Wednesday, November 8, 2023

पंचपर्व दीपावली



दीपावली..दीपोत्‍सव, एक ऐसा पर्व जि‍से देश में तो सभी मनाते ही हैं, वि‍दशों तक में इसकी धूम है। कहते हैं कि‍ राम जब वनवास से वापस आए तो चारों तरफ दीप जलाकर उनका स्‍वागत कि‍या गया। तब से दीपावली मनाया जाने लगा। मगर यह ही अकेला कारण नहीं। यह भी माना जाता है कि‍ देवी लक्ष्‍मी जी भी कार्तिक मास की अमावस्‍या के दि‍न समुद्र मंथन से अवतार लेकर प्रकट हुई थीं। चूंकि‍ भगवान गणेश सभी देवों में प्रथम पूज्‍य हैं इसलि‍ए उनकी भी पूजा कार्तिक अमावस्‍या को लक्ष्‍मी जी के साथ होती है। यह भी कहा जाता है कि‍ दीपावली की रात ही लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे शादी की। कुछ लोग दीपावली को विष्णु की वैकुण्ठ में वापसी के दिन के रूप में मनाते है। मान्यता है कि इस दिन लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं और जो लोग उस दिन उनकी पूजा करते है वे आगे के वर्ष के दौरान मानसिक, शारीरिक दुखों से दूर सुखी रहते हैं तो कुछ लोग यह भी मानते हैं कि‍ कार्तिक अमावस्‍या को भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था।


यह तो हुई पुराणों की बातें। वजह चाहे जो भी हो, दीपावली अपने साथ उमंग और खुशी लेकर आती है। सबसे अच्‍छी बात कि‍ यह ऐसा पर्व है जि‍से मनाने से पहले हम घर का कोना-कोना साफ करते हैं। यह स्‍वच्‍छता का प्रतीक है और रौशनी करना खुशी का। दीपोत्‍सव का संदेश है- ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’। हिंदू दर्शन में योग, वेदांत, और सामख्या विद्यालय सभी में यह विश्वास है कि इस भौतिक शरीर और मन से परे वहां कुछ है जो शुद्ध अनंत, और शाश्वत है जिसे आत्मन् या आत्मा कहा गया है। दीवाली, आध्यात्मिक अंधकार पर आंतरिक प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई का उत्सव है।


दीपावली आते ही सबके मन में असीम उमंग भर जाता है जो पूरे वर्ष भर में कभी महसूस नहीं होता। मुझे याद है सबसे पहले गांव में हम घरौंदे बनाने की तैयारी में लग जाते थे। ठीक दशहरे के बाद। स्‍कूल से घर लौटते ही परि‍वार और आसपास के सारे बच्‍चे कुदाल खुरपी और बोरा लेकर खेतों की ओर नि‍कल जाते। नदी कि‍नारे की चि‍कनी मि‍ट्टी इकट्ठा करते घरौंदे के लि‍ए। उस वक्‍त खेतों में कच्‍ची मूंगफलि‍यां लगी होती। हमलोग उसे भी नि‍काल कर खाते और मि‍ट्टी ढोकर घर लाते। 


उस समय सारे घरवाले अपने काम और सफाई में व्‍यस्‍त रहते। हमारा काम हमें ही करना होता था। दो तीन दि‍नों तक मि‍ट्टी, ईंटे और पटरे यानी लकड़ी के तख्‍तों का इंतजाम करते। अब होती आंगन के एक कोने में घरौंदा, जि‍से घरकुंदवा कहते थे हम, उसे बनाने की तैयारी। बच्‍चों में होड़ लगती कि‍ कि‍सका घर सबसे सुंदर बनेगा। हम बाकायदा पूरा घर बनाते, बाहर आंगन। ईंटे रखकर उस पर मि‍ट्टी चढ़ाते। लकड़ी के तख्‍ते से छत बनाते। कई बार एकमंजि‍ला तो कई बार दो मंजि‍ला। ये सारा काम हमलोग स्‍कूल से लौटने के बाद करते। उसकी लि‍पाई-पुताई का काम धनतेरस के दि‍न तक पूरा कर लि‍या जाता। 


घरौंदा प्रतीक है सृजन के सुख का। बच्‍चों को यह शि‍क्षा बचपन से दी जाती है कि‍ बड़े होकर तुम्‍हें अपना घर बनाना है और उसे अपने हाथों से संवारना भी है। यह मेहनत और संयम का कार्य है, जि‍से खेल-खेल में सि‍खाया जाता है बच्‍चों को। हालांकि‍ अब लोगों के पास इतना वक्‍त नहीं। लोग रेडीमेड घरौंदा खरीद लेते है। पर दशक पहले ऐसी बात नहीं थी। 


धनतेरस के दि‍न गांव का कुम्‍हार बड़े से दौरे में दीया और कुम्‍हारि‍न अपने दौरे में कुल्‍हि‍या-चुकि‍या और ग्‍वालि‍न लेकर आती। कुल्‍हि‍या-चुकि‍या, जांता, सि‍ल-लोढ़ा, चूल्‍हा, चकला-बेलना यानी रसोई के सारे बर्तन और घोड़े-हाथी, और ग्‍वालि‍न, एक लड़की की मूर्ति जि‍सके हाथ में दि‍ए बने होते, सारे इकठ्ठा कर लेती। मेरी कोशि‍श होती कि‍ जि‍तने भी सामान कुम्‍हार ले आए, उसे न लौटाऊं। कई बार पि‍ता खीजते, इतने सारे दि‍ए और खि‍लौनों का करोगी क्‍या। पर मैं नहीं मानती। कहती, पापा मुझे सारे दि‍ए जलाने है। कुम्‍हार भी कहता, ले लो न बाबू, बि‍टि‍या को पसंद है। मैं भी अब बचे हुए सामान कहां लौटा कर ले जाऊंगा। अंतत: मेरी जि‍द पूरी होती। दीपावली कुम्‍हारों के लि‍ए पैसे कमाने का समय है। यही एक वक्‍त है जब मि‍ट्टी के दीयों की मांग सबसे ज्‍यादा होती है साथ ही साथ खि‍लौनों की भी। उनकी आजीवि‍का के लि‍ए यह बहुत जरूरी है कि‍ हम अपनी परंपरा का र्नि‍वाह करते हुए मि‍ट्टी के दीप ही जलाएं।  


धनतेरस की शाम हम बाजार जाते। रौशनी से नहाया बाजार, बर्तनों के ढेर और लोगों की भीड़। उस दि‍न मुझे बड़ा अजूबा लगता। साधारणत: उस वक्‍त गांव की महि‍लाएं बाजार नहीं जाती थी, मगर उस दि‍न देखती सभी लोग, मां, दादी, चाची और पड़ोस की महि‍लाएं खुद जाती और पसंद की चीजें खरीद लाती। पीतल के बर्तन, झाड़ू, गणेश-लक्ष्‍मी की मूर्तियां और सोने-चांदी के सि‍क्‍के लोग खरीदते। इन दि‍नों तो धनतेरस का बाजार बहुत बड़ा हो गया है और करोड़ों का कारोबार होता है। सि‍क्‍के से लोग सोने-हीरे के गहनों के साथ-साथ गाड़ि‍यों की भी खूब खरीददारी करते हैं। मगर उन दि‍नों जब त्‍योहार का व्‍यवसायीकरण नहीं हुआ था तो मुझे याद है दीवाली के आसपास हर वर्ष वहां नौटंकी वाले आते थे। साथ ही मीना बाजार भी लगता था। देर रात सारे काम खत्‍म कर पूरा का पूरा मुहल्‍ला नौटंकी देखते जाता था। हम बच्‍चे बहुत हैरानी से सब देखते और मां-चाचि‍यों की बातें खत्‍म ही न होती थी। 


धनतेरस के अगले दि‍न छोटी दीवाली। घर की साफ सफाई की समाप्‍ति‍ और रसोई में पकवान की तैयारी शुरू। मि‍ठाई और पारंपरि‍क भोजन की तैयारी। अगले दि‍न धुसका, आलू की सब्‍जी, पुलाव, गोभी की मसालेदार सब्‍जी बनती। मि‍ठाईयां कुछ घर में बनती, कुछ बाजार से आती। छोटी दीवाली के दि‍न थोड़े दि‍ये जलते हैं । मंदि‍र में, तुलसी चौरे के नीचे, कुंए और गौशाला में। छत पर चारों दि‍शाओं में और कुछ बाहर..कुछ खि‍ड़कि‍यों कुछ छज्‍जे पर। उस दि‍न बच्‍चे सि‍र्फ रौशनी जलाते। शोर वाले पटाखेे बि‍ल्‍कुल नहीं। 


रात हमारे लि‍ए वि‍शेष खास होता। शाम के वक्‍त ही दादी एक पुराना दीया ढूंढकर रख लेती। जब सारे लोग सोने चले जाते तब दादी हाथ में वही दीया, जि‍समें सरसों का तेल भरा रहता, और जलता रहता, लेकर आती और बच्‍चों के तलवे में तेल लगाती। सर पर आरती देकर कमरे में दि‍या घुमाती। ऐसा वो पूरे घर में करती और होठों ही होंठो कुछ बुदबुदाती रहती। सब सोये होते उस वक्‍त। मैं आंखें मूंद सोने का बहाना करती। दादी पूरे घर में दीया घुमाकर घर के बाहर नि‍कलती और दूर मैदान में रख आती। इसे यमदीया कहते हैं। गहन अंधकार में एक दीया बड़े से मैदान के बीच बेहद आकर्षक लगता। मुझे तब समझ नहीं आता था कि‍ दादी देर रात क्‍यों रखती है दीया। बड़ा रहस्‍यमयी होता था सब। पर बहुत अच्‍छा लगता था। कहते हैं यमराज की खुशी की खाति‍र यह दि‍या नि‍काला जाता कि‍ वह हमारे परि‍वार की तरफ अपनी दृष्‍टि‍ न डालें। घर की सबसे उम्रदराज महि‍ला यह जि‍म्‍मेदारी नि‍भाती। दरअसल बड़ों का आर्शीवाद बच्‍चों के सर पर रहे, इस प्रथा में यह भावना नि‍हि‍त होती है। 


अगले दि‍न दीपावली की सुबह नींद खुलती तो देखती पापा और दादी बड़े से बरतन में पूजा घर के सारे भगवान को नहला रहे होते। उस दि‍न सुबह सि‍र्फ पूजा के कमरे की सफाई होती और भगवान नए वस्‍त्र पहनते। उस दि‍न पूजा होने तक पि‍ताजी व्रत रखते। मां रसोई में लगी होती। हम बच्‍चे नााश्‍ता करने के बाद बड़े से बाल्‍टी या टब में पानी भर सारे दीये भि‍गो देते। घंटे भर बाद पलट कर पानी सुखाने के लि‍ए रखते। अपने घरकुंदवा या घरौंदा सुंदर से सजाते। दोपहर तक नहा-धोकर नए कपड़े पहन लेते।


गोधूि‍ल बेला में दीया जलाया जाता था। मां पूजा के कमरे में गणेश-लक्ष्‍मी पूजन की तैयारी करती और मैं और छोटी बहन थाली में घी के दीपक लगाते। कई जगह दीपावली की रात काली पूजा भी होती है। कुबेर की भी पूजा की जाती है। दीपावली के दि‍न नि‍यम था कि‍ पहले मंदि‍र में भगवान के आगे दीया लगेगा, फि‍र सबलोग अपने घर में लगाएंगे। हम थाली में दीप लेकर घर के सामने वाले मंदि‍र में सबसे पहले जाते। सारे घरों में दीये लगने शुरू हो जाते। कि‍सी घर की छत पर दीया सजा मि‍लता तो कि‍सी घर के बाहर केले का थंब लगाकर उस पर दीया इस तरह से लगाया मि‍लता कि‍ अद्भुत दृश्‍य नजर आता। कहीं बच्‍चे फूलझड़ी छोडते मि‍लते। 


शाम को पूूजा होती रहती और हम कोने-कोने को रौशन कर रहे होते। छत, आंगन, कुंआ यहां तक कि‍ गौशाला में भी दि‍ये सजाते। मजे की बात कि‍ हमें जरा भी थकान नहीं होती। तब तक पूजा संपन्‍न हो जाती। मां की आवाज पर आरती में शामि‍ल होते। इसके बाद बारी आती हमारे घरौंदों के पूजन की। प्राय: घर की बेटि‍यां ही घरौंदा पूजतीं। अपने हाथों से बना हमारा छोटा सा घर पूरा सजा संवरा रहता। दूधि‍या मि‍ट्टी से लीपने के बाद उस पर रंग-बि‍रंगी चि‍त्रकारी कर हस्‍तकला का नमूना पेश करते थे हम। जि‍तने मि‍ट्टी के खि‍लौने थे, उन सबको सजा देते थे छोटे से घर में। हमारी ग्‍वालि‍न के हाथों के दि‍ए झकमक जलने लगते और घर भरने के लि‍ए भाई के नाम से छोटे चुकि‍ए में खील-बताशे भरते। सबसे दि‍लचस्‍प बात है कि‍ उसमें पांच तरह के अनाज होते थे और दीपावली के एक दि‍न पहले हम खुद भुनवा कर लाते थे। दीपावली को रंगोली बनाकर सजाया जाता है घर।


यह प्रथा खास बेटि‍यों के लि‍ए इसलि‍ए क्‍योंकि‍ माना जाता है कि‍ लड़कि‍यों से घर भरा लगता है। इसलि‍ए इस रस्‍म को नि‍भाने के लि‍ए बेटि‍यां जरूरी होती है। साथ ही गर्मी के बाद नए अनाज होते हैं तो उनको भी पहले-पहल भगवान को अर्पित कि‍या जाता है। बेटि‍यों के अंदर की कला को नि‍खारने का काम करता है घरौंदा। चि‍त्रकारी और रंगोली का सुंदर प्रदर्शन होता है दीपावली में। 


प्रसाद लेने के बाद सभी बच्‍चे सीधे घर के बाहर। पटाखों का थैला सबके हाथ में होता और फूलझड़ी़, आलू बम, सांप, बीड़ी बम, जलेबी, अनार...क्‍या कुछ नहीं होता था हमारे पास। जी भरकर पटाखे छोड़ते और पूरे मैदान में दौड़ते फि‍रते..दोनों हाथों में फूूलझड़ी थामे..जैसे हमारे पैरों को जलेबी की रफ्तार मि‍ल गई हो। देर रात तक कई दौर चलता पटाखों का। इस बीच मैं तेल और बाती लेकर एक चक्‍कर सारे दीयों की लगाती। जि‍स दीये का तेल कम मि‍लता उसमें दुबारा तेल भरती और जि‍सकी बाती ज्‍यादा जल चुकी हो, उसे बदल देती। मेरा यह कार्य तब तक चलता रहता जब तक मैं नींद से चूर होकर बि‍स्‍तर में नहीं चली जाती। सारेे लोग सो जाते और मैं दीया-बाती करती रहती। खास बात है कि‍ दीपावली में करंज के तेल के दि‍ये जलते हैं। इस तेल के जलने से कीटाणुओं का नाश होता है जो कि‍ बरसात के बाद बहुत होते हैं। यह भी एक तरह से वातावरण स्‍वच्‍छ करने और कीड़े-मकौड़े मारने का ही कार्य है, वरना वर्ष भर में सि‍र्फ दीपावली में ही करंज तेल जलाने का रि‍वाज नहीं होता। 


इसी रात मां काजल बनाती थी आंखों में लगाने के लि‍ए। घी के दीये के ऊपर कांसे की कटाेरी पलटकर रख देती थी रात को सोने के पहले। सुबह जब उसे पलटकर देखते तो कालि‍ख की मोटी परत बि‍छी मि‍लती। उसे कजरौटे में भरती थी मां और हम बच्‍चों को काजल लगाती थी। दीपावली की रात ऐसा लगता जैसे आकाश के सारे तारे जमीं पर आ गए। देर रात हम सोते पर सुबह जल्‍दी जागना होता। इस रात घर से दरि‍द्रता भगाने की भी रस्‍म नि‍भाई जाती। लोग लक्ष्‍मी का आगमन हो, इसके लि‍ए अपने दुकान और घरों में पूजा कर शुभ-लाभ लि‍खते और स्‍वास्‍ति‍क बनाते हैं। कुई जगह लोग अपने घर के दरवाजे, यहां तक कि‍ ति‍जोरि‍यां भी बंद नहीं करते। पूरे घर को दीये और बि‍जली की लड़ि‍यों से सजाया जाता है। आम के पत्‍ते का वंदनवार भी लगता है। माना जाता है कि‍ इस रात जि‍सके घर में रौश्‍ानी होती है मां लक्ष्‍मी उसके घर आती है। कई लोग इस कारण सारी रात जगते हैं। यह कुप्रथा भी है इस रात जुआ खेला जाता है।  


दीपावली की दूसरी सुबह..यानी सोहराई का दि‍न। इसे गोवर्धन पूजा भी कहते हैं। सबसे पहले हमें उठकर घरौंदे से कुल्‍हि‍या-चुकि‍या नि‍कालना होता जि‍समें रात खील-बताशे भर के रखे थे। उसे भाइयों को देती। हम बहनों को खाना नहीं था। हम उठकर देखते तो पता लगता है गौशाले की सफाई हो चुकी है। गोबर से लीपा जा चुका है। आंगन में लकड़ी के चूल्‍हे पर बहुत मात्रा में अनाज पक रहा है। पांच तरह के अनाज मिलकर बनते थे जिसे पख्या कहा जाता था। देखते ही दादी का आदेश होता...जाओ चौक पूर आओ। यानी रंगोली बनाओ। तब हम दीवाली के दूसरे दि‍न रंगोली बनाते थे। घर के बाहर से अंदर गौशाले तक।


रंगोली बनाने के लि‍ए चावल के आटे का घोल बनाते और उस पर सि‍ंदूर लगाकर सजाते। इस बीच गाय-बैल को नहा दि‍या जाता। उसके बाद उसके पूरे शरीर में दीयों काे अलग-अलग रंग में डुुबाकर छाप लगाई जाती। उनके सींग पर तेल मला जाता। फि‍र आंगन से अंदर उनकी पूजा कर लाया जाता। गौशाले के नाद में उनके लि‍ए पकाया गया अनाज परोसा जाता। सारा दि‍न कुछ न कुछ क्रम चलता रहता।


जब शाम के चार बजते, तो सारे लोग अपने जानवरों को, वि‍शेषकर गाय-बैल को खूंटे से नि‍काल लाते। उन्‍हें खुला छोड़ दि‍या जाता। सारे जानवर इकट्ठे होकर उछलते-कूदते। हमें बहुत मजा आता देखकर। उस दि‍न इनको पूरी स्‍वतंत्रता होती कि‍ जि‍धर चाहे चले जाए। कोई रस्‍सी नहीं पकड़ता। घंटे-दो घंटे तक यही सब चलता। हम बच्‍चे कभी बाहर जानवरों को देखने जाते तो कभी उनके दौड़ने से डरकर घर में छुप जाते।


सांझ ढलने से पहले सब लोग अपने-अपने जानवरों को हांककर वापस गोशाला ले आते। गौ-पूजा की समाप्‍ति‍ होती। देर शाम फि‍र दीये नि‍काले जाते। आज बासी दीयों का ही प्रयोग होता सजावट के लि‍ए। हां, मदि‍र, तुलसी आदि‍ में नए दीये लगते। कल के बचे पटाखे चलाये जाते। फि‍र से एक छोटी दीवाली मनती।


अगला दि‍न भाई दूज का होता। हम लड़कि‍यों काेे तब तक व्रत रखना होता है जब तक पूजा नहीं हो जाती। यह पूजा महल्‍ले में कि‍सी एक के घर होती और सब लोग वहीं आकर पूजा करते। गोबर से आंगन या छत में यम-यमी की आकृति‍ बनती। बाहर चौकोर घेरा बनाकर पूरा घर बनाया जाता। घर के अंदर गोबर से कई चौकोर खाने बनते और घेरे के अंदर सांप, बि‍च्‍छू, चूल्‍हा आदि‍ बनाया जाता है। इस पूजा में सबसे कष्‍टप्रद बात होती रंगीनी या भटकईया का कांटा ढूंढना। बहनेंं पूजा के दौरान अपने भाई को श्राप देती है, फि‍र थोड़ी देर बाद पश्‍चताप करने के लि‍ए जीभ पर रंगैनी का कांटा चुभाती हैं। अपने भाई की लंबी उम्र की कामना से पूजा करती हैं और कहानी सुनती हैं। दो या तीन कहानी तो पक्‍का बोली जाती थी चाची, ताई द्वारा। हमें बड़ा मजा आता यूं सुनकर कहानी। जि‍समें भाई बहन का प्‍यार होता और अक्‍सर भाभि‍याें की बुरी छवि‍ होती।


सबसे वि‍चि‍त्र बात की पूजा समाप्‍त होने के बाद यम-यमी के सीने पर एक ईंट धरा जाता और उसमें एक पांव धरकर सारी बहनेंं गीत गाते हुए पार होती थी। अपने भाई की रक्षा और उनके दुश्‍मनों का बुरा हो, यह कामना करती हैं बहनें। यह पर्व अब भी मनाया जाता है। इसके बाद भाई को प्रसाद देने के बाद बहनेंं कुछ खाती। प्रसाद में चना होता जि‍से भाई को नि‍गलना होता है। पूजा के वक्‍त रूई की एक माला बनती है, जि‍से 'आह जोड़ना' कहते हैं। इस माला को बनाते वक्‍त मौन रहा जाता है और भाई की मंगलकामना की जाती है। जि‍से पूजा के बाद भाई की कलाई में पहना दि‍या जाता है। भाई भी बहनों को पैसे या कोई उपहार देते। मुख्‍यत: यह भाई-बहनों के बीच के प्‍यार को बढ़ानेे वाला त्‍योहार है, राखी के अलावा। इस दि‍न सभी भाई अपनी बहन के घर जाते। मान्‍यता है कि‍ जि‍स भाई की हड्डी को बहन का श्राप लगा होता है, उसकी आकाल मृत्‍यु नहीं होती।

यह त्‍योहार भाई-बहन के प्‍यार का प्रतीक है। राखी के बाद यही ऐ पर्व है जि‍समें भाई बहन का साथ जरूरी है। प्राय: वि‍वाहि‍त बहनों के घर भाई जाते हैं। भाई दूज के साथ ही पंचपर्व दीवाली खत्‍म हो जाती है। थोड़ी मायूसी होती कि‍ अब बहुत शांति‍ है मगर सि‍र्फ दो-तीन दि‍न। फि‍र महापर्व छठ की गहमागहमी शुरू। यानी हमारी संस्‍कृति‍ में उत्‍साह और उमंग जगह होती है पूरे वर्ष। 

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