आज मदर्स डे है। मातृ दिवस अर्थात मां के लिए निर्धारित दिन। अब हम सब के लिए यह खास दिन बन गया है क्योंकि हर किसी को अपनी मां से विशेष लगाव और प्यार होता है। कुछ पंक्ितयां है....
''कभी पीठ से बंध, तो कभी लगकर सीने से
मुझे फूलों की खुशबू आती है मां के पसीने से
जब होता है सर पे मेरे, मां के आंचल का साया
चलती हैं सावन की पुरवाइयां जेठ के महीने में''
यह पंक्तियां किसी भी बच्चे के दिल की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए बहुत है। मां का स्थान इसलिए सर्वोपरि माना गया है क्योंकि मां से ज्यादा कोई करीब नहीं होता किसी इंसान के। वह अपने बच्चे के रग-रग से वाकिफ होती हैं। उसके सुख-दुख की साथी, उसके ऊंच-नीच की साक्षी। मगर इन दिनों जब हम एक मां के बारे में सोचते हैं, खासकर एक बेटी की मां की मनोदशा तो महसूस करते हैं कि मां की भूमिका निभाना कितना कठिन होता है।
पिछले दिनों मेरी सहेली से मुलाकात हुई बहुत अरसे बाद। वह एक प्यारी सी बेटी की मां है जो, अब 13 वर्ष की होने जा रही है। मुझे लगता है वह खुशकिस्मत है कि उसे भगवान ने बहुत प्यारी और खूबसूरत बच्ची की मां बनाया है।
मैंने उससे न मिलने की शिकायत की तो उसका दर्द उभर आया। कहने लगी- तुम्हें पता नहीं इन दिनों क्या हालत हो गई है मेरी। हर वक्त चिंता से घिरी रहती हूं कि कैसे, क्या करूं। बेटी के 18 वर्ष पूरे होने के इंतजार में हूं। तुरंत उसकी शादी कर दूंगी। मैंने हैरत से पूछा- आज के जमाने में तुम ऐसी बात करती हो। बिटिया को पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा करो। शादी की सोचने का कोई अर्थ ही नहीं।
उसने जवाब दिया- यह दर्द एक बेटी की मां ही समझ सकती है कि आज के दौर में बेटी को पालकर सुरक्षित बड़ा करना कितना कठिन हो गया है। रोज बलात्कार और हत्या की खबरें पढ़कर मेरा रोम-रोम इस भय से कांपता रहता है कि कहीं कोई दुर्घटना अपनी बेटी के साथ घटित न हो जाए। उसेे स्कूल बस तक छोड़ना-लाना, उसे टयूशन के लिए साथ लेकर जाना और बाहर बैठकर इंतजार करना। खेलने के लिए पार्क में ले तो जाती हूं, मगर कुछ दूर में बैठकर निरंतर उस पर नजर रखती हूं। घर के आसपास आने जाने वाले सभी पर चाहे वो मर्द हो या लड़का, मेरी संदेह भरी नजर टिकी रहती है। सच है, मैं किसी पर विश्वास नहीं कर सकती। मैं एक जासूस जैसा महसूस करती हूं खुद को। बेटी को छोड़कर कहीं बाहर निकलना संभव नहीं। मेरी दुनिया उसके आसपास सिमट कर रह गई है। जानती हूं, इस कदर पहरेदारी उसके मानसिक विकास के लिए उचित नहीं। आजकल वो मेरे साथ चलने पर प्रतिरोध करती है। कहती है- मैं बड़ी हो गई हूं। मैं कैसे बताऊं उस बच्ची को कि जो हालत है देश में इन दिनों, वह कितनी असुरक्षित है।
मैंं समझ गई कि वाकई वो बहुत परेशान है अपनी बेटी की सुरक्षा को लेकर। उसका भय मायने रखता है क्योंकि आज हम उस दौर से गुजर रहे हैं जहां दो वर्ष की बच्ची और 90 वर्ष की औरत मेे कोई अंतर नहीं रहा। बस एक मादा जिस्म हैै जिसेे इंसान रूपी भेड़िया कभी भी झिंझोड़ सकता है। गांव की बात हो या शहर की, देश के
किसी राज्य की बात हो या जिले की, कहीं भी सुरक्षित नहीं लगती औरत। जितना भय उसे बाहर वालों से है उतना ही अपने परिचित और रिश्तेदारों से भी है।
गौरतलब है कि यह वही देश है जहां मातृ पूजा की परंपरा है। नारी को शक्ति मानकर पूजा जाता है। मगर अब नारी न मां है न बहन है न बेटी है। रह गयी है तो बस भोग्या, एक मादा जिस्म। निरतंर सामूहिक बलात्कार की शिकार हो रही बच्चियों का जीवन अंधकारमय है। ऐसी बच्चियां जिन्हें अपने शरीर का भी ज्ञान नहीं, उनके साथ अत्याचार हो रहा। चाहे जम्मू-कश्मीर का कठुआ कांड हो, चाहे झारखंड की आदिवासी बच्ची और उन्नाव गैंग रेप की बात हो, इनके साथ अनाचार होना आम बात हो गई है। हमारे देश में नारा 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' खूब चलता है। हम लिंग अनुपात में अब तक बराबर नहीं हो पाए हैं। कन्या भ्रूण हत्या न हो, इसलिए लिए सरकार तमाम कोशिश कर रही है। मगर क्या है कि जब हम कन्या को जन्म तो दे रहे हैं, मगर उसकी सुरक्षा को लेकर इतने भयभीत है कि एक पढ़ी-लिखी महिला भी बजाय अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाने के उसकी जल्द से जल्द शादी कर देना चाहती है। उसे एक सुरक्षित हाथों में सौंपना ही प्रथम कर्तव्य हो जैसे। यह आगे बढ़ने के बजाय पीछे जाना है।
इस हाल में कैसे कोई मातृ दिवस मना सकता है। अपनी मां को ही मां मानकर इज्जत देना काफी नही हैं। हर मां को अपनी मां समान माना जाए और छोटी-छोटी बच्चियों को अपनी बेटी मानने न लगे लोग, कोई भी मां अपनी बेटी की सुरक्षा को लेकर इतनी आशंकित न रहे, तभी सही अर्थ में मातृ दिवस मनाया जा सकता है।
6 comments:
मदर्स डे की हार्दिक शुभकामनाओं सहित , आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २०५० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
" जिसको नहीं देखा हमने कभी - 2050वीं ब्लॉग-बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
कटु सत्य है यह, दुःख की बात यह है कि पच्चीस तीस वर्ष पहले हमारे समय से लेकर आज तक स्थिति ज्यादा नहीं बदली। बेटी की सुरक्षा को लेकर माँ तब भी चिंतित रहती थी, अब भी वही हाल है।
विचारणीय प्रश्न
ये चिंता तो चिता है हमारे समाज की।
प्रबल कानून और पुरजोर से उसे लागू करनेके बाद ही स्थिति पर काबू पाया जा सकता है
ज्वलंत समस्या प्रश्न वाचक चिंह के साथ।
समय परक अभिव्यक्ति।
ज्वलंत समस्या प्रश्न वाचक चिंह के साथ।
समय परक अभिव्यक्ति
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