इन दिनों ज़बरदस्त इच्छा हो रही है ख़ुद के साथ रहने की । ठंड इतनी ज़्यादा है कि धूप अपने पास बुलाती लगती है। एक वक़्त था जब सर्दियों की दोपहर माँ और आस-पास की चाची, बुआ सब एक साथ छत या आँगन में एकसाथ बैठतीं। सिलाई-बुनाई या फिर गपशप। मैं सोचती और कहती भी कई बार....ये धूप में क्यों बैठती हो इतना। स्वेटर- शॉल किसलिए बने हैं।
तब मुझे धूप में बैठना एकदम पसंद नहीं था। सिर्फ़ उतनी देर छत पर होती अगर कुछ पढ़ना हो और घर के शोर में मुश्किल हो रही हो। मुझे याद है तब भी, आधा घंटा से ज़्यादा धूप बर्दाश्त नहीं कर पाती थी।
मगर इस बार कुछ अलग सा लग रहा। लग रहा मैं माँ की तरह होती जा रही हूँ। धूप पसंद आने लगा है। एकांत में जब हवाएँ चलती हैं तो सुकून मिलता है। मन करता है घंटों किसी ऐसे कोने में रहा जाए या सुदूर गाँव में बस जाया जाए जहाँ मेरी मर्ज़ी के बिना कोई डिस्टर्ब नहीं करे। सारे संचार के साधन ख़त्म कर दिया जाए।
धूप का स्पर्श कुछ अलग होता है ...बेचैनियों को धीरे-धीरे सोखता हुआ.....अपनी जड़ों से जोड़ता हुआ....
आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 14 जनवरी 2018 को साझा की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत ही भावुक कर गयी ये चंद पंक्तियाँ !!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteनिमंत्रण पत्र :
ReplyDeleteमंज़िलें और भी हैं ,
आवश्यकता है केवल कारवां बनाने की। मेरा मक़सद है आपको हिंदी ब्लॉग जगत के उन रचनाकारों से परिचित करवाना जिनसे आप सभी अपरिचित अथवा उनकी रचनाओं तक आप सभी की पहुँच नहीं।
ये मेरा प्रयास निरंतर ज़ारी रहेगा ! इसी पावन उद्देश्य के साथ लोकतंत्र संवाद मंच आप सभी गणमान्य पाठकों व रचनाकारों का हृदय से स्वागत करता है नये -पुराने रचनाकारों का संगम 'विशेषांक' में सोमवार १५ जनवरी २०१८ को आप सभी सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद !"एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/