Wednesday, January 21, 2015

बहती नदी के ठहरकर सोचने की कविताएं- माया मृग


बोधि‍ प्रकाशन के माया मृग जी ने न केवल कि‍ताब प्रकशि‍त की, इस एक सारगर्भित पाठकीय टि‍प्‍पणी भी की है। एक कवि‍ की नजर से अपनी कवि‍ताओं को देखकर अलग अहसास होता है।
आपका आभार और धन्‍यवाद...

नदी को सोचने दो : रश्मि शर्मा


बहते हुए क्‍या सोचती होगी नदी---। क्‍या इतना ही परंपरागत तरीके से कि बहना ही जीवन है और नियति भी या अपने बहाव में क्‍या-क्‍या बहा ले चली हूं साथ---। क्‍या इतना सा ही कि अपने रास्‍ते खुद ही बनाने हैं मुझे--। इतना सा सोचती तो भला नदी कैसे होती है वह, इससे आगे बढ़कर सोचती है नदी---।
नदी परंपरा और स्‍मृतियों से निकलती है और निज से मुक्‍त होने की राह तलाशती हुई भविष्‍य तक पहुंचती है। एक अनंत धारा है जो व्‍यतीत समय से निकली। अतीत और स्‍मृतियां जीवन का एक हिस्‍सा भर हैं, जीवन नहीं। इसीलिए शायद रश्मि का कवि मन पहले स्‍मृतियों के बोझ से मुक्‍त होता है, उसके बाद अपने से--। निज से मुक्‍त होकर निजीपन को बचाए रख सकना एक अलग तरह का अनुभव है--। बहुत मामूली सा फर्क जो बड़ा फर्क पैदा करने का बीज है।
रश्मि शर्मा की पुस्‍तक में स्‍मृतियों का संसार है जिसमेंं जीती है कवि लेकिन स्‍मृतियां उसमें रची बसी हैं, घुली मिली हैं। वह स्‍मृतियों को ढोने मेंं विश्‍वास नहीं करती, उसका अपना तरीका है इनसे मुक्‍त हो जाने का, इन्‍हे विदा कर देने का-- हमारी असहमतियों के बावजूद उसे अपने तरीके पर कोई संकोच नहीं, कोई शर्म नहीं--
'' चल/आज अंतिम बार/तेरी याद को/तेंदू पत्‍ते में भर/कस कर/एक धागे से लपेट दूूं
और सुलगा के उसे/लगाऊं एक लंबा सा कश----।''
स्‍मृति-मुक्ति औेर विस्‍मृति दो भिन्‍न अवस्‍थाएं हैं। रश्मि शर्मा का कवि मन विस्‍मृति से बचता है, स्‍मृतियों को अपने तक आने देता है, उनसे संवाद कर उन्‍हें विदाई देता है। उसे अपनी स्‍मृतियों से शिकायत नहीं, अपनापा जो है उनसे। वह स्‍मृतियों में लौटने को आतुर नहीं, उन्‍हें अपने में समोकर आगे बढ़ने की मंशा रखती हैं-
'' अब मैं लौट जाता हूं/हो गया मेरे संग होने का/उद्देश्‍य पूरा--''
''इसलिए भी जाओ, कि लौट आओ तुम, एक नए लक्ष्‍य की तलाश में---''
कहने कीजरुरत नहीं कि नदी कवि का स्‍त्री मन ही है। जिसे नई राह की तलाश है-
''कैलेंडर की तारीख बदलती है/औरतें तो सीख ही रही हैं/अभी उठना, चलना/सीख ही लेंगी एक दिन/वो भी--खुद को बदलना---।''
कविता में बदलाव की कामना केवल निज के लिए नहीं है। ये नदी केवल भावना में नहीं बहती, उसे सोचने का अवकाश चाहिए। और सोच व्‍यापक धरातल पर अपनेपन की खेाज करती है। यह कामना ही लोकमंगल तक पहुंचती है। ये कविताएं उनके लिए हैं जिन्‍होंने कभी देहरी नहीं लांघी---जिनको अपने हिस्‍से का चांद पाने के लिए खुले आसमां की तलाश है अब भी---
''कभी यूं भी होता है कि/वर्जनाओं के भारी परदे तले खुद को छुपाने वाले/सारी दीवारें गिरा देते हैं/मगर/उम्र भर ना लांघी हो जिसने अपनी दहलीज़/वो लोग/अपने हिस्‍से का चांद पाने भी/कभी खुले आसमां तले नहीं अाते---।''
ये कविताएं उम्‍मीद जगाती कविताएं हैं। परंपरा और अपने समय के बीच संतुलन साधने की कोशिश इन कविताओं का प्राणतत्‍व है। प्रेम, प्रकृति और दाम्‍पत्‍य विषय की तरह भले ही अाए हों लेकिन इनमें मूल धारा उस अपनेपन की है, जिसे हर हाल में बनाए व बचाए रखना कविता की जिम्‍मेदारी है। शुभकामनाएं---।

3 comments:

कविता रावत said...

कविता संग्रह पर बहुत सुन्दर समीक्षा ....
बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें रश्मि जी!

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1866 में दिया गया है
धन्यवाद

shashi purwar said...

bahut sundar samiksha bahati hui nadi ..rachnakar aur samikshak dono ko hardik badhai