हर उस जगह से तुम लापता हो गए
जहां मैं पहुंच सकती थी|
न सिर्फ पहुंचती
बल्कि आवाज भी लगाती
कि ठहरो, जरा एक नजर देख लो
शायद मन का कोई छोटा सा ही हिस्सा
अभी भी उर्वर हो
दुबककर बैठी हो
और अनुकूल हवा - पानी पा
फोड़कर धरती का सीना
सर उठा ले...
मगर तुमने
कोई मोड़, कोई रास्ता, कोई छांव
न मुड़ के देखा, न कोई निशान छोड़े
बार - बार देखती हूं
पतझड़ के गुजरने की राह
बसंत के आने उम्मीद
मगर
न खत - ओ - किताबत की जगह है कोई बाकी
न आवाज की पहुंच
कोई मोड़, कोई रास्ता, कोई छांव
न मुड़ के देखा, न कोई निशान छोड़े
बार - बार देखती हूं
पतझड़ के गुजरने की राह
बसंत के आने उम्मीद
मगर
न खत - ओ - किताबत की जगह है कोई बाकी
न आवाज की पहुंच
बस एक मजबूत सी किवाड़ है
हमारे दरमियान
इधर हवा की सरगोशियाँ है
उधर यादों का बहिश्त
मेरे हाथ में सांकल है
मगर खटखटा सके गुजरे वक्त को
अब वो हिम्मत नहीं बाकी...
हमारे दरमियान
इधर हवा की सरगोशियाँ है
उधर यादों का बहिश्त
मेरे हाथ में सांकल है
मगर खटखटा सके गुजरे वक्त को
अब वो हिम्मत नहीं बाकी...
बस एक मजबूत सी किवाड़ है
ReplyDeleteहमारे दरमियान
इधर हवा की सरगोशियाँ है
उधर यादों का बहिश्त
मेरे हाथ में सांकल है
मगर खटखटा सके गुजरे वक्त को
अब वो हिम्मत नहीं बाकी.
यादों का बहिश्त कहा छुटता है और हाथ में सांकल होते हुए भी गुजरे वक्त के दरवाजे को खटखटाने की हिम्मत भी नहीं होती... हृदय स्पर्शी सृजन रश्मि जी सादर नमस्कार आपको 🙏🙏
सुन्दर
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति, वाह!
ReplyDeleteबस एक मजबूत सी किवाड़ है
ReplyDeleteहमारे दरमियान
इधर हवा की सरगोशियाँ है
उधर यादों का बहिश्त
मेरे हाथ में सांकल है
मगर खटखटा सके गुजरे वक्त को
अब वो हिम्मत नहीं बाकी...
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अद्भुत... अत्यंत हृदयस्पर्शी 🙏
मेरे हाथ में सांकल है
ReplyDeleteमगर खटखटा सके गुजरे वक्त को
अब वो हिम्मत नहीं बाकी...
बेहतरीम
आभार
सादर
मन की कचोट को महसूस कराती हुई हृदयस्पर्शी रचना।
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति
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