Wednesday, June 30, 2021

चवन्नी याद है आपको ?

‘खरी चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गांधी की…’ शायद किसी को याद हो अब भी यह नारा। इस नारे से चवन्नी का महत्व समझा जा सकता है, जिसके अस्तित्व को समाप्त हुए आज 30 जून को पूरे 10 वर्ष गुजर गए। कहने वाले कहेंगे कि कितना कुछ तो बदल गया है…अब न वो दुनिया रही न इंसान वही, तो इन सिक्कों की क्या बिसात? 

किसी को याद आए या नहीं, मुझे बहुत याद आती है इस चवन्नी की। क्योंकि इसके साथ बचपन की बहुत यादें जुड़ी हैं। इसी चवन्नी के बदले कभी समोसा, कभी बर्फ़ वाली आइसक्रीम तो दोना भर-भर जामुन, बेर और शरीफा ख़ूब खाया है। एक चवन्नी के बदले आराम से पचास ग्राम मूंगफली मिल जाती थी, तो मुट्ठी भर लेमनचूस भी। आशीर्वाद में मिले हों या ज़िद से... मुट्ठी में दबा पच्चीस पैसा गुल्लक में कम, परचून की दुकान में ज़्यादा जाता था।

अब तो इतनी औक़ात रुपये की भी नहीं। मगर एक समय था कि इसी चवन्‍नी से राजनीतिक पार्टी तक की सदस्यता तक मिल जाती थी। यह बच्चों के लिए आशीर्वाद था तो  पुजारी के चेहरे की रौनक़। क्योंकि दक्षिणा में सवा रुपया या सवा रुपये के प्रसाद चढ़ाने का चलन था, जो बिना चवन्‍नी के पूरा नहीं होता था। अब इसकी जगह रुपये ने ले ली है।

वक़्त के साथ बहुत कुछ बदलता चला जाता है। डालर के मुकाबले पैसे के अवमूल्‍यन ने इसकी उपयोगिता ही समाप्‍त कर दी। सहेजे जाने वाली चवन्नी धीरे-धीरे ग़ैरज़रूरी होने लगी। जब चवन्नी बंद किया गया तो उस समय रुपये के नीचे कोई सामग्री नहीं मिलती थी। अब तो यह बात पांच रुपये तक पहुंच गयी है।

हम पीछे झांके तो पता लगता है कि देश में मीट्रिक प्रणाली लागू होने के बाद 1957 के आसपास चवन्नी चलन में आयी। 1968 में 20 पैसे के सिक्के आने के बाद इसे बंद कर दिया गया। मगर चार साल बाद 1972 में इसे फिर शुरू किया गया और 1988 में स्टेनलेस स्टील के चमचमाते सिक्के बाज़ार में उतारे गए, जो जनमानस को खूब भा गए। मगर 10 साल पहले 25 पैसे को चलन से बाहर कर दिया गया, क्योंकि उनकी ढलाई में अंकित मूल्य से ज़्यादा खर्च आता था।

एक जमाने में चवनिया मुस्कान का बड़ा चलन था। दोस्त एक-दूसरे को छेड़ते हुए अक्सर कहा करते थे कि - ‘क्या बात है बड़ा चवनिया मुस्कान दे रहे हो।’ साठ के दशक में फ़िल्मी गानों में भी चवन्नी का ज़िक्र होता था। ‘खून-पसीना’ फ़िल्म में आशा भोंसले का गाया गाना ‘राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के’ ख़ूब चला था। ‘चंदन’ फ़िल्म में मुमताज़ पर फ़िल्माया गाना ‘मेरी चाँदी की चवन्नी’ भी लोगों की ज़ुबान पर ख़ूब चढ़ी थी।
उस दौर में सिनेमा देखने के लिए हॉल की सबसे आगे की सीट का टिकट 25 पैसे का हुआ करता था। अब पैदा होने वाले बच्‍चों को तो चवन्‍नी के बारे में कुछ पता नहीं होगा और न ही ‘चवन्नी छाप’ का अर्थ समझेंगे कि कभी यह कहकर लोगों की हैसियत नापी जाती थी।

चवन्नी को याद करते यह नहीं भूल रही कि आज न तो बाज़ार में अठन्नी रह गई, न ही एक रुपये के सिक्के का मोल। आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपइया - जैसे मुहावरे भी प्रचलन से बाहर होते गए। भारतीय मुद्रा के रूप में स्थापित 'आना' जब खत्म हुआ तो उसकी याद लोगों के जेहन में इतनी रची-बसी रह गई कि 25 पैसे को लोग चवन्नी कहने लगे और 50 पैसे को अठन्नी। गौर कीजिए कि जब आना का प्रचलन था तो 16 आने का मतलब आज के पैसे के हिसाब से 96 पैसे हुआ करता था। 16 आने का आधा यानी 8 आना और इसकी एक चौथाई यानी 4 आना। इसी 8 आना की तर्ज पर रुपये के आधे को हम अठन्नी कहने लगे, और 4 आने की तर्ज पर चवन्नी।

 जबकि 16 आने का मतलब 96 पैसे होता था। लेकिन हमने इस 96 पैसे को 100 पैसे में देखने की आदत डाल ली। वैसे एक सच यह भी है कि 25 पैसे को तो सरकार ने बंद किया और अठन्नी को ख़ुद बाज़ार ने। अब 1 पैसे, 2 पैसे, 3 पैसे, चवन्नी और अठन्नी के सिक्के हमें संग्रहालय में सजे दिखाई देंगे, पर क्या आपको नहीं लगता कि इन्हें याद कर हम आज भी मुस्कुरा पड़ते हैं यानी हमारे चेहरे पर इनकी याद से चवनिया मुस्कान पसर जाती है।

12 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

जी

सुशील कुमार जोशी said...
This comment has been removed by the author.
दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01-07-2021को चर्चा – 4,112 में दिया गया है।
आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क

Ravindra Singh Yadav said...

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 01 जुलाई 2021 को लिंक की जाएगी ....

http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

!

Onkar said...

बहुत सुंदर

Subodh Sinha said...

ज्ञानप्रद अतीत की बातें .. चवन्नी के बहाने आपने तब के हर छोटे-से-छोटे सिक्के को एक-न-एक बार अपने आलेख में याद किया, पर 5 पैसे 10 पैसे के ज़िक्र के बिना .. कुछ-कुछ .. कुछ रह-सा गया, ऐसा लगा .. वैसे हमने दस पैसे की एक जलेबी भी खायी है ...

Kamini Sinha said...

"चवन्नी और बचपन की यादें" सचमुच कितनी यादें जुडी है इस चवन्नी के साथ। चवन्नी का महत्व और उसके लुप्त होने की सारी दास्ता को बाखूबी समेट लिया है आपने इस लेख में। सादर नमन आपको

Sudha Devrani said...

चवन्नी अठन्नी पंजी (पाँच पैसा) दसी(दस पैसा) हम सभी के बचपन की यादों से जुड़े हैं...हम सभी भाई-बहिनों को बड़े तड़के सुबह उठने दौड़ लगाके आकर समय पर स्कूल के लिए तैयार होने के यही इनाम दिये जाते थे...। सचमें एक रुपये में ढेर सारी लेमनचूस तो बड़े होकर भी ली हैं हमने ...सही कहा अब एक रुपये में क्या है...
बहुत सारी यादें ताजा कर दी आपकी चवन्नी ने।
लाजवाब लेख।

Anuradha chauhan said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति

Anuradha chauhan said...

यादें ताजा हो गईं। बेहतरीन लेख आदरणीया।

पूरण खण्डेलवाल said...

बचपन याद दिला दिया !
सुन्दर प्रस्तुती !!

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

सुंदर आलेख। चवन्नी की हम भी पान पसंद टॉफी लिया करते थे कभी। अब तो गुजरे वक्त की बात हो गयी है। लेकिन ये तो है कि जब भी यह चलन से बाहर सिक्के दिखते हैं तो चेहरे पर एक मुस्कान आ ही जाती है।