Tuesday, August 18, 2020

सूना है माँ का चेहरा ....


घाट उठाने 
सभी रिश्तेदार और करीबी
जमा थे तालाब किनारे

पिंडदान 
फिर मुंडन कार्य में 
सब व्यस्त से हो गए 

वहीं थोड़ी दूर
एक पत्थर पर बैठी माँ
धीमे-धीमे सुबक रही थी

तालाब के पीछे पहाड़
और आसमान में घिरा बादल
हमेशा की तरह सुंदर था

मगर हमारी आँखें
कान की जगह ले चुकी थी
जिसने नाइन को कहते सुना 

उतराय दे अब 
बिछुआ, चूड़ी और बिंदी
कि सुहाग छुड़ाना है 

माँ की रुलाई, रुदन में बदल गई
सब बिलख पड़े
कैसा असहनीय दुःख है यह

डुबकी लगाकर
बाहर आती औरत 
कहीं से भी मेरी माँ नहीं लगी

घर लौटकर 
सब कुछ पहना दिया वापस
मगर बिना सिंदूर के 
कितना सूना लगने लगा है माँ का चेहरा ....।

( तस्‍वीर गूगल से )

4 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

ये जीवन चक्र है ।

Onkar said...

मार्मिक रचना

प्रतिभा सक्सेना said...

स्त्री के ऊपर ही क्यों लाद दिया जाता है सब-कुछ-सारी वर्जनाएं और वंचनाएँ!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मार्मिक रचना।