रश्मि शर्मा की कविताओं के विविध आयाम : ‘नदी को सोचने दो’
पूरी समीक्षा आपके लिए प्रस्तुत है-----
रांची के काव्यांचल में अपेक्षाकृत युवा व सशक्त हस्ताक्षर रश्मि शर्मा , कविता के क्षेत्र में तेज़ी से उभरता हुआ नाम है। प्रस्तुत पुस्तक ‘नदी को सोचने दो’ कवियित्री का प्रथम विधिवत संग्रह है ।
आज की दुनिया में कवि, कविता और परिवेश का अंतर बहुत बारीक हो गया है । इस युग को सूचना का युग कहा जाता है और सूचनाएं सहज भाव से जीवन में अनायास घुसी चली आती हैं , जीने का एक जरुरी हिस्सा बन कर, और ऐसे में वे कविता की संवेदना का भी भाग बन रही हैं ।
रश्मि शर्मा के इस कविता संग्रह “नदी को सोचने दो” से गुजरते हुए ऐसा ही लगता है जैसे , बहाव के केंद्र में कविता की संवेदना से उपजी सत्ता को नाकारा करते हुए आसपास की चीजें कविता के केंद्र में साधिकार घुसी आ रही हैं और यही वो बहाव है जो पाठकों को सहज ही आकर्षित कर लेता है ।
कवियित्री के आत्म-निवेदन में भी पीड़ा का भाव भी एक परिवेशबद्द्ता के साथ आता है -
“मैं गुंथी मिट्टी/ चाक पर चढ़ी /तुम एक /सधे हाथ कुम्हार
सहेज लो संवार दो /या कि फिर / बिगाड़ दो”.
काव्य की स्वछन्दवादी धारा का नाम हिंदी में छायावाद पड़ा जहाँ सामान्य अवधारणा रही कि कवि , अपनी वेदना को बहुत घुमा फिराकर या दार्शनिक रहस्य के आवरण में ढक कहता है। छायावादोत्तर काल में उत्तरछायावादियों एवं प्रगतिवादियों की धाराओं ने आदर्श संकोचवाद ,रहस्यवाद आदि से किनारा करते हुए कवि की निज की पीड़ा को प्रखरता से उभारा ! इस दौर में आशा ,संतोष व आस्था से इतर असंतुष्ट स्वर स्पष्ट तौर पर सुने जाने लगे और आत्मस्वीकृतियों के इस काल में यह असंतोष साहसिक होते हुए दिखा ।
“नदी को सोचने दो” में उक्त भाव बड़ी सादगी व सहजता से प्रस्फुटित होते दीखते हैं, भाषाई आभिजात्य और अलंकरणों से परे सामान्य जीवन की अनुभूतियों से निकले भाव व शब्द वेगवती नदी सा बहते हुए प्रतीत होते हैं !
मूल रूप से संग्रह में व्यक्तिवादी या रूमानी कविताऐं सामने आई हैं जो वस्तुतः कवियित्री के व्यक्तिव की अभिव्यक्ति करती है –
“गंदुमी आकाश में /विचर रहा था एक /काले बादल का टुकड़ा
मैं चाहत की डोर से/ खींच कर ले आई उसे/ और टांग दिया सिरहाने.”
कुछ कविताओं ,यथा शीर्षक कविता में इसी व्यक्तित्व के प्रकाश में नये दीप्तिकाल का भी प्रस्फुरण हुआ है –
“हाँ ये सच है /कि हर नदी तलाशती है एक समन्दर /जहाँ विलीन करना होता है उसे/ अपना अस्तित्व /तुम झील बन कर क्यों मिलते हो /किसी नदी से”
प्रस्तुत संग्रह के इस सत्य की आधारशिला कल्पना है जो जीवन के दुख्ख्म-सुख्ख्म और निज की संवेदनशील भावनाओं पर आधारित है –
‘घायल बतख के/सफ़ेद टूटे पंखों से भर जाएगा /आसमान
उडनें लगेंगी अरमानो की /रंगीन कतरनें /कहा था न मैंने /मुझे यूँ ही जीने दो”.
कहीं कहीं यह सत्य, कल्पना के आधार को प्रज्ञा से दूर भी लिए जाता है –
“फिर भी ये निस्पृह देह /विदेह हो जाना चाहती है /अन्तरिक्ष में एक घर बनाना चाहती है
चाहे अनचाहे मिले /सारे दर्द को समेट कर /ध्रुव तारे की तरह हरदम”.
संग्रह में सौन्दर्य भावना सौन्दर्य के प्रति व्यक्तिपरक दृष्टिकोण अपनाती दिखती है और वास्तविक सौन्दर्य द्वितीयक प्राथमिकता प्राप्त कर रहा है ! वर्ड्सवर्थ ने कहा है कि काव्य उत्कट भावनाओं एवं अनुभूतियों का नैसर्गिक बहाव है (poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings.) इस आधार पर रश्मि शर्मा की सहज बेबाक और आत्म-परक शैली प्रशंसनीय है –
“ जब तुम /अभिलाषाओं की बात करते हो /कामनाओं की अग्नि /प्रदीप्त करते हो
दूसरे सिरे पर खड़ी मैं /उलाहनों के अंतहीन धागे से /तुम्हें बाँधने की कोशिश करती हूँ”.
रचनाओं में कई जगह रुढियों और परम्पराओं से विद्रोह के रूपक भी सामने आते है जो मूल रूप से नारी जीवन के अंतर्द्वंदों ,संकल्पों-विकल्पों ,निश्चय-अनिश्चय , और त्रासद स्तिथियों से उबरने के प्रयास के रूप में उल्लेखनीय हैं –
“बाबा मेरे /नहीं करना ब्याह मुझे/मैं कोलम्बस की तरह/दुनिया की सैर पर जाउंगी
न दो तुम मुझे दहेज़ /न बनाओ जायदाद का हिस्सा /बस मुझे दे दो
एक नाव /जिंदा रहने भर रसद /और ढेर सारी किताबें”.
मानव मन सदैव अशेष सुख की कामना करता है और दुखों से मुक्ति भी चाहता है परन्तु कवियित्री दुखों से पलायन को नैतिकता के विरूद्ध बताते हुए कहती हैं –
“दीप ...प्रज्ज्वलित / पान के पत्ते पर /जलते कपूर सा मेरा प्रेम
जो तिरना चाहता है/ अंतिम क्षण तक जलना चाहता है” .
कवियित्री, अंतस के सौन्दर्य-बोध को एक ओर मूर्त रूप में प्रकृति के साथ भी जोडती हैं , यह बोध जड़ ना होकर एक सप्राण व्यक्तित्व की तरह उभरता है –
“नरम उजास तले दबी /पीली धूप /कनेर के सफ़ेद –पीले फूलों पर टिक
उचक कर देखती है /अस्ताचल के पार /और कितनी दूर है /सूरज का घर “.
आदर्शवाद जैसी धाराओं में बही , संग्रह की कुछ कविताएँ जीवन के प्रति ऐसे रुझान दिखाती हैं जो सहज लगते हैं क्योंकि मन कल्पना के पंख लगा सौन्दर्यमयी लोकों में विचरना चाह रहा है और निज व्यक्तित्व रुका हुआ है ऐसे में लेखनी नदी के वेग से प्रवाहित होने लगती है-
“स्वीकार लो /कि , हाँ/तुम्हारे जीवन में आने वाली /मैं पहली तो नहीं
“स्वीकार लो /कि , हाँ/तुम्हारे जीवन में आने वाली /मैं पहली तो नहीं
मगर अंतिम प्यार हूँ /और अंतिम ही रहूंगी /आजन्म “.
यह समर्पण, गहराई तक व्याप्त वर्जनाओं को पोषण देता दिखता है-
“फिर क्या करूँ /सदियों के रिश्ते का /जनमों के बंधन का /हाँ ,तुम वही हो
मगर पक्की मिट्टी तले /बरसों से खड़े /पेड़ जड़ से नहीं उखड़ा करते
जनमों के बिछुड़े साथी /हर जनम में नहीं मिला करते”.
रचनाओं में पश्चाताप ,उदासीनता , विषाद इत्यादि भाव भी मुखर रूप से परिलक्षित होते नजर आते हैं , साथ ही एक निरंकुश अहम् से उपजे खालीपन के समायोजन का प्रयास अतिरेक की भांति कहीं कहीं झलकता है –
“ अब समेट लो हसरतें सारी /एक मुँह बंद खूबसूरत सी थैली में
याराना है रात से /कल फिर बिछेगी बिसात /प्रेम का खेला /शह और मात”.
यह पलायन दुखानुभूति को दर्शाता है . कुछेक कविताओं को पढ़ते हुए प्रसिद्द अंग्रेजी कवि शैली का यह कथन याद आता है कि “वह जीवन के काँटों में पड गया है ,और रक्त की धाराएँ उसके शरीर से बह रहीं हैं” .
एक पत्रकार के रूप में कवयित्री परिवेश के अभावों और संघर्षों के प्रति सजग रहीं हैं, अतएव उनका मानवतावादी दृष्टिकोण थोथी कल्पनाओं पर आधारित ना होकर सत्य पर टिका हुआ उनकी कविताओं में आता है –
कोई झंझावात नहीं आता अब /मुर्दों का शहर है ये /कोई नहीं जागता अब
सरे शाम, भरी भीड़ में / लुट जाती है एक औरत की अस्मत” .
कुल मिलकर संग्रह में व्यक्तिवाद की प्रधानता रही है और एक अतिसंवेदन शील रचनाकार अपने निज का प्रकाशन करती हुई प्रतीत हो रही हैं . कुछ कविताओं में उर्दू शब्दों के अतिशय प्रयोग से बचा जा सकता था ,यधपि यहाँ वे पढने में भले लगते हैं .
आज के इस दौर में कविता जहाँ तनाव का पर्याय हो रही है वहीं रश्मि शर्मा की कविता में जीवन का तनाव तो है परन्तु वह सहज परिभाषित है, और स्पष्ट भी ! संग्रह को पढ़ते हुए लेखनी की रागात्मक वृति में डूब जाने जैसा अनुभव होता है और संभवत: यही इस की सफलता है . एक सुकोमल रागात्मक ह्रदय से भावुकता के अतिशय बिम्ब निकलते हैं –
“हाँ /एक भीगी भीगी गांठ अलग सी होगी /जिसमें /बाँध रखा है मैंने
तुम्हारा भेजा वह चुम्बन भी/ जो बारिश की बूंदों की तरह /लरजता रहा है
ताउम्र मेरे होठों पर....
भाषा शिल्प , शैली लेखिका के परिश्रम का परिणाम है , प्रिंट मीडिया से उनका लम्बे जुडाव का अनुभव सामान्य सहज और सधी हुई भाषा में अपनी बात रखने के उनके प्रयास को रेखांकित करता है ! पहले संग्रह के रूप में प्रस्तुत पुस्तक स्वागत योग्य व पठनीय है, जिसमें कुल 101 कविताएँ हैं।
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3 comments:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (23.01.2015) को "हम सब एक हैं" (चर्चा अंक-1867)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
सुन्दर रचना !
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है !
मगर पोस्ट्स पसंद आये तो कृपया फॉलोवर बनकर हमारा मार्गदर्शन करे
आपने सही कहा है जी . क्या ये किताब मुझे प्राप्त हो सकती है .
मेरे ब्लोग्स पर आपका स्वागत है .
धन्यवाद.
विजय
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