देखा था उसने भी
सब प्रेम निचोड़कर
नदिया में बहाते
पलट-पलट कर
होंठों बुदबुदाते
पांवों के पास पड़े
बेजान पत्थर को
मन की आग से
जला कर राख बनाते
भेद भरी अांखें
गहराई तोलती है
मत बोलना कुछ
नदिया की धारा
रास्ता बदलती है
अब लपटें ही लपटें हैं
चारों तरफ है आग
मन का उपवन
हुआ भस्मीभूत है
स्मृति पंख
है लहुलुहान
परिणाम है उसे ज्ञात
लहरों पर बैठ
कौन निकल गया दूर
व्यथा के भार से
झुके हैं उसके कंधे
पलकों के भीतर
मचा हुआ है हाहाकार
नियति के हाथों
नष्ट हुआ संसार
जीते जी हर लिए प्राण
कुहुक है डालों पर
मगर आंखें जवाकुसुम है
रक्तपलाश सा जीवन
गंध नहीं वनों में
मन खंडहर की धूल समेटे
एक नदिया बहती जाती है।
तस्वीर....बनारस के गंगा नदी की
2 comments:
नदिया के साथ प्रेम भी बहे, सूखे नहीं ... तभी जीवन है ...
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26-02-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1901 में दिया जाएगा
धन्यवाद
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