Monday, June 16, 2014

सम्‍मान के नाम पर

बिंदू पहाड़ पर तीर घि‍सने के नि‍शान 
बांस और केंद के पेड़, जि‍सके नीचे प्रेमि‍यों की अस्‍थि‍यां मौजूद है..


बचपन में कई कहानि‍यां सुनी थी..दादी से....दंत कथाएं.....लोक कथाएं.....खूबसूरत राजकुमारी.....दूर देश से आया राजकुमार.......सात भाईयों की प्‍यारी बहना...जो भाभि‍यों के अत्‍याचार को सहती है.....आखि‍रकार...उसे भाई ही मुक्‍ति‍ दि‍लाते हैं...अपनी पत्‍नि‍यों को त्‍यागकर....ऐसी ही अनेक कहानि‍यां जेहन में हैं...आधी-अधूरी.......
उस दि‍न अपनी यायावरी प्रवृति‍ के कारण शहर से दूर नि‍कल गई.....बूढ़मू प्रखंड के ठाकुरगांव को पार करती जा रही थी....यह रांची से करीब 30-35 कि‍लोमीटर की दूरी पर है। एक जगह मेरे पसंदीदा नीले गुलमोहर के कतार से लगे पेड़ों ने मुझे वि‍वश कि‍या कि‍ गाड़ी से उतरूं और कुछ तस्‍वीरों को कैमरे में कैद कर लूं। सामने ही एक खूबसूरत पहाड़ी थी।

मैं तस्‍वीरें ले रही थी और मेरा नन्‍हा साथी...यानी अभि‍रूप, मेरा बेटा,  पहाड़ देख कर मचलने लगा उपर जाने को। मैं उससे बात कर ही रही थी कि‍ दो महि‍लाएं आईं.....मुझे देखकर रूक गईं और कहा.....उस पहाड़ की तस्‍वीर ले रही हैं.....जाइए न....वहां जो तीर के नि‍शान बने हैं ...वहां से अब भी खून नि‍कलता है.....अगर उसकी खुदाई की जाए।

अब मेरी उत्‍सुकता जाग गई.... कुछ उनसे पूछा तो कुछ वहां के स्‍थानीय लोगों से पता कि‍या तो एक कहानी सामने आई। बि‍ल्‍कुल दादी की सुनाई गई कहानि‍यों की तरह।

सात भाइयों की इकलौती बहन थी। बहन बड़े प्‍यार से खाना बनाती थी रोज अपने भाइयों के लि‍ए। एक दि‍न जब वह साग बना रही थी....उसकी ऊंगली कट गई। और उस साग में उसका खून मि‍ल गया। उसके भाइयों को जब खाना दि‍या उसने तो उन्‍हें और दि‍न की अपेक्षा खाना ज्‍यादा स्‍वादि‍ष्‍ट लगा। वो बार-बार अपनी बहन से पूछने लगे कि‍ क्‍या मि‍लाया है आज खाने में। बहन ने कहा कि‍ जो रोज बनता है वैसे ही बना है।

मगर भाई नहीं माने। भाइयों के लगातार जि‍द पर उसे बताना पड़ा कि‍ साग में उसका खून भी मि‍ला है। भाइयों ने सोचा कि‍ जब खून के कुछ बूंद मि‍लने से खाना इतना स्‍वादि‍ष्‍ट हो सकता है तो बहन का मांस कि‍तना स्‍वादि‍ष्‍ट होगा। तब सब भाइयों ने योजना बनाई और बिंदू पहाड़ पर अपने अपने तीर घि‍सकर तेज कि‍या और दूर एक मचान बनाकर बैठ गए।
जब सांझ के धुंधलके में बहन पानी लाने जा रही थी तो उसे नि‍शाना बनाकर तीर तारा। जब वो मर गई तो उसके मांस का सालन पकाया और हड्डी को मचान..जो कि‍ केंद के पेड़ पर बना था....उसके बगल में जमीन पर गाड़ दि‍या।

लोगों का मानना है कि‍ उस जमीन के उपर बांस का पेड़ नि‍कल आया है। और बिंदू पहाड़ पर जि‍स जगह सातों भाइयों ने अपने तीर तेज कि‍ए थे..उसका नि‍शान बरकरार है और जब कोई उस जगह को थोड़ा गहरा खोदता है तो उसमें से खून नि‍कल आता है, आज भी।

ये कहानी कि‍तनी पुरानी है...कि‍सी को पता नहीं....मगर पहाड़ पर तीर पजाने अर्थात तेज करने के सात नि‍शान, केंद का पेड़ और उसके बगल में बांस का झुरमुट है....एक दंतकथा को सत्‍य सा प्रमाणि‍त करता है।

दरअसल इस कहानी को कुछ वक्‍त ने और कुछ बात छुपाने के लि‍ए तत्‍कालीन ग्रामवासि‍यों ने बि‍ल्‍कुल अलग रूप देकर एक कथा के रूप में बदल दि‍या। वास्‍तव में ये उस जमाने में भी ऑनर कि‍लिंग का मामला था। कुछ अनुभवी बुजुर्गों ने बताया कि‍ दरअसल उस लड़की को एक लड़के से प्‍यार हो गया था। भाइयों की इज्‍जत पर बात बन आई। बहन बहुत प्‍यारी थी सो पहले समझाया....मनाया। लड़के को भी डराया। मगर प्रेम में डूबे युवा इस बात को नहीं माने। आखि‍रकार भाइयों को कड़ा नि‍र्णय लेना ही पड़ा और उन्‍होंने तीर से वार कर दोनों को मार दि‍या। बाद में ये दंतकथा प्रचलि‍त हो गई कि‍ स्‍वादि‍ष्‍ट मांस के लालच में भाइयों ने बहन कर वध कर दि‍या।

 ये सच है...स्‍त्रि‍यां सदा से प्रताड़ि‍त होती आई हैं...समाज के नाम पर तो कभी प्रति‍ष्‍ठा के नाम पर उनकी बलि‍ चढ़ाई जाती रही है..चाहे वो पुरातन काल हो या आधुनि‍क काल......यह अलग बात है कि‍ पहले ये सब घटनाएं अगर कभी होती थीं तो उन्‍हें  कि‍स्‍सों में बदल दि‍या जाता था। अब भी यह केवल घटना के रूप में सामने आती है और पुलि‍स फाइल के नीचे बात दब जाती है....घटना ही बन जाती है।

इतने आधुनि‍क होने के बाद भी ऑनर कि‍लिंग जैसी घटनाओं को हम समाज से खत्‍म नहीं कर पा रहे...वास्‍तव में यह दुर्भाग्‍यपूर्ण है। क्‍या प्रेम इतना वर्जित है या फि‍र कि‍सी बालि‍ग को अपनी मर्जी से जीवन जीने के आजादी क्‍यों नहीं है।  प्राण जाए मगर समाज में प्रेम के कारण पगड़ी नीची नहीं होनी चाहि‍ए....और इसके बरक्‍स चाहे जि‍तने अत्‍याचार, अपराध और  कुकर्म होते रहें, उनकी अनदेखी की जा सकती है। इस पाखंड के साथ हम कि‍स मंजि‍ल की सफर में है...

दैनि‍क जनसत्‍ता के कॉलम 'दुनि‍या मेरे आगे' में 16 जून को प्रकाशि‍त

1 comment:

dr.mahendrag said...

सामजिक परिवर्तन आने में/कई पीढ़ियां गुजर जाती हैं , इतना आसान नहीं है समाज को बदल डालना। पर अब बहुत जरुरी हो गया है कि युवा वर्ग इस कार्य को अपने हाथ मे ले क्योंकि जब युवा जग जाता है तो समाज अपनी राह शीघ्र मोड़ने को , झुकने को मजबूर हो जाता है
अच्छा ज्वलंत सवाल उठाया है,आपने रश्मि जी ,धन्यवाद