बहुत लंबा है
जिंदगी का सफ़र
चलते-चलते थक गई
थम सी गई थी
वक्त दोपहर की धूप सा
मुझ पर मेहरबां रहा
मगर अब आ के
साहिल पर नज़र पड़ी
चाहती हूं
शाम होने के पहले
एक बार
फिर सब खोने से पहले
जिंदगी के सफ़ीने को
किनारे तक पहुंचा दूं
वहीं ठहरो तुम
अपनी बांहे फैलाए
बस कुछ देर और
नीला पानी चूम लेगा
धरती की हरीतिमा
और मेरे अंदर का सूखा दरख़्त
हरा-भरा हो जाएगा
तुमसे मिलकर....तुम्हें पाकर
तस्वीर....एक डैम की जहां एक बूढ़ा आदमी मछली मारने के लिए कश्तीनुमा डोंगी में था...
3 comments:
उम्दा प्रस्तुति.
सादर.
उम्दा प्रस्तुति.
सादर.
इस सफ़र में हर किसी को अपनी चाहतों का साहिल मिले तो कितना बढ़िया !
बहुत सुन्दर रचना !
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