आज फिर पूर्णिमा है....जाने इन दिनों चांद का मुझसे कैसा नाता हो गया है...मैं समुद्र तो नहीं....मगर चांद रातों में ज्वार उठता है मेरे अंदर...सब उथल-पुथल।
पौष पूर्णिमा को सूर्य और चंद्रमा के संगम का दिन माना जाता है न...मगर मन का संगम न हो तो कुछ भी नहीं....। कल से महीना बदल जाएगा और साथ ही जीवन भी। मैंने अपने हाथों सब किवाड़ बंद कर दिए। अब न कोई आएगा....और न ही जाएगा। कोई झरोखा खुला रहे तो किसी को देखने...किसी को जानने की ललक बाकी रहती है।
जो जा चुका..उसे वापस लाना संभव नहीं....लाना भी नहीं चाहती। मेरे आसपास अब खूब बातें ही बातेंं होगी..यादेंं ही यादें। तुम न रहो...यादों की जागीर है मेरे पास।
मेरा कल्पवास शुरू होगा अब...संगम के तट पर नहीं...जहां हूं..वहीं से संकल्प लिया है कल्पवास का.....धैर्य, अहिंसा और भक्ति...यही है न मूलमंत्र। धैर्य....तुम्हारे बिना जीने का....अहिंसा....तुम्हारी किसी भी बात पर कोई नाराजगी नहीं...और भक्ति.....
ईश चरणों में सौंप दिया है खुद को....अगले जन्म की चाह तो नहीं बाकी अब...पर हां..मोक्ष जरूर पाना है....चांद...मत ज्वार उठाओ......नदी में अपनी छाया देखो...
तुम मुक्त हो....मैं भी अब मुक्त हूं...माया का त्रास नहीं....जितेन्द्रिय बनना है अब....
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 122वीं जयंती - नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteयही प्रतिक्रिया होती है ,सबसे विरक्त हो जाता है मन - अपने एकान्त csx कल्पवासी !
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