Wednesday, September 18, 2024

पुरानी तस्वीर...

 


कल से लगातार बारिश की झड़ी लगी है। कभी सावन के गाने याद आ रहे तो कभी बचपन की बरसात का एहसास हो रहा है। तब सावन - भादो ऐसे ही भीगा और मन खिला रहता था। मुझे बूंदों की आवाज तब भी बहुत पसंद थी और अब भी...

ऐसे में यह पुरानी तस्वीर...

मुझे याद है कि किसी बात पर गुस्सा होकर चुपचाप बैठी अपने स्कर्ट की हेमलाइन ठीक कर रही थी। मुझे मनाने के लिए चाचा जी ने कैमरा उठाकर एकदम से क्लिक कर दिया और मैं मुस्करा पड़ी थी।

Friday, August 23, 2024

हमारे साझे का मौसम



उस बारिश से इस बारिश तक 

न जाने कितनी बरसातें गुजर गई

यह हमारे साझे का मौसम है 

हवाबादलमोगरेरातरानी

सब तो हैं,

टूटकर बरसता है आसमान भी

पर भीगता नहीं मन

हवाओं में घुली खुशबू नहीं आती इन दि‍नों मुझ तक


तुम थे तो कितनी सुंदर लगती थी दुनिया

बारिश बजती थी कानों में

संगीत की तरह 

और पहाड़ों से बादलों को लिपटते देख 

नहीं थकती थीं आंखें....

Saturday, August 10, 2024

बारि‍श का इंतजार...


कोई मुझसे पूछे कि क्यों होता है बारिश का इंतजार तो मैं एक नहीं, सैकड़ों कारण गिनवा सकती हूं। अव्वल तो मुझे  बारिश की बूंदों को देखना, बारिश की आवाज सुनना और उसमें भीगना... तीनों ही बहुत पसंद है। बारिश मेरा पसंदीदा मौसम है। 

बचपन में भीगने पर डांट पड़ती थी तो स्कूल जाते समय छाता जरूर लगाती , मगर क्या मजाल कि घर लौटने समय कभी छतरी खोल लूं। कैसे भींगी - इस सवाल के रोज नए जवाब तैयार होते थे। भीगने का आनंद वही समझ सकता है, जो बारिश की बूंदों का लुत्फ उठाना जानता हो। 

और पीछे जाऊं तो वो दौर देखा है मैंने जब भरपूर बारिश होती थी। बरसात का तेवर ऐसा कि दोपहर तक धूप निकलती और शाम होने से पहले बारिश। यह रोज का ही नियम था। बचपन में कागज की नाव बनाकर पानी की धार में छोड़ना, उसके पीछे भीगते हुए दूर तक भागना याद आता है।
जब बारिश थम जाती तो हम बच्चे पूरे मैदान का मुआयना करते और मखमली घोघो रानी पकड़कर माचिस की डिबिया में रखते। शाम को बरामदे में दादी के साथ मिलकर बोरसी में आग सुलगाते। दादा जी काम से लौटते तो पहले हाथ तापते क्योंकि उन दिनों बरसात में तापमान भी बहुत कम हो जाता था। 

बिजली की चमक और गर्जन की तेज आवाज से डरकर हम दादा जी के पास दुबक जाते। बोरसी की आग में दादी मकई पकाती और उसकी सोंधी खुशबू और नींबू, नमक,मिर्च के साथ स्वाद लेते हुए खाते और दादा जी के किस्से सुनते रहते। 

कई लोगों के लिए बारिश परेशानी का कारण होता है, मगर मुझे बचपन से ही इसमें आनंद आता है। काले मेघ जब आसमान को घेरते हैं तो एक मयूर की तरह मेरा मन भी नाच उठता है। बूंदों का पत्तियों पर ठहरना, कांपना और गिरना...मैं मंत्रमुग्ध होकर देखती हूं। बारिश के मौसम में पेड़ - पौधे एकदम चटख हरे रंग के दिखने लगते हैं तो अपना झारखंड और खूबसूरत लगने लगता है। देर रात जब बारिश होती रहे तो चुपचाप उसकी आवाज सुनना आपको एक अलग दुनिया में ले जाता है। जब पहाड़ बादल की बाहों में होते हैं, तब देखिए वो दृश्य...क्या मजाल कि आपकी पलकें झपक जाए। फुहारों में भीगकर खराब से खराब मूड भी अच्छा हो जाता है, शर्त यही है कि सब भूलकर केवल बारिश का मजा लें।

Wednesday, August 7, 2024

बरसती बूंदों का राग

 


केले के उन हरे सघन पत्तों पर 

अनवरत बरसती बूंदों का राग है

हर बरस इस मौसम में बस एक ही बात सोचती हूं

क्या कोई होगा जो मेरी तरह यूं ही

बारिश को महसूस करता होगा...


क्या उसके अंदर भी 

जंगल में बारिश देखने की चाह उगती होगी

क्या मेरी तरह वो भी छत पर भीगता होगा


कितने तो ख्याल हैं 

बारिश से बदलती धरा के अनगिनत रंग और

माटी से उठती सोंधी गंध है 


ये कैसी अनजानी सी पीड़ा है

कि पहाड़ पर बारिश से बजती टीन की छत भी जैसे

किसी अनदेखे को पुकारती लगती है

मेरे लिए कोई है क्या इस दुनिया में

जो यूं बारिश को आत्मा से महसूस करता होगा...

Saturday, August 3, 2024

बारिश की आवाजें

 


रात के अंधेरे में हो रही बारिश की आवाजें हैं!

अभी एक और आवाज की स्मृति शामिल है इसमें 
दूर फैले पहाड़ों पर होती हुई बारिश देखने 
दो और आँखें कभी शामिल थीं


पत्तों से छनकर आती बूंदों की आवाजें सुनो- 
कहा था उसी ने

जिसके होने से मौसम थे सारे
जिसने उनके भीतर जीना सिखाया,
भीगना सिखाया जिसने आवाजों के भीतर
उसी ने पूछा है आज मन के‌ मौसम का हाल ?

होती हुई बारिश के बीच, ऐसी स्मृति एक यातना है !

Thursday, July 11, 2024

वाणभट्ट की आत्मकथा बनाम गाँव की व्यथा


अपनी छोटी सी लाइब्रेरी में एक किताब ढूंढ़ रही थी कि अचानक नजर पड़ी एक पीली सी, फटी जिल्दवाली किताब पर। जैसे कितने दिन से बीमार पड़ी हो और सेवा-सुश्रुषा के लिए इंतजार कर रही हो। उत्सुकतावश उसे रैक से निकाला। किताब थी हजारी प्रसाद द्विवेदी की 'वाणभट्ट की आत्मकथा।' 1974 में प्रकाशित 8 रुपए 50 पैसे मूल्यवाली पुरानी किताब थी। मैं यह देखकर हैरान हुई कि यह कोई खरीदी हुई नहीं, बल्कि लाइब्रेरी की किताब है, जिसमें रामेश्वर सिंह पुस्तकालय, ओरमाँझी की मुहर लगी थी।

किताब के हाथ में आते ही अचानक मेरा गाँव मेरे जेहन में करवटें बदलने लगा। जी हाँ, ओरमाँझी मेरे गाँव का नाम है। राँची शहर से महज 20-22 किलोमीटर दूर। अब तो वहां तक पहुँचने के लिए चौड़ी सड़क बन गई है। सड़क के दोनों ओर बाजार बन गए हैं, दुकानें खुल गई हैं। पहले सा वहां अब कुछ भी नहीं रहा। लोगों की आवाजाही, भीड़ और शोर-शराबे में मेरा वह गाँव अब गुम हो गया है जिसकी याद रामेश्वर सिंह पुस्तकालय की मुहर लगी इस किताब ने दिला दी है।

 'वाणभट्ट की आत्मकथा' हाथ में पकड़े सोच रही हूँ कि लाइब्रेरी की यह किताब भला मेरे पास कैसे? हम शहरी हो चुके लोगों की स्मृतियाँ अब तकनीकों पर निर्भर रहने लगी हैं। मेरी स्मृतियाँ उस दौर की हैं जब इक्के-दुक्के घर में लैंडलाइन फोन हुआ करता था। टीवी नाम की कोई चीज होती है - यह पढ़ा तो था, मगर पहली बार तब देखा जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, और गांव में एक अकेले घर में टीवी देखने के लिए इतनी भीड़ उमड़ पड़ी थी कि लगा कोई मेला हो। सामने बैठी भीड़ और पीछे खड़े बेशुमार लोग...और हम जैसे बच्चे उचक-उचक कर प्रधानमंत्री की अंतिम यात्रा देख रहे थे। हालांकि साल बीतते-बीतते हमारे घर भी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी आ गया, जिसमें आनेवाले कृषि दर्शन का भी इंतजार बहुत शिद्दत से किया जाता था।

बाद के दिनों में लैंडलाइन फोन भी बहुत सामान्य सी बात हो गई थी, यानी एक मोहल्ले में दो-चार फोन तो होते ही थे। ये सारे फोन नंबर हमारी जुबान पर बसे होते। फोन नंबर के लिए डायरी पलटने की जरूरत नहीं पड़ती थी। हालांकि तब भी हमसब अपने पास छोटी सी फोन डायरी रखते थे, जहां सबके नंबर नोट रहा करते थे। लेकिन अभी याद करने की कोशिश कर रही हूं तो अपने बच्चे, पति और दोस्‍तों में भी किसी के मोबाइल का नंबर याद नहीं। मजे की बात यह कि मुझे खुद का दूसरा नंबर याद नहीं। जब जरूरत पड़ती है तो मोबाइल के फोन कॉन्टैक्ट में जाकर नंबर निकाल लेती हूँ।

 कह सकती हूँ कि तकनीकों ने हमें कई तरह की सुविधाएं दी हैं, लेकिन उसपर निर्भर होकर हमने अपना बहुत कुछ गवां दिया है। एक बड़ा हमला तो हमने अपनी स्मृतियों पर ही कर दिया है। अब आँकड़े और फैक्ट हमारी स्मृतियों में नहीं गूगल पर बसने लगे हैं। इसी खोई हुई स्मृति का नतीजा है कि मैं हैरत में हूं लाइब्रेरी को याद कर, जो मेरी स्मृति में नहीं रह गई थी। वाणभट्ट की आत्मकथा ने मानों कई स्मृतियों पर से धूल हटा दी। जेहन का एक पूरा परत धूलरहित कर दिया और मुझे मेरे गाँव की लाइब्रेरी बिल्कुल साफ-साफ दिखने लगी। सच बताऊं तो गाँव आते जाते कई बार यह ख्याल उठता रहा था कि गाँव में पढ़ने-लिखने का माहौल बनाने के लिए एक लाइब्रेरी खोलनी चाहिए। पर इस दौरान कभी मेरी स्मृति में रामेश्वर सिंह पुस्तकालय नहीं आया। 

गाँव में पुस्तकालय खोलने का इरादा इसलिए भी बनता रहा है कि गाँव मुझे प्रिय है। वहाँ का जीवन अब भी लगभग ऐसा ही है कि सूरज डूबने और उगने के साथ ही दिनचर्या खत्‍म और शुरू होती है। यद‍ि शाम ढलने के बाद के समय का सदुपयोग किया जाए, तो बहुत से बच्चों का जीवन और बेहतर हो जाएगा। ज्ञान और अनुभवों की निधि तो पुस्तकों से ही प्राप्त की जा सकती है न! 

मेरे मन में अनवरत चलते विचारों को इस सुखद हैरत ने थाम लिया कि ओरमाँझी में तो बकायदा पुस्तकालय हुआ करता था, जिसका प्रमाण है यह किताब। मगर इतनी महत्वपूर्ण बात भला मैं भूल कैसे गई...?

मेरे घर के ठीक सामने एक मंदिर हुआ करता था। हालांकि अब उसका वह अस्तित्व ही समाप्त हो गया जो मेरी यादों में है। समय के साथ सब परिवर्तित होता गया।अब तक मेरी यादों में बसे उस पुराने मंदिर को तोड़कर एक भव्य मंदिर का निर्माण हो चुका है। अब केवल मंदिर बचा है... मेरे बचपन में उस जगह खेल का मैदान था... वहां नाटक खेला जाता था... वहां छउ नृत्य का आयोजन होता था, वहां नेताओं के भाषण होते थे ..और तो और मदारियों का करतब भी वहीं देखते थे हम। मुख्य मंदिर में प्रति वर्ष दो बार माँ दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती थी और पांच दिनों का उत्सव मनाया जाता था। उसी मंदिर के अगल-बगल दो कमरे थे, जिसमें बाईं तरफ का कमरा पूजा-पाठ के दौरान सामान रखने के काम आता था और दाईं ओर वाले कमरे के ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था 'रामेश्वर सिंह पुस्तकालय।

मैं नहीं जानती रामेश्वर सिंह को, जिनके नाम पर यह पुस्तकालय खोला गया था, मगर वह मेरे लिए अभिनंनदनीय हैं,  जिन्होंने एक ऐसे गाँव में पुस्तकालय की स्थापना की, जहां मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। यह अलग बात है कि उनके नेक विचारों को संभालकर आगे बढ़ाने वाला कोई व्यक्ति नहीं मिला, वरना कम से कम पुस्तकालय का अस्तित्व तो नहीं मिटता।  

यादों पर पड़े जाले साफ करने से याद आता है कि अंदर लकड़ी के आलमीरे में खूब किताबें थीं...ठूसी हुईं-सी, जहां घुसने पर अजीब तरह की सीली गंध घेर लेती थी। शाम होते ही बल्‍ब की पीली रौशनी जब दरवाजे से बाहर न‍िकलकर बरामदे पर पड़ती तो पता चल जाता क‍ि गांव के ही रघु चाचा अपना द‍िन का काम खत्‍म कर अवैतनि‍क लाइब्रेरियन के रूप में कार्यभार संभालने आ गए हैं। 

मैं तब बहुत ही छोटी थी और मेरा उपयोग बस इतना था कि माँ मुझे भेजती थीं किताबें लाने के लिए। मुझे याद है उस समय माँ के माथे से पल्लू कभी सरकता नहीं था और किसी बाहरी आदमी से कुछ लेन-देन करना हो तो दरवाजे की ओट से उनका हाथ ही बाहर आता था। इसलिए इस आदान-प्रदान का माध्यम मैं ही बनती थी। 

हालांक‍ि उस समय पर्दा या घूंघट प्रथा नहीं थी क्‍योंक‍ि मां घर में आराम से साड़ी का पल्‍लू कमर में खोंसकर काम क‍िया करती थी। बस जब दादाजी घर के अंदर आते तो उनकी आहट म‍िलते ही सर पर पल्‍लू रख लेतीं थी मां। दादी कभी सर पर आंचल नहीं लेती थीं, मगर मां बाहर वालों और खासकर क‍िसी बुजुर्ग को देखते ही झट माथे पर आंचल खींच लेतीं।  

कई बार लाइब्रेरी बंद कर लौटते समय रघु चाचा मेरी माँ के लिए किताबें ले आते और दरवाजे से मुझे पुकारते। उस समय मां की रसोई का वक्‍त होता था इसल‍िए अपना नाम सुनकर मैं बाहर दौड़ती और पहले उनकी लाई किताब माँ को थमाती और वापसी में उनको माँ की पढ़ी हुई किताबें पकड़ा देती। 

मैं तो यह बात बिलकुल भूल गई थी कि इसी किताब को तीन बार रीन्यूवल कराने के बाद भी माँ की पढ़ने की इच्छा बरकरार रही तो उन्होंने इसका मूल्य चुकाकर अपने पास रख लिया था... और जाने कैसे यह मेरी लाइब्रेरी की किताबों के बीच चुपचाप छुपा रहा। तब गाँव की महिलाएँ उस पुस्तकालय तक नहीं जाती थीं... पुस्तकालय ही क्यों...सब महिलाएँ घर से बाहर बस तीन वजहों से निकलती थीं... उन्हें डॉक्टर के पास जाना हो, मंदिर जाना हो या फिर वोट देने। उनके पास चौथी कोई वजह नहीं थी, जिसके लिए देहरी से उनके पाँव बाहर आते। ऐसे माहौल में मेरी माँ का जबरदस्त पाठक होना अभी भी हैरान करता है मुझे।  

मुझे याद है, मेरे पिता अखबार नियमित रूप से पढ़ते थे मगर किताबों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए माँ ही लाइब्रेरी की सदस्य बन गई थीं। जाने पि‍ता की रजामंदी से या छुपकर.. पता नहीं। उन दिनों गाँव में किताबों की दुकान नहीं होती थी, इसलिए पुस्तकालय ही एकमात्र जरिया था अपनी पढ़ने की भूख शांत करने का। दोपहर के एकांत में मां को हमेशा ही क‍िताब पढ़ते पाया था मैंने।

अतीत हमेशा से बहुत सुंदर और मोहक लगता है। अब याद करती हूं तो याद आता है कि जब मेरी उम्र कहानियां और उपन्यास पढ़ने की हुई, तब तक लाइब्रेरी बंद हो चुकी थी। वैसे किताब की दुकान तो अब भी नहीं है वहां, वहीं ही क्‍यों..शहरों में भी एक-एक कर सभी दुकानें बंद हो चली है...और अब सारा ज्ञान लोग मोबाइल से प्राप्त करते हैं। बदलते गांव को देखती हूं तो निराशा होती है। अब न वहां पहले की तरह प्यार है न व्यवहार। भले ही सिर से पल्लू उतर गया हो, औरतें हाट-बाजार करने लगी हैं, मगर यह किसी के ख्याल में नहीं आया कि मरती हुईलाइब्रेरी को बचा लिया जाए, या गाँव में पढ़ने की संस्कृति विकसित हो। बल्कि अब वो गाँव , कस्बा हो गया है और निरंतर कई होटल और मॉलनुमा दुकानें खुल गई हैं, मगर बौद्धिक विकास के लिए अब भी वहां कोई प्रयास नहीं किया जा रहा।   

उन दिनों साप्ताहिक बाजार में एक किताब की दुकान लगती थी, जिसमें चंपक, नंदन, मधु मुस्कान से लेकर राजन-इकबाल, गुलशन नंदा, रानू और सुरेंद्र मोहन की किताबें बिकती थीं। यह दुकान बाजार के एकदम अंतिम छोर पर लगा करती थी, जैसे कोई उपेक्षित चीज हो, जिसकी माँग ऐसी नहीं कि उसका सामने प्रदर्शन कर  ग्राहकों को आकृष्ट किया जाए। हालांकि मैं उस दुकान की नियमित ग्राहक थी क्योंकि माँ के लिए किताबें लाते-लाते पढ़ने का चस्का मुझे भी लग चुका था।

उन दिनों आस-पड़ोस की लड़कियां जो हाई स्कूल में पढ़ती थीं, सब माँ की दोस्त होतीं और मेरी बुआएं बन जातीं। स्कूल के बाद वो सब की सब माँ के पास आ जातीं और उनकी बैठकी जमती... फिर वो पत्रिकाएं, उपन्यास पूरे गांव में घूमते, जिसे शायद छुपाकर पढ़ा जाता, क्योंकि दादी के शब्दों में माँ काम का हर्जा कर किताबें पढ़ती थीं... इसलिए दादी को देखते ही किताबें छुपा दी जातीं।  

 हालांकि माँ बहुत काम करती थीं, और उन दिनों घर में मेहमानों का तांता सा लगा रहता था। तब न फोन था न ही पूछकर किसी के घर जाने का चलन। रिश्तेदार और दोस्त अचानक आ जाते और हफ्तों रहते। न उन्हें जाने की जल्दी होती न घरवालों को भगाने की हड़बड़ी। मिट्टी के चूल्हे पर खाना पकता और पाँत में बैठकर सब खाते। लकड़ी सुलगाते और उससे निकलते धुएँ से माँ की आँखें लाल हो जातीं, मगर कभी कोई शिकायत नहीं की।  तब न मिक्सी थी न फ्रिज...न ही गैस का चूल्हा... फिर भी बहुत कुछ पकातीं मेरी माँ... खुशी-खुशी। दूर गांव से कोई रेलयात्रा के लिए जाता, तो बीच रास्ते उतरकर घर आ जाता कि रात की गाड़ी है... दोपहर यहीं खा कर निकलेंगे और रात की रोटी बांध देना। न कहने वाले को हिचक, न देने वाले के माथे पर शिकन...

 बाजार से खरीदी हुई सब्जियों को ताजा रखने का एक जुगाड़ उस समय देखा था। पकी हुई सब्जी हो या बिना पकी हुई, उन्हें किसी बर्तन में रखकर रस्सी से उस बर्तन को बांध दिया जाता था और घर में बने गहरे कुएँ में पानी के पास लटका दिया जाता था। कच्ची सब्जियों को ताजा रखने का एक दूसरा उपाय था कि मिट्टी की जमीन पर सब सब्जियां रखकर उसके ऊपर जूट का बोरा भिंगाकर ढक दिया जाता। इस तरफ हफ्ते भर सब्जियां हरी रहतीं। यकीन मानिए मेरी यादों में उन सब्जियों का हरापन अबतक बचा रह गया है, जो अब फ्रिज भी नहीं बचा पाता। धनिया-पुदीना कभी बाजार से खरीदना नहीं पड़ता था। कुएँ के आसपास की जमीन पर धनिया-पुदीना के पौधे लहलहाते रहते, जब जरूरत हुई, जितनी जरूरत हुई तोड़ लिया। इन पौधों को पानी देने की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। क्योंकि कुएँ के आसपास नहाने से लेकर बर्तन माँजने तक का काम होता था और इस दौरान बहने वाला पानी इन पौधों तक खुद पहुंच जाता था। उस पुदीने की जो महक हुआ करती थी, वह अबके पुदीने में नहीं मिलती।

लाइब्रेरी और किताबों की बात से ध्यान आया कि किसी क्लास की किताबें कैसे एक हाथ से दूसरे हाथ तक होती हुईं सालों साल विद्यार्थियों के काम आती थीं। कोर्स की किताबों का ऐसा उपयोग होता कि जैसे रेशा-रेशा वसूल करे कोई। पांचवीं कक्षा में जानेवाले छात्र के माता या पिता पहले से ही छठवीं कक्षा में जाने वाले बच्चे और उसके माता-पिता को कह देते कि उसकी किताब मुझे दे देना। परीक्षा समाप्त होने के बाद सीनियर बच्चे से किताबें ले ली जातीं।

 बड़े शौक और खुशी से परीक्षा परिणाम आने के पहले ही पुरानी जिल्द हटा दी जाती...भूरे रंग का, थोड़ा खुरदुरा खाकी पेपर आता। बच्चा अपनी माँ की सहायता से आटे को पकाकर उससे लेई (गोंद) तैयार करता। फिर एक-एक कर पुरानी किताबों पर नई जिल्द चढ़ती। उसे अच्छे तरीके से साटकर नया-सा बना दिया जाता। उन किताबों के ऊपर सफेद  कागज चिपकाया जाता और स्केल से लाइन खींचकर नाम लिखने की जगह बनाई जाती। मगर अभी नाम नहीं लिखा जाता, क्योंकि सीनियर बच्चा इस शर्त के साथ किताबें देता कि अगर वह फेल हुआ...तो वापस ले लेगा।

 हालांकि किताबें उन्हीं छात्रों से ली जातीं, जिन पर भरोसा होता कि वह फेल नहीं करेगा। यह सिलसिला तब तक चलता जब तक किताब फट न जाए और पढ़ने लायक न बचे। इस तरह किताबों के एक सेट से कई साल बच्चे पढ़ लेते। यह आपसी प्रेम का भी परिचायक है और बचत का भी। कोई बच्चा नाक सिकोड़कर फरमाइश नहीं करता  कि उसे नई किताबें ही चाहिए। परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद कॉपियाँ खरीदकर उन पर जिल्द चढ़ाई जाती और पिछले वर्ष की कॉपियों के बचे पन्ने को एक साथ सीलकर उनसे रफ कॉपी बनाई जाती।  

अब इस्तेमाल की यह प्रणाली गांवों से भी बाहर हो गई। ठहर कर सोचिए तो पता चलेगा कि इस व्यवस्था के खत्म होने के पीछे का कारण है हर वर्ष किताब के सेट में थोड़ा सा बदलाव। इससे एक ही घर का बच्चा आगे की कक्षा में पढ़ रहे भाई या बहन की किताबों का उपयोग नहीं कर पाता। खासकर निजी स्कूल मैनेजमेंट कमीशन के लालच में निजी प्रकाशकों की किताबें ही कक्षा में चलाते हैं और इस कारण विद्यार्थियों को नई किताबें खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

उन दिनों क्लास से बाहर की किताबें पढ़ने वाले बच्चों का अपना ग्रुप होता। एक किताब को सब पढ़ते..एक-एक कर। स्कूल के बाद वाला समय जुगाड़ और खेल का होता। पहले मानसिक संतुष्टि के लिए किताब की खुराक जमा की जाती, फिर बाहर खेलते भागते बच्चे। कल्पनाओं की दुनिया में घिरे बालक कभी जमीन खोदकर पाताल में बौने ढूंढ़ने की कोशिश करते तो कभी उड़ने वाले ड्रैगन तलाशते। गांव के बच्चे खेल-खेल में प्रकृति को जानते-समझते।

आजकल के बच्चों से पूछा जाए तो वे शायद पपीता और पाकड़ के पेड़ भी न पहचानें, मगर ग्रामीण बच्चे खेल-खेल में शिक्षा ग्रहण करते।  एक खेल हुआ करता था- अत्ती -पत्ती कौन पत्ती। सब बच्चे एक जगह इकट्ठा होते और उनमें से एक बच्चा निकलकर दौड़ जाता गांव में किसी भी ओर और किसी पेड़ की पत्ती तोड़ लाता। बाकी बच्चों को उसे पहचानना होता कि किस पेड़ की पत्ती है। जो जवाब नहीं दे पाता, उसकी बारी होती कि वह कोई ऐसा पत्ता लाए, जिसे पहचानना कठिन हो। इस क्रम में छोटी उम्र से ही बच्चे लगभग सभी पेड़-पौधे पहचानने लगते थे, जिससे आगे जाकर उनका प्रकृति से गहरा जुड़ाव हो जाता था। बच्‍चे सभी पेड़ पौधों की व‍िशेषता से वाकि‍फ होते थे और अनजाने ही प्रकृत‍ि की सुरक्षा की भावना उनमें घर कर जाती थी। आम की गुठली खाकर फेंकने पर भी उसमें पत्‍ते न‍िकल आते तो बड़े एहत‍ियात से उसे ऐसी जगह रोप द‍िया जाता ज‍हां उसे पेड़ बनने में कोई परेशानी न हो। अब तो गांवों में भी जगह म‍िलना मुश्‍क‍िल हो गया है। घर और उसके चारों ओर इंच-इंच को पक्‍का करना शायद शहरी और अमीर होने की न‍िशानी मान ली गई है। 

 सब कुछ सीख लेना, पा लेना सबके नसीब में नहीं होता। झारखंड के एक सज्जन को 'लाइब्रेरी मैन' के नाम से पुकारा जाता है। यह एक ऐसा इनसान है, जिसका सपना था आईएएस अधिकारी बनने का, मगर गरीबी के कारण महँगी किताबें नहीं खरीद पाए और उनका सपना, सपना ही बनकर रह गया। अपनी परेशानी को जानते हुए इस इनसान ने गरीब बच्चों की सहायता के लिए राज्य के पांच जिलों में 40 पुस्तकालय की स्थापना की और इस लाइब्रेरी की मदद से हजारों युवा अपने सुनहले भविष्य की इमारत गढ़ने में लगे हैं।

 कुछ सुखद है तो बहुत कुछ दुखद भी। मेरे गांव की लाइब्रेरी के बंद हो जाने का जितना दुख मुझे है, उससे शायद कहीं ज्यादा ही दुख हुआ था, जब पता चला था कि करनाल में 'पाश पुस्तकालय'  तोड़ दिया गया। मन बड़ा ही आहत हुआ था सुनकर कि पुस्तकालय की 8 हजार किताबें तीन जगह शिफ्ट कर दी गईं। अगर हम साहित्य को संभालकर नहीं रखते, तो समाज को कैसे संभालेंगे... उस पर वह पुस्तकालय जो अवतार सिंह सिंधू के नाम पर स्थापित थी, उसे हम बचा नहीं पाए तो क्या हैरानी की बात है कि रामेश्वर सिंह पुस्तकालय की किताबों को दीमक लगने के बाद पुस्‍तकालय ही बंद कर दिया जाए।

किताबें बागी बनाती हैं...यह पुरातन सोच है मगर आज भी कहीं-न कहीं लोगों के मन में यही बात है।  इन दिनों  स्त्री चेतना, स्त्री आलोचना पर कई किताबें आई हैं। साथ की एक महिला, जो खुद रचनाकार हैं, उसने इन किताबों को उलट-पलट कर वापस दिया। पूछने पर कि क्यों नहीं लिया, उनका जवाब था कि कहीं इन्हें पढ़कर प्रभावित हो गई, सवाल उठाने, विरोध करने लगी तो मेरा परिवार ही टूट जाएगा। 

 इक्कीसवीं सदी में इस सोच पर बेशक किसी को भी हैरत होगी, मगर बहुत कुछ बदलना अभी बाकी है। उस दौर में भी जब मध्यमवर्गीय परिवार की स्त्रियों को घर से बाहर निकलने नहीं दिया जाता था, इसी इलाके में मेहनतकश आदिवासी औरतें अपने लिबास और औरतों के पुरातन डर को परे हटाकर खेतों में काम करतीं और जंगलों में विचरती थीं क्योंकि उनका सामाजिक ढांचा ही ऐसा है। मगर क्या उन्हें शिक्षित होने की जरूरत नहीं..  क्या उनको देश-विदेश और विज्ञान की बातें नहीं जाननी चाहिए?  

यह भी एक सच है कि बेहतरीन जिंदगी की उम्मीद में शहरों का रुख करने से अब गांव के गांव खाली हो रहे हैं। पुरानी विरासत पर नए रंग रोगन चढ़ाने की कोशिश में सब कुछ बदरंग हुआ जा रहा है... हम अपने मूल्य खो रहे हैं। ऐसे समय में जब सतही और उथले ज्ञान का बोलबाला है.. पुस्तकों की जरूरत और शिद्दत से महसूस होती है। खासकर गांवों में बेवजह समय गुजारने वाले बच्चों को प्रतियोगी परीक्षा से लेकर कॉमिक्स, लिटरेचर आदि की किताबें एक साथ मिल जाएं, तो उनकी जिंदगी सँवर जाए।

इन दिनों गांव में भी लोगों को ई - बुक्स के बारे में पता है। एक तो वैसे भी कोरोना काल में पढ़ाई के लिए बच्चों के हाथों में मोबाइल दे दिया गया। अब यह स्लोगन वास्तव में चरितार्थ हो गया है कि 'दुनिया मेरी मुट्ठी में।एक क्लिक में हम जो चाहें, ढूंढ़ या देख सकते हैं। इसके लिए किताबों का पन्ना पलटने की जरूरत नहीं। फिर उस पर चैटजीपीटी के आने से किसी भी सवाल का जवाब तुरंत पा सकते हैं। पर शायद इस खतरे से अनजान हैं लोग कि जो फायदा किताब पढ़ने से होता है, वह कभी ई - बुक्स या किसी भी सर्च इंजन के इस्तेमाल से नहीं पा सकते। किताबें पढ़ते हुए हमारे अंदर एक दृश्य बनता जाता है और पढ़ा हुआ सब हमारे दिमाग में धंस जाता है। जबकि ऑनलाइन पढ़ी हुई बातें हमारे जेहन से जल्दी ही उतर जाती हैं। मगर लोगों को समझ नहीं आती यह बात, इसी कारण पुस्तकालय की जरूरत को कई जगह नकारा जा रहा है।

हालांकि यह सुखद है कि इन दिनों गांव-गांव में कम्युनिटी लाइब्रेरी खुल रही है और उत्साही युवा इसे अलग-अलग गांव कस्बों में खोल रहे हैं। खेती-किसानी करने वाला परिवार अपने बच्चों को महँगी किताबें खरीदकर नहीं दे सकता, मगर ऐसे बच्चे लाइब्रेरी का फायदा उठा सकते हैं। अब गांव-गांव लाइब्रेरी की मुहिम जोरों पर है तो झारखंड सहित पूरे देश में उम्मीद कि लाइब्रेरी खुलेगी और मैं भी अपने गांव के पुस्तकालय में वाणभट्ट की आत्मकथा वापस रख दूंगी।

 गांव की यादें ऐसे खींचती हैं कि लगता है शहर छोड़ वहीं बस जाए जाए, जहां सुविधाएं तो कम थीं, मगर प्रेम इतना कि छलकता रहता। भूख लगने पर किसी के घर भी खाना मिल जाता था। तब पानी-भात और अचार में जो स्वाद मिलता था, वह आज के छप्पन भोग में भी कहां। मिलकर खाने से स्वाद और बढ़ जाता है, भूख और तेज हो जाती है। सामूहिकता में जीने वाले हमसब कभी नहीं जानते थे कि न्युक्लियर परिवार क्या होता है। सामूहिकता में जीने के अभ्यास ने हमें उदार बनाया था और निजी खुशियों, सुकून और एकांत की तलाश में बने अब के न्युक्लियर परिवार ने हमारे जीवन को एकाकी और उदास बनाया है। हो सके तो आइए, हम अपने गाँव की ओर चलें। उसे समृद्ध बनाएँ। विकसित बनाएँ और गाँव का वह ‘देहातीपन’ बचाए रखें जिसे इनसानियत, प्यार, स्नेह, अपनत्व, लगाव और स्वाभिमान के रूप में हम जानते हैं।

Tuesday, July 2, 2024

पिता की चिंता ...



हममें बहुत बात नहीं होती थी उन दिनों
जब मैं बड़ी होने लगी
दूरी और बढ़ने लगी हमारे दरमियां
जब मां मेरे सामने
उनकी जुबान बोलने लगी थीं

चटख रंग के कपड़े
घुटनों से ऊंची फ्रॉक
बाहर कर दिए गए आलमीरे से
सांझ ढलने के पहले
बाजार, सहेलियां और
ठंड के दिनों कॉलेज की अंतिम कक्षा भी
छोड़कर घर लौटना होता था

चिढ़कर मां से कहती -
अंधेरे में कोई खा जायेगा?
क्या पूरी दुनिया में मैं ही एक लड़की हूं.
पापा कितने बदल गए हैं,
कह रूआंसी-सी हो जाती...

बचपन में उनका गोद में दुलराना
साईकिल पर घुमाना
सिनेमा दिखाना, तारों से बतियाना
अब कुछ नहीं, बस यही चाहते वो
हमेशा उनकी आंखों के सामने रहूं।

मेरा झल्लाना समझते
चुपचाप देखते, कुछ न कहते वो
हम सबकी इच्छाओं,जरूरतों और सवालों को ले
बरसों तक मां सेतु बन पिसती रहीं

कई बार लगता
कुछ कहना चाहते हैं, फिर चुप हो जाते
मगर धीरे - धीरे एक दिन वापस
पुराने वाले पापा बन गए थे वो
खूब दुलराते, पास बुलाते, किस्से सुनाते
मां से कहते - कितनी समझदार बिटिया मिली है!

यह तो उनके जाने के बाद मां ने बताया -
थी तेरी कच्ची उमर और
गलियों में मंडराते थे मुहल्ले के शोहदे
कैसे कहते तुझसे कि सुंदर लड़की के पिता को
क्या - क्या डर सताता है...

बहुत कचोट हुई थी सुनकर
कि पिता के रहते उनको समझ नहीं पाई
आंखें छलछला आती हैं
जब मेरी बढ़ती हुई बेटियां करती हैं शिकायत
मम्मी, देखो न ! कितने बदल गए हैं पापा आजकल !

Wednesday, June 26, 2024

हो रहा है ज़िक्र पैहम आम का


आम...नहीं - नहीं, आम से पहले मुझे आम का बगीचा याद आता है, पत्तों से छनकर आने वाली धूप याद आती है और पीठ पर उगी घमौरियों की काल्पनिक खुजलाहट भी महसूस होने लगती है।

यह तो होना ही था...तब भरी दोपहरी आम के बगीचे में मुहल्ले के बच्चों का जमावड़ा लगता और होती थी छीना - झपटी। जब आम के टिकोरे थोड़े से बड़े होते तो कोई अपनी जेब में छुपाकर नमक लाता, कोई मिर्ची और जो ज्यादा तेज बच्चा होता वह अपने घरवालों की आंख बचा रसोई से चाकू भी ले आता। सब मिलकर उसे छीलते, छोटे - छोटे टुकड़े करते और फिर बनता नायाब कच्चे आम का घुमउआ...अहा...मुंह में पानी लाने वाला अतुलनीय स्वाद।

ढप की वह आवाज रसीली


गर्मियों की छुट्टियां आधी बीतती तब तक आम बड़े होने लगते। कुछ दिनों पहले तक आम खाने का साझा बंदोबस्त वाला तरीका बंद हो जाता, क्योंकि पके आम मिलने पर भला कौन बंटवारा करे !  पत्थर मारकर आम भी नहीं तोड़ा जा सकता क्योंकि बागीचे की पहरेदारी अब तक शुरू हो जाती थी। इसलिए हमें पेड़ से पके - टपके फल का इंतजार होता। जैसे ही ढप की आवाज होती, झाड़ - झंखाड़ भूलकर सब बच्चे उस ओर ही दौड़ लगाते। जिसके हाथ लगता आम...वह दूसरों को दिखा - दिखा कर ललचाता।

पहले ज्यादातर बीजू आम के पेड़ होते थे घरों के बाहर। उन दिनों एसी कूलर का जमाना नहीं था, सो गर्मियों में हमलोग छतों पर तारे गिनते या हवा चलने पर कितने पके आम गिरे, इसकी गिनती करते हुए सो जाते। सुबह जल्दी उठकर सब आम चुन कर एक बाल्टी पानी में डुबाकर छोड़ देते। फिर तो आम ही नाश्ता, आम ही खाना...

वरना लंगड़ों पे कौन मरता


गर्मियों और आम ऐसा नाता है कि एक के आते ही दूसरे को पाने की बेताबी बढ़ जाती है। तब हमारे लिए आम की दो ही किस्में होती थी - काटकर खाने वाला, चूस कर खाने वाला आम।

यह तो बाद में पता लगा कि अल्फांसो, दशहरी, जर्दालू, बैंगनपरी, तोतापरी, कलमी, हापुस, चौसा, मालदा, लंगड़ा...न जाने कितने आम होते हैं। मुझे लंगड़ा नाम के साथ ही किसी का कहा एक शेर याद आता है -

"तजरुबा है हमें मुहब्बत का दिल हसीनों से प्यार करता है
आम ये तेरी खुशनसीबी है वरना लंगड़ों पे कौन मरता है"


इतिहास में आम


प्राचीन भारतीय ग्रंथों में आम को कल्पवृक्ष भी कहा गया है। वैदिक कालीन ग्रंथों तथा अमरकोश में भी इसकी चर्चा है और यह बुद्ध के समय भी प्रतिष्ठा पा चुका था। आम की प्रशंसा कालिदास ने भी की और सिकंदर ने भी।हेमिल्टन जो अठारहवीं सदी में भारत आया था, उसने गोवा के आमों को संसार का सर्वश्रेष्ठ आम बताया है ।  कोंकणी आम की यह प्रतिष्ठा आज भी कायम है।
ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में भी आम का उल्लेख किया है।

कहते हैं मुगल सम्राट अकबर ने दरभंगा में विभिन्न प्रजातियों के आम के पेड़ लगवाए थे। शाहजहां भी आम का शौकीन था। और हां - चौसा में हुमायूं पर जब शेरशाह ने विजय प्राप्त किया तो अपने पसंदीदा आम का नाम चौसा रख दिया।


अमझोरा का सोंधा स्वाद


उन दिनों आम की गुठली कड़ी होने से पहले ही आम घर आ जाता था अमझोरा बनाने के लिए। क्या स्वाद होता था उसका। पहले उसे आग या गरम राख में पकाओ, छील कर गूदा अलग करो और उसमें काला नमक, चीनी, भुना जीरा, पुदीना और पानी डालकर तैयार करो। कहीं से बर्फ मिल जाए तो स्वाद जैसे दुगुना हो जाता था। लोग तो मिट्टी के घड़े में डालकर ठंडा होने रखते थे और खूब पीते, मस्त काम करते। गांवों में गर्मी के असर को काटने का कोई दूसरा उपाय इससे बेहतर नहीं होता था।


वैसे अचार का सिलसिला तो बचपन से ही चला आ रहा। मां गर्मियों में आम के चार टुकड़े करने के लिए 'बैंठी' जिसे हंसुल कहते हैं, उसका उपयोग करती थीं। जिस आम के अंदर की गुठली कच्ची निकलती, वह हमारे खेल का साधन बनती। हम उसे अंगूठे और इंडेक्स उंगली के बीच रखकर दबाते। सामने जो भी लड़का या लड़की होता, उसकी ओर देखकर चिकनी गुठली से पूछते - " कोया - कोया...बता इसकी शादी किधर होगी ? " गुठली जिस दिशा में जाकर गिरती, हम सामने वाले पक्का विश्वास दिला देते कि मानो न मानो तुम्हारी ससुराल उसी दिशा में होगी।

तब न टीवी सबके घर होती थी न और खेलने का कोई अलग तरीका। तो बच्चे मन बहलाव के लिए कंचे - कबड्डी के अलावा भी कुछ खेल बना लेते थे।

अचार की फांक


आम के मीठे और नमकीन दोनों तरह के अचार बनते घर में। मां साबुत मसाले मंगवाती और एक - एक कर सब मसाले पहले भूनती और सबको सिल - लोढ़ा में पीसती। पूरा घर भुने मसालों की सोंधी सुगंध से भर जाता।

मां अचार लगा धूप में रख देती और हमलोग छत पर चुपके से जाकर अचार की फांक निकाल कर भागते। चार - पांच दिन धूप दिखाने के बाद खाने के लिए कुछ अचार बाहर रखकर बाकी को कांच के मर्तबान में साल भर सुरक्षित रखने के लिए ढक्कन के नीचे एक कपड़ा डालकर कस कर बंद किया जाता था। इन अचारों को हम साल भर खाते। मुझे याद है तब बड़े शहरों से आने वाले मेहमान मां के हाथों बने अचार की तारीफ कर अपने घर ले जाने के लिए भी मांग लेते।

जाने कहां गए वो दिन


कई बार आम अधिक आ जाता तो मां छोटे कच्चे आमों को छील - सुखाकर उसकी खटाई बनाती और पके आम के अमावट, जैम बनते। यानी आम के आम, गुठली के दाम। सब कुछ घर का बना। न कोई प्रिजर्वेटिव का उपयोग न बाजार का चक्कर। होम मेड चीजें जो स्वाद में तो अच्छी होती थी, स्वास्थ्य की दृष्टिकोण से भी फायदेमंद। अब सोचती हूं तो लगता है, यह किसी और युग की बातें याद कर रही हूं। बच्चों के पास अब इतनी फुर्सत कहां कि आम में मंजर आने से उनके पकने तक कि प्रक्रिया को जाने समझे।

हमलोग तो आम के मंजरी आने से ही पेड़ पर नजर गड़ाए रहते थे। इसके दो कारण थे - पहला कि उस समय सरस्वती पूजा के दिन मिश्री और आम के मंजर प्रसाद के रूप में चढ़ाकर, फिर पहली बार खाते थे। दूसरा - कोयल की मीठी बोली उसी समय से सुनाई पड़ने लगती थी।

अब कार्बाइड डाल कर पकाए फल और पेड़ में पके फल के स्वाद का अंतर हम समझते हैं, क्योंकि हमने दोनों को चखा है। मगर अब के बच्चे भला कैसे पहचानेंगे यह स्वाद ?  अब बाजार जाइए, जो उपलब्ध है, खरीद लाइए। बल्कि अब तो लगभग हर मौसम में आम मिलने लगा है, जिसमें कोई स्वाद होता ही नहीं।

गलती आज के बच्चों की भी नहीं है। ये कंक्रीट के जंगल में रहते हैं और इनकी दुनिया मोबाईल, लैपटॉप में सिमट के रह गई है। घर के आसपास न कोई फलदार पेड़ नजर आता है और न ही फल पकने पर पड़ोसी के घर पहुंचाने वाली सामाजिकता बची है। लोग इतने सिमट गए हैं कि अब पड़ोसी भी पड़ोसी को नहीं पहचानता।

एक समय था जब घर में आम का पेड़ होना, समृद्धि का परिचायक हुआ करता था। पहले जिनके आम के बागान या चार - छः पेड़ होते थे वो आम पकने पर पूरे मुहल्ले को बांटने के बाद नाते - रिश्तेदार और मित्रों के घर भी भिजवाया करते थे। शादियों में भी टोकरी भर - भर कर आम भिजवाने का रिवाज़ था। तभी न अकबर इलाहाबादी ने तो एक पूरी ग़ज़ल ही बतौर ए ख़ास 'आम' पर लिख डाली है 'आम-नामा' के नाम से। दरअसल यह दरख्वास्त थी अपने दोस्त मुंशी निसार हुसैन से -

नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए

ऐसा ज़रूर हो कि उन्हें रख के खा सकूँ
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस ख़ाम भेजिए

मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए

ऐसा न हो कि आप ये लिक्खें जवाब में
तामील होगी पहले मगर दाम भेजिए !


माना जाता है कि यह सबसे पहले आसाम में जंगली प्रजाति के रूप में उगा और चौथी से पांचवी सदी ईसा पूर्व ही एशिया के दक्षिण पूर्व तक पहुंच गया। भारत कभी भी आम का आयात नहीं करता और यहां पन्द्रह सौ से अधिक किस्म के आम उगाए जाते हैं। वाकई, आम आम नहीं खास है, क्योंकि यह फलों का राजा है। मंजर से लेकर पत्तों तक, कच्चीअंबिया से लेकर पके आम तक , हमारे जीवन में रचा - बसा है, समझिए कि एक पूरी संस्कृति है आम।


Thursday, May 30, 2024

जलते हुए पेड़



कल रात घुमावदार घाटी
पार करते हुए,नीचे एक पुराने लंबे वृक्ष को
जलते देखना,
कितना विचलित कर देने वाला अनुभव था!
जैसे कोई दैत्य अट्टहास करता हुआ
अपनी भुजाएं फैलाए !

मई की इस गर्मी में जल रहे हैं
छोटानागपुर के ये पहाड़ भी,
दहशत से भरे जानवर गांवों की ओर भाग रहे हैं
ताप से सहमी है चिड़ियाँ
हरे जंगलों के बीच आग देखना 
जैसे सामने हो रही हिंसा को देखना है

ओह! अब कोई नहीं कहता
जंगल की आग देखकर कि
ऐसे तो सब खत्म हो जाएगा एक दिन!

कोई नहीं कहता कि यह कैसे बुझेगी!
पहले भी लगती थी आग इन जंगलों में
सब दौड़ते थे पानी से भरी बाल्टियाँ लेकर
ऐसा कहते हैं पुराने लोग

देखती हूं घाटियों में लोग खड़ी करते हैं अपनी गाड़ियां
उनके मोबाइल के कैमरे चमक उठते हैं
जलते हुए पेड़ों और पहाड़ों की तस्वीरें लेकर
लौटते हैं सैलानी अपने घरों को

मैं जगी रहती हूं
बचपन में देखे गए हरे जंगल की याद में , और...
मेरी नींद में खलल डालते आते रहते हैं जलते हुए पेड़!


Friday, May 24, 2024

अकेली मां

मां अक्सर बताया करती थीं
युवा दिनों में
जब जाती थीं पिता के साथ बाजार
लंबे डग भरते हुए
हमेशा पिता चार हाथ आगे निकल जाते थे
साथ चलने के लिए
छोटे कद की मां को लगभग दौड़ना पड़ता था


बड़ी हुई बेटियां तो मां ने
पिता के साथ बाहर जाना छोड़ दिया
गर्व से भरी मां दोनों बेटियों के हाथ थाम
बाजार जातीं, सिनेमा देखतीं,
सहेलियों सी खिलखिलातीं
पिता से कहतीं
जाइए अब अकेले और तेज कदमों से
नापिए दुनिया

और एक दिन पिता सचमुच
लंबे डग भरते हुए बहुत दूर निकल गए
मां अकेली छूट गईं

बेटियां कहां रह पाती हैं मां के पास हमेशा
तुलसी मुरझा जायेगी,
भूरी बिल्ली कहीं भूखे न रह जाए
छत पर उतरने वाले कबूतर उन्हें न पा उदास हो जाएंगे...
मां से भी तो अपना घर नहीं छूटता

अब भी उन दिनों को याद करती हैं मां
पिता के साथ स्कूटर पर बैठ
पूरा शहर घूमती थीं
अब थरथराते हैं पांव
सड़क पर चलते, रिक्शा चढ़ते

डबडबाई आंखों से इतना ही कहती हैं
तेरे पिता को आगे चलने की आदत थी न
तब भी तो मुड़कर नहीं देखते थे
कि पीछे कहां रह गई हूं मैं....