Wednesday, February 12, 2014

“धोरों खि‍ला कास – फूल”- (भाग –I)


सुनिए ....आना है मुझे आपके पास.....बस .....मैं कुछ दूर चलूंगा आपके संग-संग.....कि‍सी मंदि‍र की राह में....आपको छूकर आती हवा को भर लूंगा अपनी सांसों के अंदर....ढह जाउंगा...कटे दरख्‍त की तरह आपकी कदमों में और आपका अक्‍स इन आखों में भर दूर चला जाउंगा ...इस चाह को खुद में समेटे कि.....ए.. काश....मेरी आंखें अब न खुले कभी....मैं आपके अलावा कुछ और नहीं देखना चाहता.....मैं अपना भीगा मन लि‍ए चला जाउंगा दूर...बहुत दूर...

ये प्रेम नि‍वेदन था, प्रणय परिचय या कि‍सी बौराए से इंसान का स्‍वगत भाषण.....मैं सुनती रही...डूबती रही बातों में..भीगती रही जज्‍बातों में.....और जब लगा..मेरी शि‍राओं में भी प्रेम अंगडाइयां लेने लगा है....मैंने रोक दि‍या तुम्‍हें आगे कहने से...और खुद को महसूसने से...

मगर प्रेम क्‍या कि‍सी बंदि‍श का मोहताज होता है......चाहो न चाहो...जि‍ससे होना होता है....हो जाता है....तुमने खुद को रोका बहुत...पर रूक न पाए....और कर बैठे मुझसे प्रेम.....मैंने कभी नहीं चाहा तुम्‍हारी आवाज पर रूकना.....यहां तक कि‍ मुझे छू कर जाती हवाओं को भी तुम्‍हें सौंपना......मगर इतने हौले से प्रेम उतर आया दि‍ल में जैसे आंखों में नींद उतरती है।

तुमने इस स्‍नेहा को अपने स्‍नेह से बांध लि‍या। प्रेमपाश में बहुत कशि‍श होती है। एक मीठा सा अहसास...हल्‍का-हल्‍का दर्द तारी रहता है, दि‍ल में। कोई चलता रहता है साथ-साथ..आपकी सोच में।
तुमने तो सब कहकर बता दी दि‍ल की बात। अब जो मेरा दि‍ल धड़क उठता है बार-बार......तुम्‍हें देखकर..तुम्‍हारी आवाज सुनकर....राह की सूखी पत्‍ति‍यों पर दो जोड़े कदमों की आहट पर....कहो..कैसे कह दूं तुमसे....हां ...हमें भी प्‍यार हो गया है आपसे।

इतनी हि‍म्‍मत नहीं कि वो सब कह दूं...या संग-संग चल रहे जब हम तो हौले से तुम्‍हारी उंगलि‍यों को छू लूं....मान लूं....कि‍ मेरा भी जी चाहता है तुम्‍हारी हथेलि‍यों को थाम दूर तक चलते जाना.....नदी के कि‍नारे शि‍वालय में संग-संग अर्चना करना और हाथों में बेला के फूल भरकर तुम पर उछाल देना....फि‍र कहना......
समेट लो न सारे फूल और अपने हाथों एक गजरा गूंथकर मेरी वेणी पर लगा दो.....

मैं तुम्‍हारे छुवन के अहसास के साथ आज का दि‍न गुजारना चाहती हूं.....सुनो मेरे अनजाने से मीत...........मैं भी तुम्‍हें प्‍यार करना चाहती हूं।

2 comments:

शिवनाथ कुमार said...

मगर प्रेम क्‍या कि‍सी बंदि‍श का मोहताज होता है......चाहो न चाहो...जि‍ससे होना होता है....हो जाता है..
बहुत सही लिखा आपने ...

dr.mahendrag said...

मन की व्यथा कहाँ तक सोच लेती है.सुन्दर भावाभिव्यक्ति