Thursday, February 12, 2015

उफक में उगते सूरज के मंज़र


बात करने को कोई बशर चाहिए !!
इस दश्त में भी अब शहर चाहिए !!

फरिश्तों की खामोख्याली जाने दे ,
अब दुआ इंसानी बा –असर चाहिए !!

बहती नदी ने संग भी तराश लिए ,
बुते–जानां की भी अब खबर चाहिए !!

झुलसी शाखों से परिन्दे उड़ते गये ,
मन को अब झूले वाला शज़र चाहिए !!

आ अफसुर्दा फ़साने के नक्श मिटा दे ,
इस चेहरे पे तेरी आँखों के कहर चाहिए !!

अल्फाज के अंधेर में खोने लगी हूँ मैं ,
उफक में उगते सूरज के मंज़र चाहिए !!

कातिब हूँ फसानाए-बेबसी लिखती रही ,
आबे-चश्म की रवानी शामो सहर चाहिए !!

उन के इसरार पे ग़ज़ल लिख तो लिए
मांगी है अब ,उन के जैसी बहर चाहिए !!

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