पापा...
क्या आपको याद है
मेरे बचपन की वो हर शाम
जब मैं
मिट्टी और बालू से सनी
सहेलियों के साथ
छुप्पम-छुपाई खेलती थी
घर के
सामने वाले मैदान में
मगर आंखें लगी होती थी
उस कच्चे रास्ते की ओर
जहां बैलगाड़ी से आती
घंटियों की टुनटुन के पीछे
धूल उड़ती राहों से
आप आया करते थे....
कोई शाम ऐसी नहीं आई
जब आपके
दोनों पीछे बंधे हाथों में
मेरी पसंद की मिठाई और
नमकीन का
दोना नहीं होता था
आप कभी
खाली हाथ नहीं लौटते थे घर
मेरे हाथों में सामान थमा
मुझे घर तक की बाकी दूरी
गोद में ले तय कराते थे
मेरी 'गुड्डो रानी' कह
ऊपर..और ऊपर उछालते थे
और मेरी खिलखिलाहट से
अपनी दिन भर की थकान
मिटाते थे....
पापा
आपने ही कराया था मुझे
नक्षत्रों से दोस्ती करना
रोज आसमान के खजाने का
नवीन रत्न बताते थे
कभी पुच्छल तारा
तो कभी आकाशगंगा दिखाते थे
पापा
बचपन के दिन इतनी जल्दी
खत्म क्यों हो जाते हैं
बच्चे गोद से ज्यादा बड़े
शीघ्र क्यों हो जाते हैं
मुझे बचपन के वो सारे दिन
रोज याद आते हैं
मगर खुश हूं कि
मेरे पापा के स्नेहभरे हाथ
अब भी सर मेरा सहलाते हैं
और मेरी छोटी सी परेशानी में
वो संबल बन मेरे साथ खड़े हो जाते हैं.......
तस्वीर...साभार गूगल
3 comments:
एक मासूम बच्ची का कितना बड़ा सहारा होते हैं पापा! आपने इस बात कितनी संवेदना से रखा है।
एक मासूम बच्ची का कितना बड़ा सहारा होते हैं पापा! आपने इस बात कितनी संवेदना से रखा है।
भावुक और बेहद मार्मिक रचना..संवेदना का कतरा-कतरा पिरोया है आपने शब्दों में। निश्चित ही आपके पिता महान् है लेकिन वो भी खुशनसीब है कि उन्हें आपसी बेटी मिली। Happy fathers Day :)
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