उम्र कुछ भी हो...आंखों में कुछ सपने सदा वैसे ही रहते हैं, जैसे बचपन में देखा हुआ आकाश का चांद या नदी में लगाई छलांग...या कुछ आदतें, जो परिस्थितयों की नहीं, जी गई जिंदगी की सौगात होती है।
उन्न्हतर वर्ष की उम्र में भी 'किटी मेमसाहब' की आंखों में चमक कौंध जाती है लैंप से लपकी रोशनी की तरह, जैसे वह अभी दौड़ पड़ेगी हाथों में हरिकेन लैंप उठाए... सांझ को रांची से लौटी बस से उतरते अपने परिजनों को रास्ता दिखाने, मैकलुस्कीगंज की गलियों में।
यादों के समंदर में गोते लगाते कहती हैं किटी - ''पहले बिजली नहीं थी। न गाड़ी न कोई और सुविधा। पहले एक बस चलती थी। पहले डेढ़ रुपया भाड़ा था जो बढ़कर पांच रुपए हुआ। तब हरिकेन लैंप लेकर जाते थे, रास्ता दिखाने के लिए। अब तो रांची जाना हो तो गाड़ी बुक करनी पड़ती है। यह आफत है हमारे लिए। पहले सब कुछ कितना अच्छा लगता था।''
किटी मेमसाहब यानी 'किटी टेक्सरा' मैकलुस्कीगंज की पहचान हैं। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली किटी फल बेचती थी रेलवे स्टेशन के बाहर। जो कोई भी आता है मैक्लुस्कीगंज, वह किटी मेमसाहब को जरूर ढूंढता है, चाहे वो पर्यटक हो या पत्रकार, लेखक हो या फिल्म निर्माता। सब उसकी आखों से मैकलुस्कीगंज का अतीत देखना चाहते हैं और अक्सर उनकी कामना पूरी होती है...हमारी तरह।
जनवरी के सर्द दिनों का एक रविवार चुना और दो गाड़ियों में हम आठ लोग निकल गए एकदम सुबह मैकलुस्कीगंज के लिए। रास्ते में सरसों के खेत और मटर की फलियों का सौंदर्य देखते हुए रांची से 65 किलोमीटर की दूरी तय कर ली तकरीबन दो घंटे में। बहुत पहले गई थी तो रास्ता बेहद खराब था। अब पहले से बेहतर है और एक आनंददायक यात्रा का लुत्फ उठाया जा सकता है।
मैकलुस्कीगंज नाम ही ऐसा है जो सबको बेहद आकर्षित करता है। लगता ही नहीं कि यह झारखंड के किसी हिस्से का नाम है। इसे ' मिनी लंदन' भी कहा जाता है। आदिवासी प्रदेश का एक गांव जहां विदेशी बसे हैं , जिनकी बोलचाल और संस्कृति देसी भी है और विदेशी भी। वे लोग दशहरे मेंं मेला भी घूमते हैं और चर्च जाने के साथ-साथ क्लब में भी होते हैं। दरअसल इस जगह का नाम था लपरा, जिसे मैकलुस्की टिमोथी ने बसाया था। इसके पीछे भी एक कहानी है।
जब अंग्रेज भारत आए तो अपने राजपाट के प्रसार के लिए पटरियां बिछाकर रेल चलाई, पोस्ट आफिस बनाया। यहां काम करने के लिए अंग्रेज हिंदुस्तान बुलाए गये क्योंकि जब तक भारतीय यह काम नहीं सीख जाते, उन्हें अंग्रेजों की जरूरत पड़ती ही थी। मैकलुस्की के पिता आयरिश थे और रेलवे में नौकरी करते थे। जब वो बनारस पोस्टेड थे तो एक ब्राह्मण लड़की से प्यार कर बैठे और तमाम विरोध के बाद भी उन दोनों ने शादी कर ली।
पिता विदेशी, मां देसी और उनसे उत्पन्न बच्चे दोनों संस्कृतियों को देखते और कहीं स्वीकार्य कहीं अस्वीकार्य होते, महसूस करते बड़े हुए। ऐसे में मैकलुस्की भी अपने समाज की छटपटाहट बचपन से देखते आए थे। अपने समुदाय के लिए कुछ करने की भावना शुरू से उनके मन में थी। ऐसे में जब 1930 के दशक में साइमन कमीशन की रिपोर्ट में एंग्लो-इंडियन समुदाय के प्रति अंग्रेज सरकार ने किसी भी तरह की जिम्मेदारी नहीं ली, तो उनके सामने अपने अस्तित्व का ही संकट खड़ा हो गया। तब मैकलुस्की ने तय किया कि एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए भारत में ही एक गांव बसाएंगे।
प्रॉपटी डीलिंग व्यवसाय से जुड़े टिमोथी जब बिहार के रांची-पलामू के बीच, खलारी से नजदीक इस जगह पर पहुंचे तो यहां की आबोहवा और जामुन, करंज, सेमल, महुआ, आम के पेड़ देखकर इतने मोहित हुए कि एंग्लो-इंडियन परिवार यहीं बसाने का निर्णय कर लिए। अभी भी यहां के आम की बहुत
प्रशंसा होती है।
''कॉलोनाइजेशनसोसाइटी ऑफ इंडिया लिमिटेड'' नाम की एक संस्था का गठन किया और इसी संस्था के नाम पर रातू महाराज से यहां की दस हजार एकड़ जमीन खरीदी। पूरे भारत से दो लाख एंग्लो इंडियन को प्रकृति के इस स्वर्ग में बसने का आमंत्रण दिया। 1932 तक लगभग 400 एंग्लो इंडियन परिवारों ने मैक्लुस्कीगंज में बसना तय कर लिया।
रांची-लातेहार रेलखंड पर सुंदर बंगले बने। सामुहिक खेती की शुरूआत की गई। फलों के बगीचे बने और अलग-अलग हिस्सों से एंग्लो-इंडियन यहां आकर बसने लगे। 1935 में मैक्लुस्की के निधन के बाद लपरा गांव का नाम बदलकर रखा गया - मैकलुस्कीगंज।
इसी मैकलुस्कीगंज के सरकारी गेस्टहाउस में हमने सुबह की चाय पी और निकल पड़े उन पुर्तगीज शैली के बंगलों की तलाश में, जो अपनी विशिष्टता के कारण अब भी आकर्षण के केंद्र-बिंदु है। हालांकि झारखंड के लंदन के नाम से ख्यात मैकलुस्कीगंज में जहां कभी 400 गोरे परिवार रहते थे, अब बमुश्किल दस-बारह परिवार ही बचे हैं यहां।
एंग्लो-इंडियन के अलावा बाद में सेना के अवकाश प्राप्त अधिकारी और कलकत्ता के लोगों ने भी मैकलुस्कीगंज में बंगला खरीदा। यहां अभी भी लोग अभिनेत्री अपर्णा सेन का बंगला देखने जाते हैंं। बांग्ला उपन्यासकार बुद्धदेव गुहा ने भी बंगला खरीदा था और मैकलुस्कीगंज पर लिखे उपन्यास के कारण भी मैकलुस्कीगंज कोलकातावासियों में लोकप्रिय हुआ। कथाकार विकास झा ने भी ‘मैकलुस्कीगंज’ उपन्यास लिखा, जिस
पर उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ है। अपर्णा सेन ने फिल्म 36 चौरंगी लेन की पटकथा मैकलुस्कीगंज से प्रेरित होकर ही लिखी थी और अभी कोंकणा सेन शर्मा ने फिल्म बनाई है 'डेथ इन द गंज।'
चाय-नाश्ते के बाद हम सीधे गए रेलवे स्टेशन, जहां किटी मेम साहब फल बेचा करती थी।एक तरह से रेलवे स्टेशन मैकलुस्कीगंज की पहचान भी है। कुछ वहीं के साथी आ गए हमारे पास ताकि हम कम समय से ठीक से देख लें पूरा कस्बा। हां, अब यह गांव कस्बे में परिवर्तित हो गया है क्योंकि जगह-जगह दुकानें खुल गई हैं...आवागमन बढ़ गया है। यहां पहुंचकर मालूम हुआ कि एक किलोमीटर की दूरी पर ही किटी मेमसाहब का घर है, तो हमलोग पहले उनसे ही मिलने चल पड़े।
किटी अपने घर के बाहर ही मिल गई। बेर, आम, और कई तरह के वृक्षों से घिरा है उनका घर। देखते ही पूछती हैं- ''आपलोग कहां से आए हैं ?'' .वार्तालाप की शुरूआत अंग्रेजी में ही होती है। बाद वो हिंदी में उतर आईं, जब वो कुर्सी लाने लगी और हम सभी उनके दरवाजे सीढ़ियाेंं पर ही बैठ गए घेरकर। किटी के साथ उसकी नतिनी 'पिहू' भी थी, जो अपनी नानी से चिपकी हुई थी।
हमारे सवालों का बहुत संयत तरीके से जवाब दे रही थी किटी , जबकि कई लोगों का कहना था कि वह इधर बात करने से कतराती हैं। इस उम्र में भी बहुत आकर्षक है वो। पैदा यहीं हुई पर विदेशी छाप स्पष्ट है चेहरे पर। एक फिरंगी को देहाती लहजे में बात करते देखकर हमें भी अच्छा लग रहा था। गोद में अपनी नातिन को लिए हमारे सवालों से बचपन में चली जाती हैं किटी......उनके चेहरे पर छाई स्निगधता ने महसूस करा दिया कि पुराने पन्नों का उलटना सुखद लग रहा है उन्हें भी।
बचपन याद करते हुए कहती हैं....रेलवे स्टेशन और मेरे घर के आसपास बाघ घूमते थे उन दिनों। एक बार लकड़बग्घा बकरी को पकड़ ले गया था। बहुत मुश्किल से बचाकर लाए थे।
'' डर नहीं लगता था बाघ से?''
'' न..कैसा डर ? हमलाेग सब साथ ही रहते थे। तब यहां इतना आदमी कहां होता था ?''
'' किस क्लास तक पढ़ी हैं?''
'' स्कूल गई ही नहीं...पचास के दशक में यहां स्कूल था भी नहीं। हां, अमरूद, आम, शरीफा के बगान थे।''
'' नाना आए थे बाहर से..कहां, ये पता नहीं। नाना की पेंशन राशि बहुत थोड़ी थी। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। इसलिए बचपन गाय-बैल चराते बीता और थोड़े बड़े होने पर फल बेचते थे। बीमारी में भी जानवरों का ही सहारा था। गाय बैल बेच के इलाज करते थे।''
खेती-बाड़ी के अलावा जीविका को कोई साधन नहीं था तब। बीच में नक्सलियों का आधिपत्य सा हो गया था यहां। रांची से भी लोग नहीं आते थे घूमने।
'' तब का माहौल कैसा था ?'' इसके जवाब में कहती हैं किटी - ''नक्सली आते थे मीटिंग करने हमारे घर के आसपास। उनसे परेशानी नहीं हुई कभी। वो लोग पानी भर कर पीते थे हमारे कुंओं से। बच्चों को बिस्किट भी देते थे। मगर अब ज्याद परेशानी है। बेटा छोटा-मोटा काम कर लेता है बिजली का। बेटी पढ़ा लेती है स्कूल में मगर उससे आमदनी नहीं होती उतनी।''
बात करते-करते किटी ने अपनी बकरी को आवाज लगाई - पिटकी..डर्र..र्र..र्र..
बकरियां पास की बारी में हरे पौधे चरने जा रही थी। किटी की आवाज सुनकर उसकी ओर लौटती है बकरी। मानव और जानवर के बीच की यह बातचीत लुभाती है मुझे। आसपास कोई और घर नहीं। बताती है किटी कि चार ऐग्लो-इंडियंस के घर थे यहां आसपास। एक परिवार में तो कोई जिंदा नहीं बचा। बाकी छोड़ के चले गए। वीरान बंगले के खिड़की-दरवाजे उखाड़ ले गए चोर। अब उनके पोते ढूंढने आते हैं। कहां से मिलेगी जमीन? कहां बचा है बंगला ? सब भूमिदान में चला गया।
सरकार के प्रति आक्रोश भी है किटी के मन में। आवागमन की सुविधा नहीं। सरकार के दिए गैस चूूल्हे का नॉब ही खराब है। बच्चे भी कोई खास काम नहीं करते। किसी तरह जीवन-यापन हो रहा है। हां, राशन के चावल से पेट भर जाता है।
हमारे आग्रह पर अपना घर दिखाती हैं , मगर पुराने अलबम निकालने से एकदम मना करती है। छोटा सा ही, पर विक्टोरियन अंदाज का आकर्षक घर है। अंदर की दीवारों में पुराने चित्र लगे हैं। घर तो 1933 का बना हुआ है जिसे उसके नाना जी ने 1947 में खरीदा था। गर्व से बताती है कि मेरे नानाजी असम के गर्वनर के सेक्रेटरी थे। किटी की मां की तस्वीर है जिसमें वह हाथों में रायफल लिए बैठी हैं। बहुत खूबसूरत महिला, नाम है 'एम.जे. टेक्सरा'। किटी की शादी लोकल ट्राइबल रमेश मुंडा से हुई थी। वह अपनी मां को छोड़कर नहीं जा सकती थी, इसलिए एंग्लो इंडियन फैमिली में अपना तय रिश्ता भी छोड़ दिया। दीवार पर उड़ती रंगत वाली तस्वीर में अपना बचपन दिखाती है किटी।
हम किटी से विदा लेकर बंगले की तलाश में चल देते हैं। वह अपने दरवाजे पर पिहू को लिए वहीं रूकी रहती है। दर्शनीय स्थल के नाम पर अब डेगाडेगी नदी की ओर चलें हम। गाड़ियों का लंबा काफिला देखकर अनुमान हुआ कि बहुत खूबसूरत जगह होगी। मगर नदी के नाम पर पानी की पतली धार थी और आसपास पिकनिक मनाने वालों की जबरर्दस्त भीड़। हम नीचे नदी तक न जाकर ऊपर से ही देखे सब और निकल पड़े बंगले की ओर।
कई बंगले मिले रास्ते में जो अपने खस्ताहाल पर रो रहे थे। मन हो रहा था अंदर जाकर देखूं..मगर ऐसा कुछ भी नहीं लगा जो आंखों को तृप्ति दे। बल्कि एक हूक ही उठी कि काश इन ढहते अतीत को रोक पाती।
मैकलुस्कीगंज अपने अस्तित्व में आने के बीस-पच्चीस सालों के बाद ही वीरान होने लगी। गांव तो बस गया था, मगर जीवन-यापन की कोई ऐसी योजना नहीं थी, जो यहां बांधे रखती उन्हें। देश की आजादी के बाद नई पीढ़ी पलायन करने लगी। पहले पढ़ाई के लिए, फिर रोजगार के लिए। सुंदर-सुंदर विक्टोरियन बंगले वीरान होने लगे। एक समय ऐसा आया कि मैकलुस्कीगंज बुजुर्ग एंग्लो-इंडियनस की बस्ती बन कर रह गया।
अब दीपक राणा के गेस्टहाउस की ओर बढ़े। रास्ते में बहुत हरियाली। बीच-बीच में लाल पत्तों वाला पेड़ घने अरण्य के बीच नजर आया। हम कयास न लगा सके तो पास गए देखने कि कौन सा पेड़ है जिसके पत्ते इतने टहक लाल हैं। पता चला अमरूद के पेड़ हैंं।
कुछ देर में राणा गेस्टहाउस पहुंचे। सभी बंगले अब गेस्टहाउस में तब्दील हो गए हैं। किटी ने भी कहा था कि राणा गेस्टहाउस देखने योग्य है। हमने राणा परिवार की इजाजत लेकर उनका पूरा घर घूमा। ठाठ-बाट बरकरार रखा है उन्होंने। पुरानी यादों को करीने से सहेजकर संजोया है। काफी लोग ठहरे हुए थे उस गेस्ट-हाउस में। ज्यादातर बंगाली दिखे हमें। हम खाना लौटकर खाएंगे, कहकर घूमने निकले।
दामोदर नदी में पानी खूब था और तट का विस्तार भी काफी चौड़ा था। वहां अगले दिन मेला लगने वाला था। हर वर्ष संक्रांति के अवसर पर मेले का आयोजन होता है। जागृति विहार भी देखने योग्य है। वहां से हम लौटे बंगले देखने की आस में। किसी बंगले में किसी संस्था का कार्यालय है तो कोई गेस्ट हाउस। मगर वास्तव में मैकलुस्कीगंज का अतीत जानना हो तो बोनेर भवन देखना चाहिए जहां की दीवारों पर टंगी पुरानी तस्वीरेंं एंग्लो-इंडियन कॉलोनी के अतीत का परिचय कराती है। वहां अब एक आदिवासी परिवार का निवास है।
एक खूबसूरत गेस्ट हाउस बॉबी गार्डन में हम पहुंचे जहां फूलों ने मन मोह लिया। पता चला अक्टूबर से मार्च के बीच काफी पर्यटक आते हैं यहां। कैम्पस में दूसरी तरफ बच्चों का हाॅस्टल है।
जब सभी लोग यहां छोड़कर जाने लगे तो एक समय सन्नाटा छा गया था। लगता था मैकलुस्कीगंज का अस्तित्व मिटने को है। एक तरफ नक्सलियों के कारण पर्यटक नहीं आते तो दूसरी ओर बेरोजगारी की मार। इस बीच आशा की किरण तब फूटी, जब जब वर्ष 1997 में बिहार के मनोनीत एंग्लो इंडियन विधायक अल्फ्रेड डी रोजारियो ने डॉन बॉस्को एकेडमी की एक शाखा मैक्लुस्कीगंज में खोल दी। इस स्कूल झारखंड और बाहर के एक हजार से अधिक बच्चे हैं। एंग्लो इंडियन परिवारों ने अपने बंगलों को पेइंग गेस्ट के रूप में बच्चों का हॉस्टल बना दिया। यह उनकी आमदनी का जरिया बना और मैक्लुस्कीगंज को अलविदा कहने से रोक लिया। आज मैक्लुस्कीगंज एक एजुकेशनल हब के साथ पर्यटक स्थल के रूप में अपनी पहचान बना रहा है। डॉन बास्को हाईस्कूल की तुलना नेतरहाट के समकक्ष होती रही है। इस महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्र की उपस्थिति के कारण यहां 28 निजी हॉस्टल भी खड़े हो गए हैं।
वहां से निकलकर हम पहुंचे हाइलैंड गेस्ट हाउस। साठ के दशक में डी आर कैमरोन मैकलुस्कीगंज आए और यहीं के हो कर रह गए। उन्होंने हाइलैंड गेस्ट हाउस खरीद लिया और यहीं बस गए। शिक्षक थे कैमरून। उन्होंने देश-विदेश के कई स्कूलों में पढ़ाया है। उनके यहां बसने के फैसले से नाराज उनकी पत्नी एंजेला अपने तीन बेटे और एक बेटी के साथ आस्ट्रेलिया लौट गई।
कैमरून और मैकलुस्कीगंज एक समय एक-दूसरे के पर्याय से थे। हर कोई मिलता था वहां जाकर। हाइलैंड गेस्ट हाउस एंग्लो-इंडियन समुदाय का क्लब था। दिसंबर माह की शुरुआत होते ही इस क्लब में क्रिसमस गैंदरिंग शुरू हो जाती थी। इस गैदरिंग में डांस से लेकर मनोरंजन के अन्य कार्यक्रम होते थे। पूरा दिसंबर माह मैक्लुस्कीगंज क्रिसमस के रंग में डूब जाता था। इस क्रिसमस उत्सव को देखने के लिए काफी संख्या में पर्यटक मैक्लुस्कीगंज आते थे।
बाद में उनके बुरे दिनों में एक पूंजीपति ने उनके गेस्ट हाउस और बंगले का सौदा कर लिया। उस वक्त यह तय हुआ था कि जब तक कैमरून जिंदा रहेंगे, उन्हें गेस्ट हाउस का एक कमरा रहने के लिए नि:शुल्क दिया जाएगा। कुछ दिनों तक तो यह चलता रहा फिर उन्हें एक बाथरूम में शिफ्ट कर दिया गया। काफी बीमार रहने लगे वो। जब उनके परिवार वालों को यह बात मालूम हुई तो 2009 में उन्होंने कैमरून को वापस बुला लिया।
मगर उनकी जान तो मैकलुस्कीगंज में बसती थी। वो अगले ही वर्ष लौट आए मैकलुस्कीगंज। मगर इस बार उन्हें न रहने की जगह मिली और न ही खाने की सुविधा। पता चला कि बाद के दिनों में उनकी मानसिक स्थिति खराब हो गई थी और उन्हेें कलकत्ता के एक वृद्धाश्रम में भर्ती कराया गया। अंतत: वो मैकलुस्कीगंज की मिट्टी में दफन होने की अधूरी इच्छा लिए 2013 में चले गए। इस उजाड़ गेस्ट-हाउस के समाने कैमरून को याद करते आंखें भीग आई हमारी।
ठीक इसके सामने ही है मदर टेरेसा हाॅस्टल और मैदान के एक किनारे है मैकलुस्कीगंज स्थापना का गवाह शिला पट्ट जो झाड़-झंखाड से घिरा 3 नवंबर 1934 की अब भी मौजूद है।
शाम ढलने वाली थी और हमें भूख भी लग आई थी। हम वापस राणा गेस्टहाउस की ओर चल पड़े, जहां दीपक राणा और उनकी पत्नी ने बहुत प्यार से हमें खाना खिलाया और वापस रांची की तरफ क्योंकि हमें सबसे अंत में लौटते हुए देखना था भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को जो रांची-मैक्लुस्कीगंज रोड पर दुल्ली में स्थित है। यहां एक ही परिसर में मंदिर, मजार, चर्च का क्रूज और गुरुद्वारा है। चारों धर्मों के लोग बड़ी संख्या मेें यहां आकर अपनी मन्नते मांगते हैं और सिर झुकाते हैं।
पूरे रास्ते किटी मेमसाहब की सपनीली आंखें और डी कैमरून के दुखद अंत के साथ-साथ यह महसूस करती लौटी कि कुछ दशक पहले वीरान हुआ मैकलुस्कीगंज अपनी आबोहवा और अनूठेपन के साथ फिर जिंदा हो रहा है। धड़क रही है वहां मैकलुस्की की आत्मा अब भी जो हम जैसों को खींच ही लाता है। अगर बाकी उजड़े बंगले फिर से संवर जाए तो पर्यटकों का तांता लग जाएगा यहां।
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