Friday, August 7, 2020

पिता.....


कल ही तो पूछा था
पानी पिलाते हुए
कैसा लग रहा आज ?

हमेशा की तरह
मुस्कुराकर
फुसफुसाती सी
आवाज़ में बोले
अच्छा ....!

आँखें मूँदे देख
बदहवासी में थामा हाथ
जो ठीक
कल की तरह ही गर्म था
झिंझोड़ दिया
इतना क्यों सोते हैं आप
उठिए, कि सब रोते हैं ...!

हवा से हिलते थे कपड़े
बार-बार हाथ लगाती सीने पर
कोई स्पंदन, कोई धड़कन
हाथों में थामा हाथ
धीरे-धीरे बर्फ़ की तरह
ठंडा होता गया ..

इन दिनों ऐसे ही सोते थे वो
लगातार,
माँ कहती दवाओं के असर से
उनींदे रहने लगे हैं
तुम्हारी आवाज़ सुन उठेंगे
ज़रा ज़ोर से आवाज़ दो ...

कितने ज़ोर से
लगा रही हूँ आवाज़
पापा...पापा !
रोती जाती हूँ बेतहाशा
पापा ....आज आप उठते क्यों नहीं?

9 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (09-08-2020) को     "भाँति-भाँति के रंग"  (चर्चा अंक-3788)     पर भी होगी। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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  2. कितने ज़ोर से
    लगा रही हूँ आवाज़
    पापा...पापा !
    रोती जाती हूँ बेतहाशा
    पापा ....आज आप उठते क्यों नहीं?

    एक दिन पापा ऐसे ही सो जाते है कितना भी आवाज़ दो जागते ही नहीं,हृदयस्पर्शी सृजन रश्मि जी

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  3. पिता की जगह कोई नहीं ले सकता है। यादें रह जाती हैं। धैर्य रखें।

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  4. बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन ।सही है ,पिता की जगह कोई नहीं ले सकता ।

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  5. भाव विभोर करती अति सुन्दर रचना !

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  6. मर्म स्पर्शी रचना।

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