ये सूनी सी शाम
ढलता सूरज
और मेरे मन का
काला धुआं.........
ये ढांप लेगी
उस उजले कोने को
जिसे
बेदाग रखने का
वचन दिया था खुद को......
देखो
कुछ डूबने को है
लीलने को आतुर है
सारी लालिमा को
किसी के आंख का काजल.....
ये शाम फिर न आएगी
सूने खेत सा मन
न होने पर पैदावार
बंजर बन जाता है......
जाओ
कि इस ऊब और डूब में
हम परछाईं थामे रहते हैं
वाकई
कल किसने देखा है
तस्वीर...मेरे गांव की
4 comments:
बेहतरीन प्रस्तुति
बेहतरीन प्रस्तुति
किसी ने नहीं देखा कल .. बस कुछ अश्पष्ट से चित्र है जो उभरते हैं पटल पर ...
बहुत सुंदर रचना रश्मि जी
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