Friday, February 1, 2019

मैं मुक्त हूँ, तुम मुक्त हो ..


मैं मुक्त हूँ, तुम मुक्त हो ..
निकल आओ
इस जन्म-मृत्यु के चक्र से
लगा लो डुबकी प्रयाग में 
कर लो संगम स्नान
ले जाओ मेरी यादें
हड्डियों की तरह, राख की तरह
कर दो प्रवाहित
हरिद्वार में
जोड़कर हाथ, कहना
हम दोनों मुक्त हुए
ये अंतिम प्रणाम है...अंतिम प्रणाम है
कहो न प्रिय !
तुम सच लेकर मर गये
हम झूठ जीकर तर गये
मोह के बंध खुल गये
मैं मुक्त हूँ,तुम मुक्त हो ..
इस होलिका से पूर्व
काट जाना साल-सवंत
रिश्ते का यह अबूझ चक्र
तुम्हारे दिल में
अब मैं नहीं रहती
मेरे दिल में अब कोई नहीं रहता
धू-धू कर जलती हूँ
यादों की राख उड़ती है
करो शिव स्नान
मेरी राख से
मैं चिता हूँ मणिकर्णिका घाट की
मैं मुक्त हूँ, तुम मुक्त हो ...

4 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर

Kamini Sinha said...

बहुत खूब.... सुंदर रचना

रवीन्द्र भारद्वाज said...

बहुत खूब...... आदरणीया।

Onkar said...

बहुत सुन्दर