Wednesday, December 23, 2015

टूटने को है....



मुट्ठि‍यों से झरती रेत
हवाओं में बि‍खरती
ख्‍वाहि‍शें,
खरगोश की तरह दुबके हुए
सपने ने
छलांग लगाना चाहा, मगर
फि‍र एक उम्‍मीद
टूटने को है
दुनि‍यां की तमाम चीटि‍यों
तुम्‍हें मेरा सलाम
मानती हूं
कोशि‍श जारी रखनी चाहि‍ए
पर
हौसले को परवाज दूं कैसे
जब मुकाबि‍ल
तकदीर पांव अड़ाए बैठा हो
बार-बार..हर बार.....

5 comments:

How do we know said...

हौसले को परवाज दूं कैसे
जब मुकाबि‍ल
तकदीर पांव अड़ाए बैठा हो
बार-बार..हर बार.....

Wah!

dr.mahendrag said...

कोशि‍श जारी रखनी चाहि‍ए., ....... सुन्दर अभिव्यक्ति

जयकृष्ण राय तुषार said...

बहुत ही कसी हई सुंदर कविता के लिए आपको भाई रश्मि जी |नववर्ष की शुभकामनाएँ |

Onkar said...

सुन्दर रचना

abhi said...

खूबसूरत!