Friday, August 14, 2015

तृप्‍ति‍ है बादलों से



तुम जानते हो
जब भी
यूं बीच रास्‍ते छोड़
आगे बढ़ जाओगे
आंखों में सावन भरकर
मैं प्‍यासी धरती सी
वहीं पड़ी रहूंगी, बूंदों के इंतजार में
सूखती है अवनि‍, फटता है उसका सीना
मगर
तृप्‍ति‍ मि‍लती है उन्‍हीं बादलों से
जो बार-बार रूठकर, तरसाकर
चले जाते हैं
बहुत इंतजार के बाद, फि‍र लौटने को

1 comment:

nilesh mathur said...

बेहतरीन अभिव्यक्ति...