खड़ी रही ठिठक कर शाम
आज मेरी देहरी पर
मन में छाया
बेतरह सन्नाटा
स्याह आसमान से जा मिला
इतनी खामोश हुई फिजां
कि एक पत्ता भी नहीं हिलता
मालूम होता है
मेरी उदासी के बोझ तले
दबकर रह गई
हवाओं की कोशिश भी
अब मैं हूं
खाली मन और आंखों में
खाली आस्मां का अक्स लिए
थमे वक्त को
ढकेलने की कोशिश करते
आज फिर
छह चालीस की प्लेन
उड़ान भर रही है
मेरी आंखों के आगे
और मैं इस सोच में
बैठी हूं
कि चले गए लोगों का गम
कभी नहीं जाता
और जब
मेरी आंखों के सामने
एक रोशनी टिमटिमाएगी
होश आएगा
कि आज की अंतिम प्लेन भी आ गई
मगर
बरसों से ठिठकी शाम
आज भी इस इंतजार में है
कि उजाला छोड़ कर जाए
या दे दे मुझे स्याह रात की सौगात......
एक अकेला कबूतर....
7 comments:
बरसों से ठिठकी शाम
आज भी इस इंतजार में है
कि उजाला छोड़ कर जाए
या दे दे मुझे स्याह रात की सौगात
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ .
http://yunhiikabhi.blogspot.com
अच्छी भावाभिव्यक्ति हैं ,समय का चक्र हैं ..मिलन -विछोह होते ही रहते हैं |
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नई पोस्ट-“जिम्मेदारियाँ..................... हैं ! तेरी मेहरबानियाँ....."
सुन्दर प्रस्तुति!
बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति.हार्दिक बधाई और शुभकामनायें!
कभी यहाँ भी पधारें
गहरा एहसास लिए ...
badhiya lagi prastuti.
खुबसूरत अभिवयक्ति......
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