सुबह उठकर हमलोग नुुबरा के लिए निकले। रास्ते में ही खारदुंगला पड़ता है। सर्पीला रास्ता, खिली धूप और हरियाली। दूर तक शांति स्तूप दिखता रहा। बहुत खूबसूरत। रास्ते में बहुत से घर भी मिले, जिनकी छतों पर, सड़क किनारे, पताकाएँ लगी हुई थी। इससे पता चलता है कि ये लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है। भूरे रेतीले पहाड़ को पार करते हुए हम ऊँचाई पर चढ़ते चले जा रहे थे। नीचे हरा लद्दाख पीछे छूट रहा था। कई जगह घाटियों के बीच पतली सी नदी जैसी दिखी जो वस्तुत: बर्फीला पानी था, जो एक पतले नाले के रूप में बह रहा था, मगर स्वच्छ था।
यहाँ पहाड़ों की रंगत बदली हुई नजर आई। पहाड़ का रंग हल्का हरा था जैसे काई की झीनी परत हो। एक मोड़ पर सारी गाड़ियाँ रुकती हैं क्योंकि वहाँ से पूरा लेह शहर दिखता है। भूरे पहाड़ों के पीछे हरियाली और उसके पीछे काले पहाड़ों को ढकता हुआ बादल। वाकई अविस्मरणीय। कुछ तस्वीरें लेने के बाद हम ऊपर चल पड़े।
येे क्या, खारदुंगला पहुँचने को थे हम। पहाड़ों की चोटियाँ घने बादलों से ढकी थी और काले पहाड़ों पर बर्फ की धारियाँ पड़ी हो जैसे। पहाड़ बादलों से घिरे हैं कि धुंध से, पता करना मुश्किल था। तभी हमारे सामने एक ट्रक रूकी और उसमें से कुछ मजदूर उतरे। यह मजदूर रास्ता साफ करते हैं क्योेकि इस रास्ते अक्सर लैंड स्लाइडिंग होती है और गाड़ियाँ फंस जाती है। यहाँ जो मजदूर थे, उनमें से ज्यादातर बिहार-झारखंड के लगे। लोग जीविका की तलाश मेें कितने दुर्गम जगह पर काम करने चले आते हैं, उन्हें देख कर अहसास हुआ।
अगला मोड़ मुड़ते ही जो नजारा हमारे सामने था वह हमें खुशी से पागल कर देने के लिए बहुत था। एक के बाद एक कई पहाड़ियाँ जो बर्फ से लिपटी हुई धवल छटा बिखेर रही थी। कहीं बादल, कहीं धूप। बिल्कुल पेंटिग सा दृश्य। हम खुद को कुछ देर वहाँ ठहरने से रोक नहीं पाए। पांच मिनट बाद ही हम सबसे ऊँची जगह पर थे। चारों तरफ बर्फ जमी हुई थी और जोरदार ठंड लगने लगी। मगर हमारा और वहाँ पहुँचे तमाम लोगों का उत्साह चरम पर था। बच्चे बर्फ के गोले बनाकर एक-दूसरे पर फेंकने लगे। यह भी सैनिक क्षेत्र ही है। 18 हजार 380 फीट की ऊँचाई पर हम थे जिसे खारदुंगला पास कहा जाता है। इसे दुनियाँ की सबसे ऊँची जगह मानी जाती है जहाँ हम मोटर से जा सकते हैं। मगर लोगों का कहना है कि वास्तव में यह दूसरी सबसे ऊँची जगह है।
सब लोग बड़े उत्साह से उस बोर्ड के नीचे खड़े होकर अपनी तस्वीर उतरवा रहे थे, जहाँ टॉप की ऊँचाई लिखी हुई थी। बौद्ध धर्म के प्रतीक स्वरूप यहाँ भी रंग-बिरंगी पताकाएँ लगी थी जो बर्फ की सफेद दीवारों की खूबसूरती को बढ़ा रही थी। यहाँ हमें कई बाइर्कस भी मिले, जो अपनी बाइक पर ही पूरे लद्दाख की यात्रा कर रहे थे। मेरा भी बहुत मन हुआ कि बाइक पर यात्रा की जाए तो उसका मजा ही कुछ और आएगा। मगर पूरे परिवार के साथ यह संभव नहीं खासकर जब आपके साथ छोटे बच्चे हों।
कुछ देर वहाँ रहने के बाद हम निकल पड़े क्योंकि वहाँ ठंड बहुत ज्यादा थी और आक्सीजन की कमी भी महसूस हो रही थी। मगर अविस्मरणीय अनुभव था। सब लोग बेहद खुश थे और उत्साह से परिपूर्ण। जिम्मी ने कहा अब चलिए, आगे और नजारा है। जरा सा नीचे उतरे तो लगा हम बर्फ के समंदर में आ गए है। ऊँची-ऊँची बर्फ की दीवारें मीलों दूर तक फैली थीं। मगर सड़क साफ थी। हमें अहसास हुआ इस बात का कि आर्मी वालों का कितना बड़ा योगदान है कि हम आम नागरिक जीवन का लुत्फ उठा रहे हैं। चाहे लैंड स्लाडिंग हो या बर्फबारी, हमारे सैनिक तुरंत काम में लग जाते हैं। हम एक बार फिर बर्फ में खेलने लगे। तभी साबूदाने जैसी बर्फ की बारिश होने लगी। अब तो और मजा आने लगा। हमारी तरह कुछ और लोग भी थे बर्फ के समंदर मे लोट लगा रहे थे। भीगने की परवाह किए बिना मैं और अमित्युश एक बार फिर भागे ऊँचाई में। कुछ लड़के-लड़िकयाँ भी पोज देकर फोटो खिंचवा रहे थे। हमने भी ली कई तस्वीरें। अभिरूप ऊपर से उतर चुका था आदर्श के साथ नीेचे और हमें बुला रहा था। हमारे दांत भी किटिकटाने लगे। लगा, कि और रुकने से बुरी तरह हम भीग जाएँगे तो वापस भागे गाड़ी में।
अब हम नुब्रा के रास्ते की ओर थे। काराकार्रम वन्य जीव अभ्यारण के पास एक चेकपोस्ट है, जहाँ अपना परिचय पत्र दिखाना पड़ा। यहाँ से 25 किमी दूर है नुब्रा। इतनी देर बर्फ में रहने का दुष्परिणाम हुआ कि हमारे हाथ गर्म ही नहीं हो रहे थे। उनमें चीटियाँ सी चल रही थी। अागे एक जगह पहाड़ी नदी मिली, बहुत खूबसूरत। मेरी तबियत खराब होने लगी थी। यह खारदुंगला में देर तक रुकने का दुष्परिणाम था। चक्कर और उल्टियाँ आने लगी। गाड़ी रोक दिया हमने। जगह भी अच्छी थी। कुछ देर वहाँ रुककर ताजादम हुए और आगे चले। ड्राइवर जिम्मी ने सांत्वना दिया कि आगे नमकीन लद्दाखी चाय पिलाएगा जिससे तबियत तुरंत सुधर जाएगी।
सियाचीन का अर्थ :- कुछ ही देर में हम खारबुंग नामक जगह में थे। वहाँ सड़क किनारे छोटे-छोटे ढाबे जैसे थे। जिम्मी ने कहा कि यहाँ जो खाना है खा लीजिए क्याेंकि आगे कुछ नहीं मिलेगा। बहुत भीड़ थी वहाँ। हालांकि मन नहीं था कुछ खाने का मगर आगे कुछ भी नहीं मिलेगा, इस अंदेशे ने कुछ खाने को मजबूर किया। हमने आर्डर दिया। वहाँ मोमो, मैगी, फ्राइस राइस, चाउमीन जैसे खाद्य पदार्थ ही मिलते थे। जिम्मी जल्दी से अंदर गया और लद्दाखी चाय लेकर आया। उसे गुड़गुड चाय कहते हैं। इसके अलावा लद्दाख में एक विशेष झाड़ी की पत्तियों को उबाल कर बनाई जाती है जिसे स्थानीय बोली में सोल्जा कहते हैं। इस झाड़ी को खौलते पानी में चाय की पत्तियों की तरह उबाल कर चाय बनाई जाती है। इसे सर्दी, खांसी, बुखार और सर दर्द एवं चक्कर की अचूक दवा मानी जाती है। वाकई नमकीन चाय से शरीर में र्स्फूति आ गई।
तभी मेरी नजर गुलाब के झाड़ी पर गई जहाँ से गुलाब की तेज खुश्बू आ रही थी। ऐसा गुलाब जिसकी पंखुड़िया काफी कम थी मगर खुश्ाबू जबरदस्त। कुछ तस्वीरें उतारीं मैंने। पता चला इसे रेयर सियाचिन रोज बोलते हैं। मुझे अब पता लगा कि सियाचीन का अर्थ होता है सिया यानी 'गुलाब' और चीन मतलब 'जगह'। यानी वह जगह जहाँ ढेरों गुलाब पाए जाते हैं। मुझे बेहद खुशी हुई कि सियाचीन के बारे में सुना था मगर अब अर्थ पता चला और हम उस क्षेत्र की ओर जा भी रहे हैं। उत्तर में कराकोरम पर्वत शृंखलाएं आती हैं, और लद्दाख की पहाड़ियाँ भी। यहाँ पर दुनिया के सबसे ठंढे माने जाने वाले स्थानों में से एक सियाचिन का इलाका आता है, और यहीं पर भारतीय राज्य की सीमा भी समाप्त हो जाती है। सबने कुछ-कुछ खाया, चाय पी और आगे निकल पड़े।
क्रमश:...5
6 comments:
मनोरम दृश्य..
यहाँ (उतर भारत) तो इतनी गर्मी पड रही है कि पूछिए मत.ऐसे में ऐसी बर्फीली वादियों के में जाने का मन हो गया है मेरा भी.
खुबसुरत यात्रा वर्णन.
हाथ पकडती है और कहती है ये बाब ना रख (गजल 4)
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
मनोरम यात्रा विवरण..पढ़ते-पढ़ते तीन वर्ष पहले की लद्दाख की यात्रा का स्मरण हो रहा था..वाकई वहाँ गुलाब की झाड़ियाँ बहुत मनमोहक होती हैं
शुक्रिया
धन्यवाद आपका
हाँ..लद्दाख़ बहुत ख़ूबसूरत है। धन्यवाद
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