एक प्रश्न
कुरेदता है बार-बार
कि जब समय
इतना परिवर्तनशील है
तो क्यों
अपने दुख-दर्द को
बांटता है आदमी,,,,
परिणति
कुछ भी नहीं
फिर उजालों से छिपकर
क्यों रोता है आदमी।
कुरेदता है बार-बार
कि जब समय
इतना परिवर्तनशील है
तो क्यों
अपने दुख-दर्द को
बांटता है आदमी,,,,
परिणति
कुछ भी नहीं
फिर उजालों से छिपकर
क्यों रोता है आदमी।
10 comments:
सही कहा आपने। बधाई।
Gahri abhivyakti.
अब के बरस वक़्त है,
एक मेहमां की तरह,
मेरा वज़ूद भी है,
एक टूटे हुए तारे की तरह,
वो चला गया यूं आकर,
हवा के एक झोंके की तरह,
सफ़र लम्बा है मगर,
मिलेगी मुझको वो एक मंज़िल की तरह,
अब के बरस वक़्त है,
एक मेहमां की तरह,
मेरा ब्लॉग भी देखे
सेटिंग्स मे जाकर वर्ड वेरिफिकेशन हटाए टिप्पणी देने में आसानी होगी
क्योंकि मनुष्य हृदयहीन नहीं जब तक आत्मसम्मान या शंका की बात न हो!
achchi rachna
sundar
हा...हा..हा..हा..हा...रोना तो अंधेरों में ही होता है रश्मि जी........उजाले तो खुशियों के लिए होते है....है ना.....??
इन उजालों - अंधेरों !!! रोने - हंसने के चलते जीवन क्षण -क्षण आगे की और सरकता रहता है !!! वरन उनसे भी पूछिए जो पत्थर बन कर इन फिलीग्स से परे हो गये है !!!
कविता भी है और प्रश्न भी.....
और उत्तर भी छिपा है इसी में
उत्तर की तलाश तो अपन नहीं करेंगे
कविता में मगर कोई गहन बात है....!!
वाह.
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