आँगन में सबके लिए
कुर्सी लगाते समय
एक कुर्सी बग़ल में खींचकर कहा
यहाँ पापा बैठेंगे...
सब हतप्रभ होकर देखने लगे मुँह
ओह...!
अब पापा कहाँ बैठेंगे
हमारे बीच...
अब नहीं कहेंगे कभी
एक कप कड़क चाय बना दो
सोने जाने से पहले
मेरी मच्छरदानी लगा दो ..
ख़ाली बिस्तर
देखकर लगता है
शाम को लौटकर
रोज़ की तरह देंगे आवाज़
एक गिलास पानी तो लाओ!
यहीं तो है
उनकी टोपी, उनका लोटा
चश्मा-घड़ी, हैंगर में टंगे शर्ट
और हिसाब वाला
बरसों पुराना टीन का संदूक भी....
हर जगह बाक़ी है
उनकी ऊँगलियों का स्पर्श
छत, सीढ़ियाँ और कमरे से
आती है आवाज़...
उनकी गंध फैली है समूचे घर में
वो कहीं नहीं गए
पापा यहीं हैं, हमारे पास ।
पापा कहीं नहीं जाते
ReplyDeleteआस पास में ही रहते हैं
देखते रहते हैं बच्चों को
जैसे माली देखता है
अपने बगीचे के फूलों को।
भावुक करती रचना.
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (10 अगस्त 2020) को 'रेत की आँधी' (चर्चा अंक 3789) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteहर जगह बाक़ी है
ReplyDeleteउनकी ऊँगलियों का स्पर्श
सुन्दर
बेहद हृदयस्पर्शी रचना
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी सृजन .
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी
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