तारापीठ जाने का संयोग अकस्मात हो गया। देवघर जाना था तो एक दिन पहले निकल गए कि इस दिन तारापीठ के दर्शन कर ही आए। 31 मार्च की दोपहर रांची से निकले और शाम के 8 बजे तक देवघर में। रात वहीं रूककर सुबह तारापीठ जाना था मगर निकलते-निकलते 11 बज ही गए। 20-25 किलोमीटर दूर गए तो रास्ते में वसुकीनाथ मंदिर मिला। सोचा इतनी दूर आए है तो दर्शन कर ही लें। हालांकि मान्यता यह है कि पहले देवघर में पूजा अर्चना हो जाए तभी वासुकीनाथ दर्शन करें।
अब रास्ते से गुजरे तो दर्शन भी किया। अच्छा मंदिर है। भीड़-भाड़ भी खूब थी। शिवलिंग दर्शन कर आगे बढ़े। पहले दुमका, फिर तारापीठ। उपराजधानी दुमका पहुंचत-पहुंचते यह जरूर महसूस हुआ कि इन दिनों झारखंड की सड़के शानदार बन गई है। हमें रांची से यहां तक गिरीडीह के बाद के 20 किलोमीटर के अलावा कहीं सड़क को लेकर कोई परेशानी नहीे हुई।
दुमका बाईपास से निकले तो मलूटी देख वहां कुछ घंटे बिता लिए। यहां जाना हमारे प्लान का हिस्सा नहीं था। हमें शाम तक वापस देवघर लौट आना था। बासुकीनाथ भी अचानक गए और मलूटी भी। मलूटी पर वाकई दिल आ गया। घंटों रूकने की इच्छा थी मगर मां के दर्शन को जाना था आगे। जब रामपुरहाट पार कर तारापीठ पहुंचे तो बड़ा सा गेट सफेद रंग का मिला। शीर्ष पर मां तारा का मस्तक स्थापित है। गेट से अंदर जाने पर हम तारापीठ पहुंच गए। गाड़ी पार्क करने के बाद पैदल अंदर। रास्ते के दोनों तरफ दुकानें थी। जैसा कि हर धार्मिक स्थल पर होता है। मिठाईयों की पंक्ति से कई दुकानें। कालाजामुन, गुलाब जामुन के बड़े-बड़े हांडे सामने लगे थे। उस पर खूब सारी मक्खियां थीं। मुझे पसंद है मिठाई पर सोचा यहां तो नहीं खाऊंगी। फूलों के दुकान भी थे। जवा के फूल, नीले फूल और मालाएं।
तारापीठ पश्चिम बंगाल में पड़ता है। वीरभूम जिले में स्थित यह शक्तिपीठ है। यहां की भाषा में तारा का अर्थ होता है आंख और पीठ का अर्थ है स्थल। तारा शब्द का एक और अर्थ है ..भव सांगर से तारने वाली अर्थात जन्म तथा मृत्यु के बंधन के बंधन से मुक्त पर मोक्ष दिलाने वाली।। सो यह तारापीठ कहलाया। पुराणों के अनुसार मां सती के नयन यानी तारा इसी जगह गिरे थे इसलिए यह तारापीठ कहलाया। यहां भव्य मंदिर है और बगल में महा शमशान भी है। मां तारा शमशनवासिनी और तथा घोर उग्र स्वरूप वाली हैं।
कहते हैं बहुत पहले सत्य युग में मर्हिष वश्िाष्ठ ने मां की पूजा कर अनेक सिद्धियां प्राप्त की थी और उन्होंने ही इस मंदिर का निर्माण करवाया था। मगर वो पुराना मंदिर धरती की गोद में समा गया। कथा है कि सत्य युग में ब्रह्रा जी ने अपने पुत्र वशिष्ठ को तारा मंत्र की दीक्षा दी तथा मंत्र सिद्ध कर मां तारा की कृपा प्राप्त करने का आदेश दिया। पिता की आज्ञा मानकर सर्वप्रथम नीलांचल पर्वत पर गए और वैदिक रीति से चिरकाल तक अराधना की परंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। बार-बार असफलता मिलने के कारण उन्होंने तारा-मंत्र को शापित कर दिया। फिर आकाशवाणी हुई कि '' वशिष्ठ तुम मेरे साधना के स्वरूप को नहीं जानते हो। चीन देश जाने पर वहां बुद्ध मुनि होंगे उनसे साधना का सही और उपयुक्त क्रम जानकर मेरी अराधना करो।'' उस समय केवल भगवान बुद्ध ही इस विद्या के आर्चाय माने जाते थे।
वशिष्ठ मुनि जब चीन पहुंचे तो देखा कि बुद्ध मदिरा, मांस, मत्स्य और नृत्य करती नर्तकियों में आसक्त हैं तो वह खिन्न मन से वापस लौटने लगे। तब पीछे से बुद्ध ने आवाज दी । मुड़कर देखने पर वशिष्ठ चकित रह गए कि बुद्ध मुनि आसन लगाकर ध्यान मग्न हैं , नर्तकियां भी ध्यान मग्न है आैर वहां पूजन के लिए फूल-पत्तियां रखी हुई है।
बुद्ध मुनि ने वशिष्ठ मुनि को उपदेश दिया कि उत्तरवाहिनी द्वारिका नदी के पूर्व में सती के उर्ध नयन है, उस स्थान पर पंचमुंडी आसन बनाकर तारा मंत्र की तीन लाख बार जाप करे। उसके पश्चात मां के दर्शन होंगे। मुनि वशिष्ठ ने ऐसा ही किया और उन्हें सर्वप्रथम एक उज्जवल ज्याेति बिंदु के रूप में दर्शन दिया और पूछा कि, तुम किस रूप में मेरा दर्शन करना चाहते हो। तब वशिष्ठ ने कहा कि आप जगत जननी हैं तो मैं आपके जगत-जननी के रूप का ही दर्शन चाहता हूं। तब मां ने भगवान शिव को बालक रूप में अपना स्तनपान कराते हुए देवी तारा ने दर्शन दिए। समुद्र मंथन के बाद जब शिव ने हलाहल विष पिया था तो इन्हीं तारा देवी ने अपना अमृतमय दुग्धपान कराया था शिव को, जिससे उनके शरीर की जलन पीड़ा शांत हुई थी। असली मां तारा की मूर्ति यही है। अभी जो लोग दर्शन करते हैं वो एक आवरण है। जिसे राज भेष कहा जाता है। असली मूर्ति के दर्शन रात और एकदम सुबह किसी किसी को ही होते हैं।
हमलोग दर्शन करने को आतुर थे। बहुत भीड़ थी प्रांगण में। पूजन सामग्री लेकर पहुंचे तो वहां पुजारी से भेंट हुई। उन्होंने कहा-सीधी कतार से आना हो तो आइए, मगर बहुत देर लगेगी। और स्पेशल दर्शन करना है तो प्रतिव्यक्ति 300 लगेंगे। हमारे पास वक्त कम था। हमलोग मलूटी के कारण पहले ही देर से पहुंचे थे। सो पैसे देकर ही दर्शन को तैयार हो गए। वैसे भी मां-पापा साथ थे और घंटों कतार में खड़े रहना उनसे संभव नहीं था।
अब हम अंदर के रास्ते पहुंचे। मुख्य द्वार के ठीक सामने मां के चरण युगल थे। वहीं पुजारी ने संकल्प करवाया हमसे। बहुत भीड़ थी। मां के पांव पर महिलाएं आलता डाल रही थीं। वहां आलता की मात्रा इतनी ज्यादा थी कि हम सबे कपड़े रंग गए।
हम मुख्य द्वार के सामने थे। लाल पत्थरों की नक्काशीदार दीवार थी। प्रवेशद्वार के ऊपर शिव की मुखाकृति थी जो संभवत: चांदी से बनी थी। हम अंदर प्रवेश किए। मां की मूर्ति में तीन आंखे और सिंदुर से सना मुंह है। यहां मां तारा का प्रसाद मिलता है, जिसमें उनको स्नान कराए जाने वाला पानी, सिंदुर और शराब मिली होती है। भगवान शिव का प्रसाद मानकर तांत्रिक और साधु शराब पीते हैं। यहां प्रसाद चढ़ाया भी जाता है।
मां की प्रतिमा को सामने से घेरा हुआ है। हमलोगों ने दर्शन किया और जरा उचककर मां के चरण छुए फिर बाहर आ गए। आर्शीवाद स्वरूप हमारे माथे पर तिलक लगाया पुजारी ने। बाहर आकर देखा, मंदिर में संगमरमर और मार्बल का काम है। छत ढलानदार है, जिसे ढोलाचा कहते हैं। मैंने ऐसे घर भी देख मलूटी में। हालांकि वो मिट्टी के बने थे और मंदिर संगमरमर का है।
हमने पुजारी से कहा कि आपने बताया नहीं कि मां को आलता अर्पित करना होता है तो हम भी लेकर आते। तो उन्होंने बोला कि यहां तो ऐसे ही लोग कर लेते है। असली चरण तो महाश्मशान में हैं, जहां जाकर आप मां को आलता और सिंदुर अर्पित करें। हमें श्मशान तो जाना ही था। महाशमशान में विद्यमान देवी मां के चरण चिन्ह, जिसे पाद पद्म कहा जाता है।
मां के चरण वंदना के पीछे की कहानी कुछ ऐसी है। वशिष्ठ मुनि के आराधना के समय देवी मां अक्सर अदृश्य होकर नृत्य करती थीं, जिससे वशिष्ठ मुनि साधना के वक्त भ्रमित हो जाते थे। एक बार उन्होंने संदेह हटाने के लिए सोचा कि इस स्थान में कोई शक्ति है और वो मेरी परीक्षा के लिए यह नृत्य करती है तो वो पैर शिला के रूप में परिणत हो जाए। नृत्य करती देवी मां के पैर शिला में बदल गए जो आज भी इस महाशमशान पर बामाखेपा समाधि मंदिर के दाहिनी ओर विराजमान है।
अब हम बाहर घूमने लगे। मंदिर के ठीक सामने एक सरोवर था। पता चला कि यह पुरातन पोखर है जो 'जीवंतो पुखुर' अर्थात जीवंत पोखर कहलाता है। दंत कथा है कि लगभग 400 वर्ष पूर्व देवी तारा के इस पीठ स्थल की पहचान जयदत्त नामक एक वणिक ने की थी। वह अपने पुत्र और साथियों के साथ द्वारिका नदी के रास्ते लौट रहा था और उन्होंने वहीं पड़ाव डाला, जहां मां तारा निवास करती थीं। वहां किसी कारण्ावश उसके बेटे की मौत हो गई। वणिक के सहयोगी जब खाना बनाने के लिए मछली मारी और उसे धोने के लिए इस पोखर में डाला तो वो मछली जीवित हो गई। तब उस व्यपारी ने अपने बेटे को उसी पोखर के पानी में स्नान कराया और वह जीवित हो गया। इसलिए इस पोखर का जल बहुत पवित्र मान जाता है और कई भक्त पूजा से पहले यहां स्नान करते हैं।
आगे की कथा ऐसी है कि उस रात वणिक और उसके साथी सब सो गए। जयदत्त को रात स्वप्न में मां का आदेश प्राप्त हुआ और सुबह सेमल वृक्ष के नीचे जयदत्त ने शक्ति साधना की। अंतत: तारा देवी ने दर्शन दिया और मिट्टी में दबे हुए शिला प्रतिमा से अवगत कराया। तब जय दत्त ने ऐ छोटे से मंदिर का निर्माण कर मूर्ति स्थापित करवाई और पूजन के लिए ब्राह्मण नियुक्त कर दिए। उस वक्त बाढ़ का पानी मंदिर में आ जाता था। धीरे-धीरे कालांतर में वहां भक्तों का आना कम हो गया और सुनसान रहने लगा। वहां तंत्र साधक या श्मशान सन्यासी ही जाने लगे।
इसके बाद लगभग 150 साल पहले मल्लारपुर के जमींदार जगन्नाथ राॅय स्पप्न में मां का आदेश पाकर मंदिर का निर्माण करवाया। किवंदिती है कि इस मंदिर के लिए जगन्नाथ राॅय को 9 स्वर्ण मुद्राओं से भरे कलश मिले थे, शमशान के बेल पेड़ के नीचे, जहां मां ने बताया था। जिससे नए मंदिर का निर्माण 1812 में शुरू किया गया जो 1896 में संपूर्ण हुआ। वर्तमान में स्थापित तारापीठ मंदिर वही है जिसे मल्लारपुर के जमींदार ने बनवाया था।
अब हम पूरे मंदिर की परिक्रमा के पश्चात श्मशान के रास्ते में थे। वहां भी पूरी भीड़ थी। जगह-जगह लोग बैठे थे और साधु संत नजर आ रहे थे। दाहिनी ओर दो छोटे-छोटे मंदिर बने थे। एक में मां के पाद पद्म है जहां हमलोगों ने आलता व सिंदुर अर्पित किया। वहां वध-स्थल भी है और वामखेपा का मंदिर भी। एक पीपल का पेड़ है जहां मौली धागा बांधे हुए हैं। शायद मनाैती मानकर ये धागा बांधा गया था।
मां तारा के परम भक्त के उल्लेख के बिना मां की बात पूरी नहीं कही जा सकती। अपनी साधना से वामदेव ने परम सिद्धि प्राप्त की थी। कहते हैं कि मां तारा की साधना में वामदेव इतने विह्रवल हो जाते थे कि अपनी सुध-बुध खो बैठते थे। जिस कारण लोग इन्हें 'खेपा' अर्थात पागल कहकर संबोधित करते थे। कहते हैं मां तारा उन्हें दर्शन दिया करती थी।
हम दर्शन के बाद श्मशान के और अंदर की तरफ गए। लोग कहते हैं यहां महाश्मशान की चिता कभी नहीं बुझती। यह द्वारका नदी से घिरा हुआ है और भारत की एकमात्र नदी है जो दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहती है। पूरे रास्ते तांत्रिक और साधुओं का जमावड़ा दिखा। वो अपने-अपने आसन पर विराजमान थे। अागे एक चिता जल रही थी। मैंने पहली बार कोई चिता जलती देखी। अभिरूप भी मेरे साथ खड़ा होकर देखता रहा। मगर चिता ऐसी सजाई गई थी कि लाश का आधा शरीर बाहर ही था।
बहुत कथाएं सुनी हैंं तंत्र-मंत्र की। ऐसा माना जाता है कि तारापीठ महाश्मशान में पंचमूंडी के आसन पर एकाग्र मन से मां तारा का 3 लाख बार जाप करने से किसी भी साधक को सिद्धि प्राप्त हो सकती है। खैर... शाम ढल चुकी थी। हम दर्शन को आए थे। मां के दर्शन किए और फिर आने की कामना के साथ लौट चले देवघर।
कहते हैं बहुत पहले सत्य युग में मर्हिष वश्िाष्ठ ने मां की पूजा कर अनेक सिद्धियां प्राप्त की थी और उन्होंने ही इस मंदिर का निर्माण करवाया था। मगर वो पुराना मंदिर धरती की गोद में समा गया। कथा है कि सत्य युग में ब्रह्रा जी ने अपने पुत्र वशिष्ठ को तारा मंत्र की दीक्षा दी तथा मंत्र सिद्ध कर मां तारा की कृपा प्राप्त करने का आदेश दिया। पिता की आज्ञा मानकर सर्वप्रथम नीलांचल पर्वत पर गए और वैदिक रीति से चिरकाल तक अराधना की परंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। बार-बार असफलता मिलने के कारण उन्होंने तारा-मंत्र को शापित कर दिया। फिर आकाशवाणी हुई कि '' वशिष्ठ तुम मेरे साधना के स्वरूप को नहीं जानते हो। चीन देश जाने पर वहां बुद्ध मुनि होंगे उनसे साधना का सही और उपयुक्त क्रम जानकर मेरी अराधना करो।'' उस समय केवल भगवान बुद्ध ही इस विद्या के आर्चाय माने जाते थे।
वशिष्ठ मुनि जब चीन पहुंचे तो देखा कि बुद्ध मदिरा, मांस, मत्स्य और नृत्य करती नर्तकियों में आसक्त हैं तो वह खिन्न मन से वापस लौटने लगे। तब पीछे से बुद्ध ने आवाज दी । मुड़कर देखने पर वशिष्ठ चकित रह गए कि बुद्ध मुनि आसन लगाकर ध्यान मग्न हैं , नर्तकियां भी ध्यान मग्न है आैर वहां पूजन के लिए फूल-पत्तियां रखी हुई है।
बुद्ध मुनि ने वशिष्ठ मुनि को उपदेश दिया कि उत्तरवाहिनी द्वारिका नदी के पूर्व में सती के उर्ध नयन है, उस स्थान पर पंचमुंडी आसन बनाकर तारा मंत्र की तीन लाख बार जाप करे। उसके पश्चात मां के दर्शन होंगे। मुनि वशिष्ठ ने ऐसा ही किया और उन्हें सर्वप्रथम एक उज्जवल ज्याेति बिंदु के रूप में दर्शन दिया और पूछा कि, तुम किस रूप में मेरा दर्शन करना चाहते हो। तब वशिष्ठ ने कहा कि आप जगत जननी हैं तो मैं आपके जगत-जननी के रूप का ही दर्शन चाहता हूं। तब मां ने भगवान शिव को बालक रूप में अपना स्तनपान कराते हुए देवी तारा ने दर्शन दिए। समुद्र मंथन के बाद जब शिव ने हलाहल विष पिया था तो इन्हीं तारा देवी ने अपना अमृतमय दुग्धपान कराया था शिव को, जिससे उनके शरीर की जलन पीड़ा शांत हुई थी। असली मां तारा की मूर्ति यही है। अभी जो लोग दर्शन करते हैं वो एक आवरण है। जिसे राज भेष कहा जाता है। असली मूर्ति के दर्शन रात और एकदम सुबह किसी किसी को ही होते हैं।
हमलोग दर्शन करने को आतुर थे। बहुत भीड़ थी प्रांगण में। पूजन सामग्री लेकर पहुंचे तो वहां पुजारी से भेंट हुई। उन्होंने कहा-सीधी कतार से आना हो तो आइए, मगर बहुत देर लगेगी। और स्पेशल दर्शन करना है तो प्रतिव्यक्ति 300 लगेंगे। हमारे पास वक्त कम था। हमलोग मलूटी के कारण पहले ही देर से पहुंचे थे। सो पैसे देकर ही दर्शन को तैयार हो गए। वैसे भी मां-पापा साथ थे और घंटों कतार में खड़े रहना उनसे संभव नहीं था।
अब हम अंदर के रास्ते पहुंचे। मुख्य द्वार के ठीक सामने मां के चरण युगल थे। वहीं पुजारी ने संकल्प करवाया हमसे। बहुत भीड़ थी। मां के पांव पर महिलाएं आलता डाल रही थीं। वहां आलता की मात्रा इतनी ज्यादा थी कि हम सबे कपड़े रंग गए।
हम मुख्य द्वार के सामने थे। लाल पत्थरों की नक्काशीदार दीवार थी। प्रवेशद्वार के ऊपर शिव की मुखाकृति थी जो संभवत: चांदी से बनी थी। हम अंदर प्रवेश किए। मां की मूर्ति में तीन आंखे और सिंदुर से सना मुंह है। यहां मां तारा का प्रसाद मिलता है, जिसमें उनको स्नान कराए जाने वाला पानी, सिंदुर और शराब मिली होती है। भगवान शिव का प्रसाद मानकर तांत्रिक और साधु शराब पीते हैं। यहां प्रसाद चढ़ाया भी जाता है।
मां की प्रतिमा को सामने से घेरा हुआ है। हमलोगों ने दर्शन किया और जरा उचककर मां के चरण छुए फिर बाहर आ गए। आर्शीवाद स्वरूप हमारे माथे पर तिलक लगाया पुजारी ने। बाहर आकर देखा, मंदिर में संगमरमर और मार्बल का काम है। छत ढलानदार है, जिसे ढोलाचा कहते हैं। मैंने ऐसे घर भी देख मलूटी में। हालांकि वो मिट्टी के बने थे और मंदिर संगमरमर का है।
हमने पुजारी से कहा कि आपने बताया नहीं कि मां को आलता अर्पित करना होता है तो हम भी लेकर आते। तो उन्होंने बोला कि यहां तो ऐसे ही लोग कर लेते है। असली चरण तो महाश्मशान में हैं, जहां जाकर आप मां को आलता और सिंदुर अर्पित करें। हमें श्मशान तो जाना ही था। महाशमशान में विद्यमान देवी मां के चरण चिन्ह, जिसे पाद पद्म कहा जाता है।
मां के चरण वंदना के पीछे की कहानी कुछ ऐसी है। वशिष्ठ मुनि के आराधना के समय देवी मां अक्सर अदृश्य होकर नृत्य करती थीं, जिससे वशिष्ठ मुनि साधना के वक्त भ्रमित हो जाते थे। एक बार उन्होंने संदेह हटाने के लिए सोचा कि इस स्थान में कोई शक्ति है और वो मेरी परीक्षा के लिए यह नृत्य करती है तो वो पैर शिला के रूप में परिणत हो जाए। नृत्य करती देवी मां के पैर शिला में बदल गए जो आज भी इस महाशमशान पर बामाखेपा समाधि मंदिर के दाहिनी ओर विराजमान है।
अब हम बाहर घूमने लगे। मंदिर के ठीक सामने एक सरोवर था। पता चला कि यह पुरातन पोखर है जो 'जीवंतो पुखुर' अर्थात जीवंत पोखर कहलाता है। दंत कथा है कि लगभग 400 वर्ष पूर्व देवी तारा के इस पीठ स्थल की पहचान जयदत्त नामक एक वणिक ने की थी। वह अपने पुत्र और साथियों के साथ द्वारिका नदी के रास्ते लौट रहा था और उन्होंने वहीं पड़ाव डाला, जहां मां तारा निवास करती थीं। वहां किसी कारण्ावश उसके बेटे की मौत हो गई। वणिक के सहयोगी जब खाना बनाने के लिए मछली मारी और उसे धोने के लिए इस पोखर में डाला तो वो मछली जीवित हो गई। तब उस व्यपारी ने अपने बेटे को उसी पोखर के पानी में स्नान कराया और वह जीवित हो गया। इसलिए इस पोखर का जल बहुत पवित्र मान जाता है और कई भक्त पूजा से पहले यहां स्नान करते हैं।
आगे की कथा ऐसी है कि उस रात वणिक और उसके साथी सब सो गए। जयदत्त को रात स्वप्न में मां का आदेश प्राप्त हुआ और सुबह सेमल वृक्ष के नीचे जयदत्त ने शक्ति साधना की। अंतत: तारा देवी ने दर्शन दिया और मिट्टी में दबे हुए शिला प्रतिमा से अवगत कराया। तब जय दत्त ने ऐ छोटे से मंदिर का निर्माण कर मूर्ति स्थापित करवाई और पूजन के लिए ब्राह्मण नियुक्त कर दिए। उस वक्त बाढ़ का पानी मंदिर में आ जाता था। धीरे-धीरे कालांतर में वहां भक्तों का आना कम हो गया और सुनसान रहने लगा। वहां तंत्र साधक या श्मशान सन्यासी ही जाने लगे।
इसके बाद लगभग 150 साल पहले मल्लारपुर के जमींदार जगन्नाथ राॅय स्पप्न में मां का आदेश पाकर मंदिर का निर्माण करवाया। किवंदिती है कि इस मंदिर के लिए जगन्नाथ राॅय को 9 स्वर्ण मुद्राओं से भरे कलश मिले थे, शमशान के बेल पेड़ के नीचे, जहां मां ने बताया था। जिससे नए मंदिर का निर्माण 1812 में शुरू किया गया जो 1896 में संपूर्ण हुआ। वर्तमान में स्थापित तारापीठ मंदिर वही है जिसे मल्लारपुर के जमींदार ने बनवाया था।
अब हम पूरे मंदिर की परिक्रमा के पश्चात श्मशान के रास्ते में थे। वहां भी पूरी भीड़ थी। जगह-जगह लोग बैठे थे और साधु संत नजर आ रहे थे। दाहिनी ओर दो छोटे-छोटे मंदिर बने थे। एक में मां के पाद पद्म है जहां हमलोगों ने आलता व सिंदुर अर्पित किया। वहां वध-स्थल भी है और वामखेपा का मंदिर भी। एक पीपल का पेड़ है जहां मौली धागा बांधे हुए हैं। शायद मनाैती मानकर ये धागा बांधा गया था।
मां तारा के परम भक्त के उल्लेख के बिना मां की बात पूरी नहीं कही जा सकती। अपनी साधना से वामदेव ने परम सिद्धि प्राप्त की थी। कहते हैं कि मां तारा की साधना में वामदेव इतने विह्रवल हो जाते थे कि अपनी सुध-बुध खो बैठते थे। जिस कारण लोग इन्हें 'खेपा' अर्थात पागल कहकर संबोधित करते थे। कहते हैं मां तारा उन्हें दर्शन दिया करती थी।
हम दर्शन के बाद श्मशान के और अंदर की तरफ गए। लोग कहते हैं यहां महाश्मशान की चिता कभी नहीं बुझती। यह द्वारका नदी से घिरा हुआ है और भारत की एकमात्र नदी है जो दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहती है। पूरे रास्ते तांत्रिक और साधुओं का जमावड़ा दिखा। वो अपने-अपने आसन पर विराजमान थे। अागे एक चिता जल रही थी। मैंने पहली बार कोई चिता जलती देखी। अभिरूप भी मेरे साथ खड़ा होकर देखता रहा। मगर चिता ऐसी सजाई गई थी कि लाश का आधा शरीर बाहर ही था।
बहुत कथाएं सुनी हैंं तंत्र-मंत्र की। ऐसा माना जाता है कि तारापीठ महाश्मशान में पंचमूंडी के आसन पर एकाग्र मन से मां तारा का 3 लाख बार जाप करने से किसी भी साधक को सिद्धि प्राप्त हो सकती है। खैर... शाम ढल चुकी थी। हम दर्शन को आए थे। मां के दर्शन किए और फिर आने की कामना के साथ लौट चले देवघर।
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सुन्दर चित्र और सटीक वर्णन
चोत्रों के साथ सुन्दर यात्रा का आनंद आपके साथ हम भी ले रहे हैं ...
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जय माई तारा जय बामाखेपा
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