जब कहतेे हो , याद रखूंगा
ये ढलती शाम, घेरती ठंड
और जलती रौशनी के संग
संझा के दीप की टिमटिमाती
लौ के पीछे
तुम्हारा दिपदिपाता चेहरा
ऐसा लगता है
तुम किसी अंतहीन सफ़र पर
जाने की तैयारी में हो
और देहरी पर मैं प्रतीक्षारत विरहा
हर रात गहराती,
मुंदती आंखों के आगे
एक चेहरा लहराता है
न पाया मगर
मेरी ही बिछड़ी रूह का
वो साया है
मोहब्बत की आग से
सुलगी है जो जिंदगी
उस पर हैं तेरे ही नाम के दो हर्फ़
खामोशी की दीवार पर
लिखी नीली रौशनाई है
जन्मों की आग में तपकर
ये नेमत हमने पाई है
एक खुशी है छिटकी सी
रूप है दमका
दीप की रौशनी सा प्यार तुम्हारा
बिखरा है आत्मा पर
भरी-भरी सी हूं तुम्हारी मौजूदगी से
तुम दूर हुए, तो क्या.....।
4 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, २६/११ और हम - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुंदर रचना. मैं सोच रहa tha कi इस कविता के साथ आपने ये तस्वीर क्यो लगाई होगी. और किसने खींची होगी यह तस्वीर? कयa तस्वीर लेना यह बताना है की मैं इस रूप को सदा सदा याद रखना चाहता हूँ----
sach me sundar rachna hai.
सुन्दर कविता
सुन्दर और भावपूर्ण रचना।
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