मैं
थी परछाईं उसकी
सांसों की
सरगम
और होठों की मुस्कान
उसने
जिंदगी के कश्कोल को
भर दिया
भावनाओं की रेज़गारी से
खनखन गूंजती थी
दसों दिशाएं
फूटती से चेहरे से
सुवर्णाभा
पर
वक्त का पहिया
कब थमता है
घूमता ही रहता है चारों पहर
जिसने भरा था
जीवन में स्नेह का प्याला
उसने ही छीन ली
सब खुशियां
अब
परछाईं गुम है अंधेरे में
सांसों की तार मद्धम है
मेरे हाथ का कासा
उलटा पड़ा है
4 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार को
आज प्रियतम जीवनी में आ रहा है; चर्चा मंच 1900
पर भी है ।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार को
आज प्रियतम जीवनी में आ रहा है; चर्चा मंच 1900
पर भी है ।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
कडवा सच।
बहुत सुन्दर...
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