Friday, October 18, 2013

यादों के गर्म लि‍हाफ़....


अब हर रोज
ढलती शाम को
बढ़ने लगी है
हवाओं में खुनकी
जैसे तुम कभी
हौले-हौले
समाने लगे थे
मन में
और मन को
पता भी नहीं चला था

इस बार की
सर्दी
ठि‍ठुराएगी बहुत
ओस ने
शुरू कर दि‍या है
ढलते शाम ही
धरती को ढकना
जैसे
मेरी चेतना पर
कभी तुम
छा जाया करते थे


जिंदगी में आने वाला
सर्दियों का मौसम
हर बरस
बर्फ के फाहों सी
सफ़ेद नरम संवेदनाएं
लेकर
मन वि‍भोर करने
नहीं आता
कभी-कभी
अलाव नहीं
दि‍ल के चराग जला
दूर करनी होती है
दरि‍मयां फैली शीतलता

बात मानो मेरी
इस बरस तुम
गुजरे लम्‍हात के
रेशे से बुन
एक नई चादर
बना लेना
और
ठंड से कांपती
रातों को
यादों के गर्म लि‍हाफ़
पहना देना
यकीनन
कुछ न कुछ बचा रहेगा
इस चादर तले....


तस्‍वीर--साभार गूगल

9 comments:

विभूति" said...

भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...

Tamasha-E-Zindagi said...

आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी यह विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज के ब्लॉग बुलेटिन - हंसी के फव्वारे पर स्थान दिया है | बहुत बहुत बधाई |

Unknown said...

खूबशूरत भावों का संचरण है श्रृंगार है विप्रलंभ है ,जो भी है अनुभूति की पराकास्ठा है

kuldeep thakur said...

सुंदर रचना के लिये ब्लौग प्रसारण की ओर से शुभकामनाएं...
आप की ये खूबसूरत रचना आने वाले शनीवार यानी 19/10/2013 को ब्लौग प्रसारण पर भी लिंक की गयी है...

सूचनार्थ।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

वाह जी बढ़ि‍या है

Sarik Khan Filmcritic said...

Very nice

Unknown said...

प्यार भरी बहुत सुन्दर रचना |

मेरी नई रचना:- "झारखण्ड की सैर"

Dr. Shorya said...

बहुत सुंदर

कालीपद "प्रसाद" said...

अनुभूतियों के धागों से बुनी सुन्दर चादर |
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