार है। यहां से अन्दर जाने के लिए टैक्स देना पड़ता है। गाड़ीवाला पर्ची कटाने गया और मेरी नजर पड़ी वहां एक चापाकल पर बैैठे, बात करते और पानी भरते कुछ बच्चे बच्चियों पर। बड़ी मासूम की लड़की थी, जो पानी भर रही थी। मैंने तस्वीर में कैद कर लिया उसे। वहीं सामने बोर्ड लगा था, ठहरने के लिए सुविधाएं और शुल्क लिखा था।
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| बतरस.... | 
याद आया मेरी सहेली शिल्पा ने कहा था कि वहां कालाटोप में रूकना, तुम्हें पसंद आएगा। पर हम तो डलहौजी में ही रह गए थे। अब अंदर की ओर चले। थोड़ी-थोड़ी दूर पर बोर्ड लगे थे जिस पर लिखा था, यहां भौंकने वाले हिरन मिलतेे हैं, भालू मिलते हैं। हम उत्सुकतावश भीतर जंगल में नजर गड़ाए हुए थे कि कोई जानवर दिख जाए, मगर नहीं दिखा। 
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| मेहनती लड़िकयां | 
थोड़ी दूर में देखा सड़क पर खुद से चौगुना बोझ उठाए कुछ लड़कियां चली आ रही थी। मैंने गाड़ी रूकवाई और उनका नाम पूछा। हंसते हुए बताया, एक का सानिया, एक टिया और एक लज्जा। बउ़े आकर्षक नाम लगे। उनलोगों ने बताया कि वो स्कूल में पढ़ती हैं और जलावन के लिए जंगलों से सूखी लकड़ियां घर ले जा रही हैं। वाकई बहुत मेहनती होते हैं ये पहाड़ के लोग।
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| वो ही खिड़की जिससे लुटेरा फिल्म में सोनाक्षी बाहर देखा करती थी | 
देवदार के गगनचुंबी पेड़ों ने सूरज की रौशनी को ढंक लिया था। इसका नाम इसलिए कालाटाेप पड़ा क्योंकि पेड़ों के कारण यहां घना अंधेरा रहता है। अब हम गेट के अंदर थे जहां रेस्टहाउस बना हुआ था। अरे...ये तो वही रेस्टहाउस है, फिल्म लुटेरा वाला। उफ...मैं तो उस फिल्म को देखकर उस जगह की मुरीद हो गई थी। सोचा था काश मैं भी किसी ऐसी जगह पर रहूं। मुझे् बहुत खूबसूरत लगी थी वो जगह। हालांकि फिल्म में उदासी थी उस दरमियां पर वह जगह बहुत खूूबसूरत थी।
शिकायतें....मिटाने लगी...
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| ये बर्फीली वादियां होती तो कितना अच्छा होता | 
सोनाक्षी सिन्हा एक पतले से रास्ते में चली जा रही है। एक आेर देवदार के गगनचुंबी पेड़ तो दूसरी ओर व्हाइट डेजी के फूल। एक खूबसूरत रेस्ट हाउस जहां की खिड़की के सफेद पर्दों को हटाते हुए वह हर रोज पेड़ से गिरते पत्ते देखा करती थी। मुझे लगा अब तक वही पर्दे लगे हैं। पता किया तो बात सच निकली। यहीं हुई थी फिल्म लुटेरा की शुटिंग मगर जिस पेड़ के पत्ते गिरते थे, वो नकली सेट लगाकर तैयार किया गया था।
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| रेस्ट हाउस का पिछला हिस्सा | 
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| सीढ़ियों पर आराम | 
खैर, जी भर कर तस्वीरें ली, उस रास्ते की भी जो फिल्म का अंतिम दृश्य था, जिसमें हीरो रणवीर मारा जाता है। यह बंगला या रेस्ट हाउस समुद्रतल से 8000 फीट की ऊंचाई पर है और इसका निर्माण 1925 में कििया गया था। यह रेस्टहाउस अब तक सही सलामत है, शायद इसलिए कि देवदार की लकड़ियों से बना है। 
अब हम नीचे की ओर उतरे। वहां कैंटीन था। दोपहर हो चुकी थी और हमें भूख लगी थी। उधर भी कई कॉटेज बने थे। मैंने तय किया कि अगली बार आऊंगी तो इसके सिवा कही और नहीं रूकना है। मगर सर्दियों में यहां इतनी बर्फ पड़ती है कि रास्ता बंद हो जाता है। अगर कुछ दिनों के लिए बस यहीं के होकर रहना है तो इससे बेहतर जगह नहीं।
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| कुहासे में घिरा पहाड़ | 
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| हिमशिखर | 
हमने चाय पकौड़े का आर्डर दिया और बैठ गए। पीछे नजर पड़ी बहुत ही खूबसूरत नजारे थे। पहाड़ों पर बादल थे या बर्फ पता नहीं चल रहा था क्योंकि कोहरा छाया हुआ था। तभी बूंदाबांदी शुरू हो गई। ये अजीब इत्तफाक रहा इस बार कि हम जहां भी जाते हैंं, बारिश शुरू हो जाती है भले ही कुछ देर के लिए रहे। वहां कुछ जाेेरदार ही बारिश हो रही थी। मगर मजे की बात यह कि देवदार के इतने घने पेड़ थे हमारे सर के ऊपर की बूंदे हम तक नहीं आ रही थी। इस बारिश में चाय पकौड़ों का दूगुना आनंद आ गया। बच्चों को मैगी के अलावा बाहर कुछ पसंद ही नहीं आता। कुछ देर वहां रहकर हम वापस होने लगे। अहसास हुआ कि बारिश इतनी तेज है कि हम भीग जाएंगे तो वहीं एक दूसरे रेस्टहाउस के पास शरण लिए। अचानक बहुत ठंढ़ हो गई। बच्चे तो कांपने लगे।
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| अमित्युश और आदर्श | 
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| बारिश से बचने को बैठे थे हम यहां | 
कुछ देर बाद हम उसी मैदान में थे जिससे गए थे। वहां गई बेंच लगे हुए थे। यह एक आदर्श पिकनिक स्थल है या वो लोग जो वाकई एकांत में कुछ दिन रहना चाहते हैं, उनके लिए बहुत ही बेहतरीन जगह है। वहीं से एक पैदल रास्ता है जो खज्जियार तक जाता है, जिसकी दूरी 12 किलोमीटर की है। अब धूप खिल गई थी।  देवदार के पेड़ तले बेंच में बैठ, प्रकृति का आनंद ले कुछ वक्त गुजारकर हम वापस चल पड़े खज्जियाार की ओर। 
 
 
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