Monday, February 22, 2021

और अब तो...

                           

देखने में यह एक साधारण सा दृश्य है। एक बैलगाड़ी, खुला मैदान जिसकी दाहिनी तरफ़ आधा बना कमरा है और ठीक उसके पास मंदिर जैसी कोई जगह।

मगर मुझे दिख रहा....

बैलगाड़ी पर सामान लदवाते पापा और पीछे दोनों पाँव झुलाते बैलों के गले की टुनटुन के साथ-साथ सिर हिलाती कुछ दूर तक जाती मैं...

पक्की सड़क पर पहुँच कर पापा ने गोद में उठाकर उतार दिया नीचे... 

          घर जाओ...शाम को चढ़ना इस पर

वह सामने मंदिर के बाहर ढाक और ढोल की लगातार ध्वनि। बेलबरण है आज....दुर्गा माँ की जिस मूर्ति को बनते हुए बंद किवाड़ की फाँक से आँख सटाकर देखते आए थे...उस मूर्ति का आज साक्षात दर्शन होगा। 

 वो अधबना कमरा, कमरा नहीं स्टेज है..जिस पर कल से रामलीला होगी और हमलोग शाम से ही अपने-अपने बोरे बिछाकर जगह मड़िया लेंगे। 

 दुर्गा पूजा और रामनवमी के तीन दिन हमारे घर वाले हमारा चेहरा देखने को तरस जाते थे।

 यह पुराना मंदिर और स्टेज तोड़कर एक विशाल मंदिर बन गया है, जहां रामलीला नहीं होती अब।बचपन के बेशक़ीमती कई साल जिस मैदान में खेल-कूदकर गुज़ारा...उस स्थान को ऊँची चारदीवारी से घेर दिया गया है, जिसे देखकर मुझे जेल सा एहसास होता है.....और मैं घबराकर उस ओर पीठ कर लेती हूँ।

बहुत पहले से ही बैलगाड़ी नहीं रही हमारे पास.., फिर खेल का मैदान, पुराना मंदिर...

और अब तो...

पापा भी नहीं रहे...

 


7 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

फ़िर भी कहीं आस पास होते हैं पापा और सुनाई देती हैं बैलों के गले की बजती घंटियां सी।

विश्वमोहन said...

बैलगाड़ी, खेल के मैदान, पुराना मंदिर, वो अधबना कमरा और पापा सब चढ़ के सज गए हैं स्मृतियों के उस स्टेज पर और अब भी चल रही है समय की साँकल के पार- जिंदगी की यह रामलीला!!!!

प्रतिभा सक्सेना said...

उदास मन में कई स्मृतियाँ उमड़ती हैं.

आलोक सिन्हा said...

बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय

Onkar said...

सुंदर प्रस्तुति।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत कुछ स्मृतियों में ही सहेजा होता है ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत कुछ स्मृतियों में ही सहेजा होता है ।