Sunday, July 3, 2011

कि‍सी रोज


बही जा रही हूं....
अपने द्वन्द्व में घि‍री
पहाड़ों पठारों
से रास्‍ता बना
अपने सागर से
मि‍लने
आतुर हो...
मगर क्‍या
बाहें पसारे
सागर खड़ा होगा
मेरे स्‍वागत में
और मैं नि‍र्झर-
नि‍र्मल
सरि‍ता
जा मि‍लूंगी उसमें
कि‍सी रोज.....
शायद कि‍सी रोज

2 comments:

ashokjairath's diary said...

हमारा फकीर होने का सपना शायद इसी तड़प से उगा है ... कब मिलेंगे उस से ... सच कब मिलेंगे उस से ...

sheen said...

very nice....