हम सब सुबह उठकर जल्दी-जल्दी तैयार हुए खज्जियार जाने के लिए। पता लगा कि टोल टैक्स को लेकर टैक्सी वालों का झगड़ा हो गया है और रास्ता बंद है। हमारे ड्राइवर ने कहा बहुत लंबी लाइन है। मैं यही हूं। रास्ता खुलेगा तो बताऊंगा।
अब हमलोग रूक गए। वहां कुछ देखने लायक था भी नहीं। सोचा यहीं होटल परिसर में ही रहते हैं क्योंकि बहुत खूबसूरत है वो जगह। मैंने टाइम का फायदा उठाया और फूलोें और प्रकृृति की कई तस्वीरों को कैमरे में कैद किया।
बच्चे अपनी फेवरेट जगह यानी ट्री हाउस में जाकर बैठ गए। यह ट्री हाउस केंद के पेड़ के ऊपर बना है और यहां ठहरने वाले सैलानियों के आकर्षण का मुख्य केंद्र हैं।
दोपहर एक बजे के आसपास फोन आया कि रास्ता खुल गया है मगर आज न जाओ तो अच्छा है। बहुत ट्रैफिक है। तो हमने भी सोचा आज यहीं घूमते हैं बकरोटा हिल। तो पैदल ही निकल पड़े। चढ़़ाई के वक्त जब सांसेंं फूलती हैं तब पता लगता है कि पहाड़ पर जीना कितना कठिन है।
हम जिस पहाड़ पर थे उसे बकरोटा हिल कहते हैं। हम चीड़ के पत्तों की सरसराहट, सड़क किनारे ठहरकर पहाड़ की खूबसूरती निहारते आगे बढ़ रहे थे। वहां तिब्बतियों के निवास स्थल थे। सड़क के दोनों ओर रंगीन पताके लगे हुए थे। दोनों किनारे जंगली फूल खिले थे। सबसे अच्छी बात की ऊपर की आेर चढ़ाई कर जाने के बाद भी थकान महसूस नहीं हाेे रही थी।
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सड़़क किनारे उगे खूबसूरत फूल |
हम चलते चले गए। अब छोटे को भूख लगी। मगर दूर-दूर तक कोई दुकान नजर नहीं आ रहा था कि खरीद लूं कुछ। अचानक एक मोड़ पर पहुंचे तो देखा छाेेटा सी दुकान है, टी स्टाल की तरह। हम सब बहुत खुश हो गए। वहां अभिरूप और अमित्युश ने मैगी खाई और हमने चाय पी। वो पहाड़ी सीधे-साधे लोग थे। देखा अपनी छोटी सी कुटिया में वो महिला कुछ नमकीन बना रही है। मैंने टेस्ट किया। जब मैंने कहा अच्छी बनी है तो उसके चेहरे पर एक सहज मुस्कान आ गई जिसे मैंने कैद कर लिया।
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इसी महिला ने मनाए थे नमकीन |
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चाय पीती स्थानीय महिला |
वहां बगल में सब्जी की भी एक दुकान थी। स्थानीय महिलाएं, जो तिब्बती थीं, वो सब्जियां खरीद रही थी। कुछ तो हमारे बगल में चाय पीने बैठ गईं। मैगी बनने में कुछ वक्त था। हमलोगों ने बच्चों से कहा कि तुमदाेेनों यही ठहरो, हम आगे तक घूम आते है।
जब हम चले तो देखा एक शिलापट्ट लगीी है। मैं पढ़ने गई तो खुशी से उछल पड़ी। सुन रखा था कि यहां गुरू रवींद्रनाथ टैगोर, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष बोस आदि आए थे और उन्हें ये जगह बहुत पसंद थी।
संगमरमर की शिलापट्ट में लिखा था कि स्नोडन के इस भवन में अपने पिता के साथ 1873 में टैगोर तब आए थे जब उनकी उम्र 12 वर्ष की थी। उन्हें यह जगह बहुत पसंद आई थी। डलहौजी के नैसर्गिक सौंदर्य और शांति नेे उनके दिल पर अमिट छाप छोड़ी और बाद के सालों में अपनी कविताओं में बार-बार डलहौजी की खूबसूरती का जिक्र किया उन्होंंने। 1910 में एक मित्र को लिखे पत्र में रवीन्द्रनाथ ने डलहौजी की पर्वतश्रृखंलाओं के प्रति अपना आभार व्यक्त किया है यही से प्रेरणा लेकर उन्होेने शांति निकेतन की स्थापना की जहां प्रकृति के संसंर्ग में रहकर जीना सीखते हैं।
' विश्व परिचय ' पुस्तक में वे लिखते हैं, ‘‘ पिताजी के साथ गया था डलहौजी पहाड़। दिन भर घूमने के बाद सांध्यबेला में डाक बंगले में पहुंचते। वहां आंगन में कुर्सी लगा कर बैठते। देखते ही देखते गिरि श्रंंगों के घेरे के ऊपर निविड़ नील आकाश के स्वच्छ अंधकार में तारावलि निकट उतर आती। वे मुझे नक्षत्र दिखाते, ग्रह दिखाते। इतना ही नहीं, वे मुझे सूर्य से उनकी प्रदक्षिणा की दूरी, उनके घूमने का समय और अन्य विवरण विस्तार से बताते।’’
स्नोडन नामक इस भवन में आजकल हिलटॉप स्कूल चलता है। आज उसी बकरोटा पहाड़ पर हम विचर रहे थे। नीचे दूर दूर तक सीढ़ीदार खेत, चीड़ देवदार के पेड़।
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पत्तियों से झांंकता पहाड़ |
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एक नयनाभिराम दृश्य |
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पहाड़ों के साए में |
हम यूं ही टहलते रहे। दूर-दूर। किसी के घर से लगा अहाता था जिस पर तीन बच्चे खेल रहे थे। हम इजाजत लेकर अंदर गए। वहां खूबानी के कई पेड़ थे। खूबसूरत नजारा, सरे पहाड़, रंगीन पताकाएं मन मोह रही थी।
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खुबानी और मैं |
अब शाम ढलने लगी। हम लौटने लगे। अचानक मौसम ने तवर बदला। लगा जोरदार बारिश होगी। तेज हवाएं चलने लगी। हम और उत्साहित थे कि आज भीग ही लेंगे। लौटकर होटल ही तो जाना है। पर दस मिनट बाद फिर मौसम बदल गया। चीड़ के पत्तों में छुपा सूरज अपने घर की ओर चला और हम अपने। ढलती शाम और खूबसूरत लग रही थी।
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ये सूरज नहीं फूल हो जैसे चीड़ पर उगा |
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चीडों तले सूरज |
चीड़ों पर चांदनी नहीं चीड़ों के पीछे सूरज..लाल, खूबसूरत। रात उतरने को थी पहाड़ के आंगन में। पहाड़ियों में इक्का-दुक्का घर थे जहां रौशनी उगने लगी थी। बच्चे थक चुके थे। अब वापस उसी अस्थाई नीड़ में पहुुंच गए।
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ढलती शाम में अमित्युश |
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उग आई रौशनी पहाड़ों पर |
क्रमश.....
2 comments:
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार
बकरोटा पहाड़ देखकर अपने पहाड़ का गांव याद अाने लगा है। . अभी ही में लौटी हूँ
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