आओ
अपने ही होठों से निकली
सर्द आह सुनें
सूजी आंखों पर फेर लें
हल्की ऊंगलियां
और, फिर बरस जाने दें
पलकों की चिलमन पर
अटकी बूंदों को
आओ
फिर याद करें
उन मीठे लम्हों को
वो मादक गलबहियां
वो होठों तले दबी-दबी मुस्कान
और बातों ही बातों में
गुजारी सारी रात
आओ
सहलाएं अपने-अपने दर्द
नासुर की तरह
जो चुभता रहेगा ताउम्र
दिल में प्यार
और होंठों पर नफरत भरे लफ्ज़ सजाएं
आओ
जरा गुनगुनाएं
जिसके लिए आहें भरे, उन कानों तक
अपनी लरज़ती आवाज
पहुंचने से बचाएं
आओ
एक सर्द आह भरें
और तकिए में मुंह धंसाकर
खाली आकाश से बतियाएं
सोने-जागने की रस्म निभाएं।
3 comments:
जय मां हाटेशवरी....
आप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 13/12/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है...
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
Bahut bahut dhnyawad aur aabhar aapka
वाह! प्यार भरी यादों का अहसास लिए कविता!
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