जो मैं मान लूं
तुम कभी से नहीं थे मेरे
न वो पाक रूह थी कोई
न कोई इंसान था अपना सा
बस एक साया था
और उस साए से
मोहब्बत हो गई थी मुझको
न वो पाक रूह थी कोई
न कोई इंसान था अपना सा
बस एक साया था
और उस साए से
मोहब्बत हो गई थी मुझको
जो मैं तोड़ दूं
मन्नतों का धागा
काटकर अपनी कलाई
रिसने दूं लहू के साथ तेरी याद
तेरे वादों के बुलबुले को
एक फूंक से कर दूं मटियामेट
सोच लूं
तेरी बातें थी किसी कहानी का प्लाॅट
और हंसू जी भर कर
अपनी ही बेवकूफियाें पर
मन्नतों का धागा
काटकर अपनी कलाई
रिसने दूं लहू के साथ तेरी याद
तेरे वादों के बुलबुले को
एक फूंक से कर दूं मटियामेट
सोच लूं
तेरी बातें थी किसी कहानी का प्लाॅट
और हंसू जी भर कर
अपनी ही बेवकूफियाें पर
बोलो मान लोगो तुम न उस दिन
कोई रूह नहीं होती
इस दुनिया में
जन्मों-जन्मों का कोई बंधन नहीं होता
कोई रूह नहीं होती
इस दुनिया में
जन्मों-जन्मों का कोई बंधन नहीं होता
(( बस...कुछ ऐसे ही.....मन का मनका))
3 comments:
समय के साथ मिलते कितने सबक , बढ़िया रचना
सुन्दर रचना!
रश्मि जी, हर किसी को नहीं मिलता यहाँ प्यार जिंदगी में ...! प्यार न मिलने पर होने वाली पीड़ा का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है आपने!
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