“धोरों खिला कास – फूल”- (भाग –II)
तुम अब समझने लगे हो शायद....जो बात तुम कहना चाहकर नहीं कह पा रहे...मैं समझना नहीं चाहती मगर भी समझ रही हूं। मुझे पता है जब शब्द खो जाते हैं या उन पर बंदिशें लगाई जाती हैं तो आंखें बोलती है.....महसूस करो तो सांसे भी बोलने लगती है.....
नहीं कहा तुमने कुछ भी....आज तक...सिवा इसके कि मुझे साथ चलने दो....रहने दो..चाहे जिस रूप में रखो..मैं रहूंगा। बस साथ चाहिए...इतना अधिकार चाहिए कि जब मन करे....बेझिझक तुम्हें पुकार लूं....बस एक नजर मुड़कर देख लेना...मुस्करा देना...
सच.....मैंने ऐसा इंसान नहीं देखा था आज तक। उसकी लरजती आवाज चुगली करती है उसके जज्बातों की। मगर उसने संयम के चाबुक से खुद को साध रखा है।
मैं जानती हूं...अगर मैं उसे किसी स्नेहिल रिश्ते से बांधू तो वो बेझिझक बंध जाएगा। क्योंकि उसे खुद नहीं पता कि उसके अंतस में क्या है। उसकी चाह ऐसी है जैसे भावना में डूबे इंसान की होती है जब वह किसी मंदिर में अपने इष्ट के आगे खड़ा होता है।
वह सारी बातें दुहराता है मन की.....अस्फुट स्वर में...इस चाह कि साथ कि जिसके आगे वह कह रहा है...वो तो अंर्तयामी है। सुन लेगा सब...समझ लेगा सब....और पूरी भी करेगा इच्छा। उसे बस रोना आता है.....दर्द से..चाह से..इतनी आस्था से कि साष्टांग झुक जाए.....उसी के आगे....जिसकी पूजा करता है वो...
अब मेरे अंदर उथल-पुथल मची है। मैं कैसे नकार दूं उस बात को जो मेरा दिल जान गया है। ऐसा पावन प्यार....कौन करता है आज किसी को। हर कामना से रहित..बस मौन साधक की तरह साथ चलने की चाह। शायद वो बहुत खुशनसीब इंसान होगा जिसे इसका प्यार मिलेगा।
मन स्वार्थी सा होने लगा है। मान लूं क्या कि मुझे पता है सब...कह दूं सब कि हां..शायद तुम्हीं हो जिसके इंतजार में इतनी उम्र गुजार दी मैंने। तय था हमारा मिलना...बस वक्त ज्यादा लग गया...काश....मिलते तब तुम जब आंखों में किसी के सपने सजते हैं....कमसिन सी उमर में...तब सब कहना कितना आसान होता है न.....
अब.....कैसे कहूं...तुम ही कहो......कि तुम बन जाओ मेरे..सदा के लिए...
तस्वीर..साभार गूगल
1 comment:
सुन्दर लेखन
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