नियति है या प्रकृति.....
फिर एक बार
अविश्वास..आशंका और अभिशाप
के बीच
झूलता मेरा अस्तित्व
मुट़ठी भर सुख पाना
और खातिर इसके
सारा अर्जित गंवाना
जाने नियति है या प्रकृति
पर बार-बार होता है
हमें छलता है
और सारे आरोप-प्रत्यारोप
के बीच
पेंडुलम की तरह
झूलता मेरा अस्तित्व
तस्वीर--साभार गूगल
8 comments:
और सारे आरोप-प्रत्यारोप
के बीच
पेंडुलम की तरह
झूलता मेरा अस्तित्व … वाह , एक सशक्त रचना
बहुत सुंदर सशक्त रचना ,,,
RECENT POST : जिन्दगी.
बढ़िया कविता...
बहुत उम्दा
खुबसूरत प्रस्तुती......
बहुत बढ़िया ...
sach hai ..sare aropo pratyaropo ke bich jhulta astitav ..sundar rachna ..badhayi :)
वाह बहुत सुंदर जज़्बात
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