Wednesday, May 6, 2015

कुछ शेष नहीं.....


फि‍र गि‍रे शाख से
कुछ भूरे, सूखे से पत्‍ते
हवाओं की कोई ख़ता नहीं
पत्‍तों में शेष न था कुछ
कुछ रि‍श्‍ते
चुपचाप सूखते हैं
और गि‍र जाते हैं एक दि‍न
रि‍श्‍ते की हरी डाल से, सूखे पत्‍तों की तरह
कोई शोक नहीं मनाता
न पूछता है कुछ सवाल
बस लग जाता है
आंधि‍यों पर इल्‍जाम
शब्‍दों की आंधि‍यां
सुनामी सी हलचल
मचाती है, तो कभी
सागर में ज्‍वार उठाती है,
फि‍र सारा कुछ सामान्‍य हो जाता है
ऐसा भी होता है
अचानक पांव के नीचे
धरती हि‍लती है
और खूबसूरत काष्‍ठमंडप वाले
देश सा
ध्‍वस्‍त हो जाता है सब कुछ
जब तक समझे कोई
संभले कोई
सब जमींदोज हो जाता है
इसे भूरेपन से
कैसे बचा जा सकता है
कैसे मोड़े कोई लहरों का रूख
हरी धरा के सीने से
जब हरापन सोखता है कोई
रि‍श्‍ते को नींबू सा
नि‍चोड़ता है कोई
तो क्‍या बचता है फि‍र
कसैलापन..सूखापन
फि‍र ढह जाती है धरती
गि‍रते हैं रि‍श्‍ते
खोते हैं बेहद अपनों को
क्‍याेंकि‍
बचाने को कुछ शेष नहीं होता है।

5 comments:

निर्मला कपिला said...

रिश्तों की यही कहानी मेरे ब्लाग पर भी देखिये. अच्छी रछना के लिये बधाइ1

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7 - 5 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1968 में दिया जाएगा
धन्यवाद

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत सुंदर

nilesh mathur said...

सुंदर पंक्तियाँ...

विभूति" said...

खुबसूरत अभिवयक्ति.....