कुछ दूर आगे बढ़ने पर पता लगा कि सड़क बंद है। रास्ते में चट्टान गिर जाने से रास्ता बंद हो गया है। दूर तक लंबी कतार थी वाहनों की। पर वह एक खूबसूरत जगह थी। ऊँचे पहाड़, हरे-भरे । वहाँ दूर-दूर तक याक चर रहे थे। बगल में श्योक नदी बह रही थी। यह जगह खलसर थी। हमने मजाक भी किया कि नुबरा अाकर याक नहीं दिखा था , इसलिए यहाँ रुकना पड़ा। हमारे आगे बहुत सी गाड़ियाँ रुकी हुईं थीं। कुछ स्थानीय महिला-पुरुष भी नदी किनारे बैठे दिखे। दूसरी ओर कुछ टैंट लगे हुए थे। यहाँ स्थानीय लोग जो याक पालते हैं और कुछ लोग जो मजदूरी करते हैं वो यहाँ रहते हैं। उधर पीछे पहाड़ी पर बर्फ थी और काले बादल भी। यहाँ हमें खूब ठंड लग रही थी।
कुछ देर तक तो सबने प्रकृति का मजा लिया फिर उकताने लगे। कुछ लोग सड़क पर चादर बिछाकर ताश खेलने लगे तो कुछ लोग खाने का सामान निकालकर खाने लगे। हमारे पास वैसा कुछ नहीं था खाने को। कुछ बिस्किट के पैकेट थे और कुछ सेब। वही खाया और घूमने लगे। जमीन पर तरह-तरह के फूल खिले थे। सफेद डेजी, पीले फूल, सफेद फूल और बैंगनी फूल जिसका नाम ताग शा नागपो है। लगा..कि इसलिए नुबरा का दूसरा नाम फूलों की घाटी है। पत्थरों के पास उगे छोटे नन्हें फूल बेहद खूबसूरत लग रहे थे। इनके लिए ही कहा गया है ' लिली आॅफ फील्ड' । ऐसे फूल जो जिंदगी से बेखबर उग आते हैं कहीं भी।
एक घंटे से ज्यादा हो गया हमे रूके हुए। दोपहर हो गई थी। हम सबने सुबह केवल ब्रेड खाया था सो भूख लगी। आगे करीब आधे किलोमीटर दूर भीड़-भाड़ नजर आ रही थी। वहाँ बैरिकेटिंग लगा था और याद आया कि आते वक्त हमने देखा था कुछ खाने-पीने की दुकानें भी थी। मैंने आदर्श को कहा कुछ ले आए खाने को ,क्योंकि बच्चों को भूख लगी थी। वे पैदल ही चले गए लाने और मैं बच्चों के साथ सड़क के दूसरी तरफ आ गई जहाँ ये श्योक नदी का धवल जल दिखता था। वहीं पत्थर पर दो स्थानीय महिलाएँ बैठी थी।
मैंने भी बात करने के उद्देश्य से उनके पास जाकर बैठ गई। वो दोनों महिलाएँ मां-बेटी थी और वो लोग भी जाम खुलने कर इंतजार कर रही थी। हमने कुछ देर बात की। बताया उन्होंने कि किसी रिश्तेदार के यहाँ जा रही हैं। मां वृद्ध थीं। बैठे-बैठे हाथ में लिए मनके की माला फेर रही थी। उन्होंने अपने गले में ऊँचा स्कार्फ बांध रखा था। जरा गौर किया ,तो पाया कि गले में सफेद दाग था, शायद उसे छिपाने के लिए ही स्कार्फ बाॅँधा था। उन्होंने कान में सोने का नीला पत्थर जड़ा टाप्स पहना था। मैंने स्थानीय महिलाओं को पत्थर के आभूषण पहने देखा है जिनमें नीले पत्थर का ज्यादा प्रयोग होता है। हमने बात की उनसे। तभी मेरी नजर पड़ी उनके पास रखे लाल थैले पर। उसमें कुछ पत्ते भर रखे थे उन्होंने। नाम बताया 'दसोट या जजोट'। वहीं आसपास ढेरों पत्ते थे। बताया कि इसको असावधानी से छूने पर खुजली होती है। इसलिए इसे 'बिच्छु बूटी' भी बोलते हैं। स्थानीय लोग गर्मियों की इसकी छोटी पत्तियाँ तोड़कर सब्जी बनाते हैं या सत्तू में मिलाकर पीते हैं। ज्यादा मात्रा में तोड़कर इसे सूखा के पास में रखते हैं,क्योंकि ठंड में जब बर्फ गिरती है तो पैदावार नहीं होती कुछ। इसलिए सूखी जजोट के पत्ते की सब्जी बनाकर खाते हैं। हँसते हुए कहा उस महिला ने कि बहुत देर से रुके थे यहाँ तो हमलोगों ने जजोट के पत्ते तोड़कर जमा कर लिया।
इतनी देर में ये लोग दोनों हाथों में सामान लिए आ गए। खूब सारे चिप्स के पैकेट और बच्चों के लिए मैगी। वहाँ मैगी, थुपका आदि ज्यादा खाया जाता है। मैंने उन दोनों महिलाओं को भी चिप्स का पैकेट पकड़ाया; क्योंकि अनुमान था उन्हें भी भूख लग आई होगी। हम सब खा ही रहे थे कि पता चला रोड क्लियर हो गया है। जल्दी से सबलोग अपनी-अपनी गाड़ी की ओर दौड़े। दो घंटे समय बिताकर हम अब निकल पाए थे।
अब हम सीधे रास्ते में आ गए। थोड़ी दूर के बाद यहीं से बाएँ मुड़ता है एक रास्ता जो सीधे पैंगोग ले जाता है। यह जगह डरबुक थी जो तांगसे होते हुए पैंगोग सीधे ले जाती। हमें वापस खारदुंगला होकर नहीं जाना पड़ता। एक दिन बचता भी। मगर ऐसा नहीं हो पाया। बाएँ मुड़ने वाला रास्ता बंद था। मजबूरी में हमें वापस खारदुंगला जाना पड़ा।
फिर वही सुंदर दृश्य। इस बार तो बारिश के कारण बर्फ गिर रहा था। हमलोग ने स्नो फाल का मजा उठाया। कुछ देर को खारदुगंला टॉप पर रूके भी। इस समय भीड़ कम थी कल के मुकाबले। बारिश भी हो रही थी। सबसे कमी अखरी वहाँ शौचालय की। इतनी दूर यात्रा, और ठंड के बाद इसकी व्यवस्था जरूरी है। कभी बना होगा शौचालय मगर अब जीर्ण हालत में हैं। महिलाएँ परेशान दिखी वहाँ। खारदुंगला से तुरंत ही निकल पड़े हम।
क्रमश: ....8
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