जब हम होटल से निकले तो रास्ते मेें लेेेह महल मिला। मगर ड्राइवर का कहना था कि लोग ढलती शाम को शांति स्तूप देखना पसंद करते हैं। इसलिए शाम होने से पहले वहाँ पहुँचकर हम वापस आ जाएँगे। पहुँचने पर पाया कि अब आसमान का रंग गहरा नीला न होकर आसमानी या कह लें, फिरोजी है। नीचे पूरा शहर दिख रहा था हरे पेड़ों से घिरा हुआ और दूर भूरी-काली पहाड़ी। हमें देख एक सफेद झबरीला कुत्ता पूँछ हिलाने लगा। अब तो अभिरूप को रुकना ही था। उसने खूब प्यार किया उसे। अंदर काफी भीड़ थी। लोग अलग-अलग एँगल से फोटो ले रहे थे। हमने भी कई तस्वीरें लीं।
यह लेह से 5 किलोमीटर की दूरी पर है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई लगभग 14,000 फुट है। यहाँ महात्मा बुद्ध की अनुपम प्रतिमा स्थापित है। इसका निर्माण 1983 में दलाईलामा के आदेश पर कराया गया। निर्माण कार्य 1991 में पूरा हुआ और इसका उद्घाटन 14वें दलाई लामा तेनजिंग ग्यात्यो ने किया था। जापानी मोंक द्वारा विश्व शांति के लिए बनाया गया है शांति स्तूप।
अचानक बहुत तेज हवा चलने लगी। शाम ढलने को थी। मौसम एकदम बदल गया। काले बादल आकाश में छा गए और ठंढ़ लगने लगी। मगर बहुत खूबसूरत और आशिकाना मौसम हो गया हो जैसे। बादलों का रंग इतना जल्दी-जल्दी बदलते मैंने पहले नहीं देखा था। बारिश की आशंका से लोग जल्दी निकलने लगे मगर मुझे गंदुमी आकाश के साथ शांति स्तूप इतना खूबसूरत लगा कि बयान करना मुश्किल है।
टप-टप कर कुछ बूंदे बरसीं,मगर बारिश वैसी नहीं हुई। फिर भी हम निकले क्योंकि अंधेरा छाने लग गया था। ऊँचाई से उतरने के दौरान थोड़ी दूर पर पहाड़ियों में कई स्तूप नजर आए। छोटे-छोटे सफेद, पत्थरों से घिरे स्तूप। पता लगा ये मन्नत के स्तूप होते हैं। लोग बुद्ध भगवान से मनौती मांगते हैं और पूरा होने पर ऐसे स्तूप बनवाते हैं। कई लोग पत्थर के ऊपर छोटे-छोटे पत्थर रख के छोड़ दिए थे। यह भी स्तूप का ही एक रूप है। हमने बहुत समय शांति स्तूप में ही लगा दिया, इसलिए लेह महल नहीं जा सके, क्योंकि 7 बजे के बाद बंद हो जाता है महल।
टप-टप कर कुछ बूंदे बरसीं,मगर बारिश वैसी नहीं हुई। फिर भी हम निकले क्योंकि अंधेरा छाने लग गया था। ऊँचाई से उतरने के दौरान थोड़ी दूर पर पहाड़ियों में कई स्तूप नजर आए। छोटे-छोटे सफेद, पत्थरों से घिरे स्तूप। पता लगा ये मन्नत के स्तूप होते हैं। लोग बुद्ध भगवान से मनौती मांगते हैं और पूरा होने पर ऐसे स्तूप बनवाते हैं। कई लोग पत्थर के ऊपर छोटे-छोटे पत्थर रख के छोड़ दिए थे। यह भी स्तूप का ही एक रूप है। हमने बहुत समय शांति स्तूप में ही लगा दिया, इसलिए लेह महल नहीं जा सके, क्योंकि 7 बजे के बाद बंद हो जाता है महल।
लेह बाजार....
अब हम बाजार चले गए। रंग-बिरंगे मोतियों की माला, मोमबत्ती-अगरबत्ती स्टैंड, तरह-तरह के बैग, टोपी और गरम कपड़े जिसमें तिब्बती सामान भी था तो कश्मीरी भी। लद्दाखी युवतियाँ खूबसूरत थी और बहुत अच्छी हिंदी बोल रही थीं। बाजार के बीच में कुछ युवा एकत्र होकर बैंड बजा रहे थे। पता चला 21-22 जुलाई को उनका म्यूजिक एँड आर्ट फेस्टिवल था। ये लोग उसी की तैयारी में लगे हुए थे। खरीदने से ज्यादा अच्छा बाजार घूमने में लगा। पाया, कि सड़क किनारे लगने वाली सभी दुकानों की मालिक कोई महिला ही है। ज्यादातर इमीटेशन ज्वेलरी बेच रही थी। इयरिंग्स, नेकलेस,कुछ घर और दीवार सजाने के लिए धातु के सामान। तिब्बती बैग, टोपियाँ, लकड़ी के मुखौटे, बुद्ध का मुखौटा व प्रतिमा, ज्वेलरी बाक्स। उधर पश्मीना शॉल और कश्मीरी सूट की बहुत वेरायटी थी। हमने भी कुछ-कुछ खरीदा और वापस होटल आ गए। जल्दी ही डिनर लिया फिर सोने चले गए क्योंकि सुबह जल्दी निकलना था हमें।
अब तक लगा सब कुछ सामान्य है। ऑक्सीजन की कमी जैसी तो कोई बात नहीं लगी। मगर होटल के कमरे में थोड़ी घबराहट सी हो रही थी। एक ख्याल यह आया कि हमें पंखे की आदत है और यहाँ नहीं है इसलिए घुटन हो रही है। मगर नींद आने के घंटे भर बाद बहुत बेचैनी महसूस हुई आैर नींद खुल गई। लगा दम घुट रहा। जल्दी से कमरे की सारी खिड़कियाँ खोल दीं और कपूर निकालककर सूंघने लगी। यह पढ़ा था कि कपूर सूंघने से तात्कालिक तौर पर आक्सीजन की कमी दूर होती है। वाकई फायदा हुआ। कुछ देर बाद दोबारा सो गई। चूंकि लेह काफी ऊँचाई में है और यहाँ पेड़ भी कम हैं। हिमालय पर्वत शृंखलाएं नमी वाले बादलों को लद्दाख में आने ही नहीं देती। इसलिए मानसून का मौसम और बारिश वैसी नहीं होती कि हरियाली हो पाए। इस कारण मैदानी क्षेत्र से आने वाले लोग यहाँ हाँफने लगते हैं।
क्रमश 4 :........
4 comments:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ये उस दौर की बात है : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
रश्मि जी आपके लिखे संस्मरण बेहद लाज़वाब हैं।
अगली कड़ियोंं की प्रतीक्षा है।
धन्यवाद
शुक्रिया
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